Saturday 24 May, 2008

- धूम धडाका

हास्य का अभिनय और अभिनय का हास्य... जो बाबा ने अपने ‘मानस’ के बारे में विनम्रता वश कहा था - ‘भनिति मोर सब गुन रहित, बिस्व बिदित गुन एक’, वही कठोर सत्य है - शशि रंजन लिखित-निर्देशित फिल्म ‘धूम धडाका’ का। बाबा में वह सत्य है -‘ एहि महँ रघुपति नाम उदारा’, और इसमें है -हास्य। और यही इस फिल्म की ख़ासियत है - हास्य के मुताबिक भरा पडा है अभिनय और अभिनय के मुताबिक बनता-निखरता हास्य। कहना होगा कि इस कला का समूचा इसमें समाहित है। ईर्ष्या, होड, प्रेम, दोस्ती, लालच, छल, फ़रेब, साज़िश, गुण्डई, संवेदना, सज़ा, त्याग ...आदि सारे भावों, सभी प्रवृत्तियों को हास्य में ढाला गया है और हास्य-अभिनय के प्राय: सभी प्रकारों-रूपों को साधा गया है, जो बख़ूबी सधे हैं। हास्य अभिनय का शास्त्र बन गयी है फिल्म, जिसकी बारीकियों (जो आम अमझ की नहीं हैं) को न समझने वालों के लिए यह ऊटपटाँग हरकत होगी। यूं तो सभी सातो-आठो कलाकारों ने अच्छा निभाया है, पर अनुपम खेर का कहना ही क्या ! मुंगीलाल के रूप में वही हीरो हैं - हास्य के हीरो जैसे। इस भूमिका में सबसे अधिक विविधता उनकी क्षमता के मुताबिक ही रची गयी होगी। उन्होंने आंगिक (देह के) अभिनय का मानक वाचिकता (बोलने) के सपोर्ट से साधा है, तो सतीश कौशिक ने वाचिक का जादू बिखेरने में आंगिक का सहाय लिया है। दोनो की कला में एनएसडी की ट्रेनिंग का निखार खुलकर बोलता है, जिसके अभाव में इंड्स्ट्री के मशहूर कॉमेडियन सतीश शाह सिमट कर रह गये हैं। क्या तभी दोस्त की मह्त्त्वपूर्ण भूमिका में दबे-दबे रूप में फिट कर दिये गये हैं? गुलशन ग्रोवर का खल पात्र चाह कर भी हास्य ला न सका। भूमिका में सम्भावना थी या नहीं, यह तो अनुपम जैसों को करना होता, तो पता लगता...। हाँ, गुलशन के बेटे बने कलाकार ने हास्य के कैरिकेचर रूप का अच्छा प्रदर्शन किया है। दोनो प्रेमी जोडे भी ठीक ही हैं। गेस्ट जैसी भूमिका में जैकी श्राफ से हास्य तो क्या, कुछ नहीं कराया गया है। परंतु कोफ्त होती है टेलीविज़न की ‘सोनपरी’ दीपशिखा को देखकर, जो फिल्मों में ढिबरी बनकर कारिख ही कारिख फेंक रही हैं। हास्य के अभिनय व अभिनय के हास्य की योजना न होती, तो कहानी तो ऐक्शन-सस्पेंस वाली हिंसक थीम की थी, पर मार-धाड भी इतनी अहिंसक, शालीन व विनोदी हो सकती है, के कायापलट फिल्मायन में शशि रंजन की विरल निर्देशन-कला का कमाल देखा जा सकता है। दृश्य-निर्माण में हास्य खिलता है, ध्वनि-संयोजन में गमकता है। पहनावे व सजावट इसमें चार-चाँद लगाते हैं। याने सबकुछ हास्यानुकूल है। परंतु यह भी उतना ही उल्लेख्य है कि इस सुनियोजित हास्य के इरादे ने कहानी को अजानी गलियों में भटकाया है, गोल-गोल घुमाया है। फिल्मांकन की स्थितियों, स्थलों, घटनाओं को काफ़ी ऊलजलूल बनाया हैं । गाने सब ठूँसे हैं- बस, सारी फालतू दृश्यावली के बावजूद होली वाला गीत पुराने बोल व पारम्परिक धुन (राठौड का इसमें क्या है?)में गाये होली वाले को छोडकर। याने किसी बात में कोई तर्क व वजह खोजना व्यर्थ है। और थोडी देर में ही यह समझ में आ जाता है। जो इस नीयत को समझकर देखेंगे, अभिनय का मज़ा ले सकेंगे, वरना... हाँ, बैठे रह गये, तो जान पायेंगे कि बचपन में ही बम्ब्लास्ट में घायल पिता के बिना इलाज मरने की वेदना से आहत अनुपम खेर ने अलीबाग में एक अस्पताल खोलने का संकल्प सँजोया, जो अंड्ररवर्ल्ड में जाकर कीव गयी सारी करतूतों के बावजूद बना रहा और ऐन समय पर सरगना जैकी ने मंजूरी दी। पैसे के लोभ में जाली वारिस बनकर आये चारो युवा-युवतियों ने भी सच का साथ दिया। याने भौतिकता के सारे लोभ-लाभ व अपराध की दुनिया की हैवानियत के बीच मनुष्यता अभी एकदम मरी नहीं है... का मेसेज... कितना सम्भव, पर प्रयास है, तो सही...। हास्य की फिल्मी बिक्री में संवेदना का यह फ्री गिफ्ट है। सो, फिल्म अपने शौकीनो से ये तवक्को रखती है कि ‘शौक-ए-दीदार अगर है, तो नज़र पैदा कर..’.। -सत्यदेव त्रिपाठी

Saturday 17 May, 2008

‘जन्नत’ का रास्ता - ईमाँ या कुफ़्र...?

‘जन्नत’ का रास्ता - ईमाँ या कुफ़्र...? चचा ग़ालिब के ज़माने में शायद यह द्वन्द्व जिन्दा था, जब उन्होंने लिखा था - ‘ईमाँ मुझे रोके है, खैंचे है मुझे क़ुफ़्र...’, लेकिन आज वह बात नहीं रही - क़ुफ़्र का जलजला तारी है... और ईमाँ की बेसिक समझ ही नदारद हो गयी है... लेकिन हमेशा की तरह भट्ट कैम्प ने अपनी नयी फिल्म ‘जन्नत’ में भी इस द्वन्द्व को क्या खूब जिन्दा रखा है...। क़ुफ़्र का सरताज़ है - हीरो अर्जुन (यह नाम हिन्दी फ़िल्मों को इतना प्रिय क्यों है !)। उसकी जन्नत का मतलब स्वर्ग नहीं, ऐशगाह है, जिसे वह जूए के बाद क्रिकेट पर दांव लगाने से होते हुए मैच-फिक्सिंग के ज़रिए झटपट में पा लेना चाहता है। झटपट में वह इतना बडा बूगी और फिर सबसे बडे डॉन का मैच सेटर कैसे बन जाता है, के लिए कहानी ने अर्जुन की छठीं इन्द्रिय (सिक्स्थ सेंस) जाग्रत कर दी है। इस बेवजह की वजह. से वह हर मैच के परिणाम का सही अन्दाज़ लगा लेता है। अब तो फिल्म की सतही समझ वाले इसे क्रिकेट की फिक्सिंग वाली फिल्म कह कर पल्ला झाड लेंगे। और इसे पिछले विश्व कप के वूल्मर-हादसे जैसी तमाम घटनाओं से जोड देंगे..। ख़ैर, इस काम के भरोसे वह अपनी जन्नत के एकदम करीब पहुँच जाता है- क़ुफ़्र का जल्वा...! पर इस भयावह लत तथा सिक्स्थ सेंस के साथ उसकी ‘जन्नत’ का एक अहम हिस्सा है - महबूबा ज़ोया, जिस पर पहली ही नज़र में दीवाना हो जाता है अर्जुन (दीवानगी की अदा के लिए फिल्म देखें) । सचमुच तो उसी के लिए वह डॉन का सेटर भी बनता है । और उस ज़ोया में कहानी ने कूटर्‍-कूट कर भर दिया है - ईमाँ। जूए के ज़माने से ही अर्जुन को सुधारने के पीछे पडा है - उसके मूल्यनिष्ठ पिता का मुरीद पुलिस इनस्पेक्टर ...। फिर तो दोनो (पक्षों) के बीच टक्कर शुरू। ज़ोया अर्जुन को पकडवा देती है। अर्जुन अपने रास्ते से यही समझता है कि पैसों के लिए ज़ोया ने ऐसा किया है, लेकिन डॉन की मदद से छूटकर आने पर पता चलता है कि वह तो अर्जुन की राह देख रही है और फिर से जिन्दगी शुरू करने के लिए क्लबों में नाचकर पैसे जुटा रही है। अब कश्मकश शुरू होती है - ज़ोया कुफ़्र के साथ रह नहीं सकती और अर्जुन ईमान पर चल नहीं सकता। अर्जुनों के बनने के कारण पर भी नज़र है । अर्जुन को याद है कि उसके माँ-पिता खिलौनों वाली सडक से उसे नहीं ले जाते थे..। उसे अपने बच्चे से इस तरह नहीं बचना है...। ऐसे अर्जुन को मारने के बाद इस कारण का जवाब भी देती है फिल्म, जब कम पैसों के कारण माँ ज़ोया को घर के जरूरी सामान लौटाते देखकर उसी अर्जुन का बेटा अपना खिलौना वापस कर देता है। याने जरूरत व विलासिता की समझ ही असली जन्नत बना सकती है। लेकिन वह बनेगी कैसे ? डॉन के रूप में कुफ़्र का सरगना तो जिन्दा है। याने कशमकश जारी है...। अर्जुन बना इमरान हाशमी इस कश्मकश को वैसा निभा नहीं पाता - जैसा कुफ्र को जी पाता है। कुफ़्र को छोडने जैसा जल्वा तो उसकी ज़ोया बनी सोनल चौहान का है भी नहीं। उसकी ईमाँ की ज़िद भी उसी की तरह नाज़ुक रह जाती है...। क्या यह सब भी इसी आज के पतनशील समय के असर का ही संकेत है ? कोई गीत-संगीत तो दिल को नहीं छू पाता, पर डॉन यूँ समझाता है कि क्रिकेट पर दाव लगाना ईमाँ का काम ही लगने लगता है । क्या यह भाषा भी इसी समय की देन है ? ये सब युग-सत्य के चेहरे की भयावह छबियाँ हैं। इनको उतना खुलकर न दिखा पाना एवं दोस्त व इंस्पेक्टर के चरित्र को कठ्पुतली-सा बना देना... क्या निर्देशक कुणाल देशमुख पर भी समय के दबाव के परिणाम हैं या कौशल की कमी...? इंस्पेक्टर के मना करने के बावजूद समर्पण के लिए तैयार अर्जुन को मार गिराने की ज़बर्दस्ती के बाद ज़ोया ठीक ही कहती है - यू बास्टर्स...। तो, यह सब देखने के लिए आँखें खुली रखना हो, तो एक बार इस ‘जन्नत’ में हो आना बुरा नहीं है...। - सत्यदेव त्रिपाठी

Saturday 10 May, 2008

भूतनाथ - भूत को देवदूत बनाता है आदमी

सिनेमा- भूतनाथ भूत को देवदूत बनाता है आदमी ... जी हाँ, बी.आर. चोपडा बैनर की फिल्म ‘भूतनाथ’ यही बताती है (इसलिए नाम देखकर इसे डरावनी वग़ैरह वाली फिल्म न समझें)। गोवा के एक भूत बँगले, जिसमें टैक्सी वाले व नौकर-चाकर तक नहीं आते, में रहने आये परिवार की माँ अंजलि शर्मा (जुही चावला) अपने बच्चे बंकू (अमन सिद्दीकी) को बताती है - ‘भूत-वूत कुछ नहीं होते, देवदूत (ऐंजिल) होते हैं’ (सारे माता-पिता, कृपया ध्यान दें)। और रात को जब सचमुच भूतनाथ (अमिताभ बच्चन) बनकर भूत आता है, तो उसे बच्चा देवदूत समझता है - डरता ही नहीं । वरन् ऐसे आदर, प्यार व मज़े से पेश आता है कि उसे सच ही देवदूत बनना पडता है, जो फिल्म में एक बेहतर इंसान सिद्ध होता है। याने फ़र्क़ आदमीयत का है - आदमी ही भूत भी बनता-बनाता है या भूत को देवदूत भी। फिर तो दोनो दोस्त बन जाते हैं और भूतनाथ का जादुई असर बंकू से मिलकर घर व स्कूल में खूब मज़े कराता है । यही मौज-मज़ा ही है तीन-चौथाई फिल्म, जिसके लिए ‘भूतनाथ’ सबसे पहले ‘बच्चों की फिल्म’ है - गर्मी की छुट्टियों की दावत (ट्रीट)। पर कहना होगा कि यह सबकुछ बचकाना भी है और कुछ बासी भी। गीत-संगीत भी महा बेरस.. जावेद अख़्तर तथा विशाल व शेखर ने क्या किया है, वही जानें। हाँ, एक गाने में अमिताभ बच्चन की आवाज उनके पिता बच्चनजी के काव्य-गायन की ख़नक की याद दिलाते हुए श्रवणीय बन पडी है। वरना ज़ाहिर है कि हम ऊबते हैं, लेकिन इस दौरान अमिताभ व उनके समक्ष अमन सिद्दीकी के अभिनय की समक्षता उल्लेखनीय है। दोनो के बडे-छोटे होने का अंतर तो ज़मीन-आसमान का है, पर अभिनय का रसायन (केमिस्ट्री) ऐसा बना है कि ‘को बड छोट कहत अपराधू’। और इसलिए मैं इस फिल्म का नायक तो अमन को ही कहूँगा - बिग बी तो महानायक हैं ही। सो, ‘भूतनाथ’ के असली खाद्य (रोटी-चावल) ये दोनो ही है, पर जुही चावला दाल की तरह सबमें मिली हैं तथा सदा की तरह खिली भी हैं। शाहरुख खान तो शुरू और अंत में शोरबे व मिष्ठान्न (सूप व स्वीट) की तरह हैं। चटनी-अँचार के लिए स्कूल में प्रिंसिपल सतीश शाह व घर में शराबी-पागल राजपाल यादव हैं, पर दोनो ही अपेक्षित स्वाद लाने में नाक़ामयाब हैं। इस सामग्री के साथ यदि आप बैठे रह गये, तो बच्चों की इस फिल्म के अंत के चौथाई भाग में बडों के लिए कुछ बडी बातें भी मिलेंगी - आज के लिए मौजूँ एवं मनोविज्ञान-सम्मत। तब समझ में आयेगा कि यह तत्त्व शुरू से ही पिरोया है, पर माले के धागे की तरह दिखता नहीं। इतने आयामों वाली इस फिल्म में ऐसा कौशल विवेक शर्मा के निर्देशन की खूबी है। कहानी (लॉर्ड ऑफ़ घोस्ट्स) की ताकत है, जिसमें भूतनाथ सचमुच भूतनॉट (भूत नहीं) है। वह तो उस बँगले के मालिक कैलाशनाथ की अतृप्त आत्मा है, जो बँगले में भटक रही है...। पोशाक व पात्रत्त्व में भी भूत का वैसा भान नहीं होता । क्या सोद्देश्य ? उनका बेटा अमेरिका पढने गया था, पर वहीं बस गया। अपनी मरती माँ को देखने तक नहीं आया। और एक बार आकर पिता से पूछे-बताये बिना बडे महँगे दामों वह बँगला बेचने चला। न बेचने लिए जो तर्क देते हैं कैलाशजी, उसे आज की नयी पीढी के हर युवक को सुनना चाहिए - भौतिक यथार्थ के समक्ष भावात्मक यथार्थ का ज़हीन पक्ष। 4-5 साल का पोता दादाजी से लिपट जाता है, पर बटे-बहू खींच कर लिए चल देते हैं - मुडकर देखते तक नहीं कि उन्हें रोकने के आवेग में कैलाशनाथजी गिर जाते हैं- खून से सने लावारिस-से मर जाते हैं। इसी अतृप्ति वश भूत बनकर इस बँगले की रक्षा में किसी को रहने नहीं देते थे, पर बंकू में उसी पोते को पाकर अब इन्हें जाने नहीं देते। अमेरिकन बेटा ग्राहक लाता है, तो तूफ़ान खडा कर देते हैं। यहीं खत्म होना था फिल्म को, पर एक और वर्ग को भुनाने की कोशिश में मन्दिर के पुजारी की सलाह पर कैलाशनाथ की आत्मा की मुक्ति के लिए बंकू के हाथों शाहरुख व जुही श्राद्ध कराते हैं। पहले इनकार के बाद अंत में बेटा विजय भी शामिल हो जाता है और इस भाग में विजय बने प्रियांशु चटर्जी ध्यान भी खींच पाते हैं। भूत से बना देवदूत अब मुक्ति के बाद सितारा देवदूत (स्टार ऐंजिल) बन जाता है और खल पात्र रहा विजय सद्पात्र बन जाता है । फिल्म को बच्चों की नज़र से देखने व बडों की दृष्टि से समझने के लिए सभी को देखनी ही चाहिए, पर धीरज धरे जिग़र के साथ,,,। - सत्यदेव त्रिपाठी

Friday 9 May, 2008

माँ इसे देवी कहती... (समापन किस्त...)

माँ इसे देवी कहती... (समापन किस्त...) इस तरह देवी इतना बाहर रहने लगी कि घर के लिए ही पहुनिया हो गयी। कहीं रुकने पर फोन करना भी बन्द हो गया। इसे लेकर कभी किसी बात पर मेरी पत्नी के मुँह से निकल गया - ‘जीजी का इतना बाहर रहना ठीक तो नहीं है...’ और माँ ने डपट दिया - ‘ख़बरदार, देवी है मेरी बेटी। मत भूलो कि उसी की राय से ही तुम इस घर में बहू बनकर आयी हो...’। देवी के कानों तक भी यह बात गयी । उसने कहा तो कुछ नहीं, पर तभी से ज्योति के हाथ का खाना-पीना तक बन्द कर दिया - बात करना तो दूर की बात। उसका ऐसा करना मुझे कुछ ठीक न लगा, पर माँ के लिए यह भी उसके देवी होने का ही प्रमाण बन गया - त्याग, प्रतिज्ञा, साधना,.. जाने क्या-क्या !! और देवी का खाना माँ ख़ुद बनाने लगी - वह जब कभी-कभार घर रहती...। लेकिन बात ज्योति तक ही नहीं रही...। चाल की कोई पडोसन कभी पूछ ही देती - ‘देवी इतने-इतने दिन तक कहाँ रहती है बहनजी...’? और माँ गर्व के साथ बताती - ‘फला लेखक के यहाँ गयी है या अमुक कलाकार ने बुलाया है. या तमुक जगह सेमिनार है..’। बिटिया जाति का इस तरह बाहर रहना ठीक नहीं बहना...’ - पडोसन बडे अपनापे से कहती। ‘मेरी बेटी कोई ऐसी-वैसी नहीं...’- माँ का वही पुराना राग बजता- ‘’देवी है, देवी...’। पर नौकरी के मामले में बडी अनलक्की रही देवी - न उसका देवीत्व काम आता, न सम्पर्क के इतने सारे बडे-बडे लोग...! छोटी-मोटी अस्थायी नौकरियां ही करती रहती...। फिर तो एक दिन ग़ज़ब ही हो गया। वह ऑटो से उतरी और झम्म से मेरे सामने आकर खडी हो गयी - ‘पहचानो, तो जानें...’। और फिर मॉ की ओर मुडी - ‘देखा माई, हमहूँ मॉडर्न हो गइली ...’! इस विनोद भरे प्रदर्शन के बाद ख़ुद ही बताने लगी - “बहुत दिनों से लोग कहते थे - ‘ब्यूटी पॉर्लर जाओ...ब्यूटी पॉर्लर जाओ...। वे लोग ‘लुक’ ऐसा बदल देंगे कि व्यक्तित्त्व निखर आयेगा- आजकल नौकरी के लिए योग्यता के साथ यह सब भी ज़रूरी है’। और आज तो अमिताजी जबर्दस्ती लेकर ब्यूटी पॉर्लर ही चली गयीं। पेमेंट भी उन्होंने ही किया”। ये अमिताजी इधर देवी की नयी मित्र हुई हैं। उम्र पचास के ऊपर.। रहन-सहन टीप-टॉप । पति का करोडों का कारोबार। ख़ुद का एन.जी.ओ.। उन्हें देवी में न जाने क्या दिखता कि महीनों अपने यहाँ से आने नहीं देतीं। वहाँ भी रहने जाने के पहले रिचुअल की तरह मुझे घर दिखाने ले गयी थी देवी - झील किनारे राजा-महाराजा जैसा उनका बँगला...। इधर अमिताजी के रोज़ ही कुछ न कुछ उपहार आने लगे - सोने तक के। और आज ‘लुक’ ही बदल डाला- बालों के स्टाइल से चेहरे तक का काफ़ी कुछ...। शायद मेरे चेहरे पर इस नये अवतार के प्रति उदासीनता दिखी हो...तभी तो देवी ने कहा- ‘मेरे भैया को तो यह सब फ़ूहड लग रहा होगा, क्योंकि अपनी बहन कराके आयी है। दूसरी औरत कराके आये तो...’। होंठ तो फडके मेरे, पर कह कुछ न सका, लेकिन ताज्जुब हुआ कि माँ भी उस दिन चुप रह गयी - देवी-पुराण शुरू नहीं किया। ..... बस, माँ की उस चुप्पी की याद ने खयालों से निकालकर अचानक माँ के पास पहुंचा दिया - दुकान पर। जाकर उसे अन्दर खींच कर ले गया और सीधे बोलना शुरू किया - “तुम्हें पता है सविता-अमिता के गिफ़्ट के नाम पर तुम्हारी देवी की मोबाइलों की दुकान खुल गयी है। एक की घंटी बजी और झोले में हाथ डाला, तो चार-चार मोबाइल...। मालूम है, उठाने पर क्या सुनना पडा - ‘क्यों मेरी जान, इतनी देर से फोन बजा रहा हूँ। कहाँ हो...”? गुस्से से मेरा मुँह टेढा हो गया था। शब्द चबा-चबा कर निकलने लगे थे - “एक अलहदा फोन देने पर भी यह हाल है कि चांस नहीं मिल रहा है...कहाँ-कहाँ एनगेज़ रहती हो ? ...कल इसी वक्त तुम्हारी बाँहों में था। बडी याद आ रही है...’’ - कहते-कहते रुलाई फूट पडी मेरी... रोते-रोते ही डाँटने पर उतर आया- “अब बोलो, यह मोबाइल की दुकान है या धन्धे का सामान ? और बनाओ देवी..। मेरा माथा तो ब्यूटी पॉर्लर के दिन ही ठनका था- वैक्संग, आईब्रोज़...। ब्लाउज़ के आगे का हिस्सा देखा है आजकल उसका ? पीठ तो आधी कब से खुली रहती थी !! देख लिया ? रात-रात भर बाहर रहकर कौन-सा इंटर्व्यू लेती-देती है ? किस सेमिनार में जाती है ? उसकी सहेलियां हैं कि दलालों की गैंग ? बहनजी रोज़ लाती थीं - उपहाSर. ! हुंह..सब बकवास..। कीमत मिलती थी - कीमत । गिफ़्ट के नाम पर हमें उल्लू बनाया जाता था। सब अय्याशी है। आने दो आज तुम्हारी ‘देएएवी’ को, गला न दबा दिया, तो...” ”नाहीं-नाहीं बचवा...अइसा ना करना” - माँ के झर-झर आंसू बह रहे थे - “वो खुदै जाने वाली है। हम तो कब से जानि गयी हूँ। एक बार फोन पर की बात सुन ली थी। तब से केतना दफा आड-आड से सुनी। अपनी लाज... केसे कहैं ? आज तुमहूं जानि गये, तो बताय देत हैं..। होटल-फोटल के धन्धा करै वाले सविता के घर के मर्दन ने पहले बिगाडा इसको..। सान-सौकत की लत लगाय दिये। ऊ सब हियाँ से तो मिलता नाहीं..। बस, ऐस-आराम के बस में होय के बिगड गयी लडकी..। गल्ती हमरी भी है कि देवी माना। कभी जानने की परवाह नहीं की...। बाकी अब तो अमिता के मरद से इसका परेम चलि रहा है”। ‘’प्रेएएम...!! वो भी धन्धा ही होगा... कालगर्ल कह्ते हैं । बहुत बडा रैकेट चलता है ...” “जो होवे...” - माँ पर जरा भी असर नहीं - ‘’ ऊ रखै वाले हैं इसको। अलग घर देवै की बात चलि रही है। ई सब चरित्तर खुलने के पहिले अइसे ही सही, बन्द होइ जाये, उहै अच्छा...” “माई, क्या कह रही है..? तू तो औरत है। जरा सोच, अमिता आँटी का क्या होगा “? “ई बखत ई सब देखने का नाहीं है” - फिर आँसू पोंछते हुए बोली -“हमन के मुंह कालिख लगने के पहिले ई बलाय हियां से टरि जाय, तबै अच्छा...” ”और अपने से 20 साल बडे शादीशुदा आदमी की रखैल बनने से कालिख नहीं लगेगी क्या” ? “हम सोचि लिये हैं ऊ भी। एक बार गयी, तो फिर इस छिनाल को लात नहीं रखने देंगे हियाँ। सबको कहि देंगे- बहुत बडे लोग हैं। साल में दस-ग्यारह महीना तो बिदेस में रहत हैं। बाद में चाहे कोई जो कहे... इस जैसी बदनामी से तो बचि जायेंगे...”। और मैं इस ‘देवी’ को देखता रह गया था - हैरत से, हसरत से...!! ** ** **

Thursday 8 May, 2008

माँ इसे देवी कहती ...! दूसरी किस्त

माँ इसे देवी कहती ...! दूसरी किस्त देवी की पढाई भी रंग लाने लगी। उसने बी. ए. पास किया - युनिवर्सिटी में टॉप करके । अब तो पास-पडोस व नात-हित ने भी मान लिया कि देवी में कुछ तो खास है...। वरना जब से वह ससुराल से लौटी थी, किसी को भी उसके लिए अन्दर से सहानुभूति नहीं रह गयी थी। फिर तो एम.ए. में दाखिला लिया और सभी अध्यापकों की प्रिय हो चली...। उसका एक सर्कल बनने लगा, जिसमें धनी घरों की दो-चार लडकियां देवी की सबसे अच्छी दोस्त बनीं। पर कहना होगा कि चाल के अपने छोटे-से घर व केराना की दुकान जैसे पेशे से कतई शर्मिन्दा नहीं होती देवी..। सबको घर ले आती । आने वाले भी मुतासिर होते कि इतनी असुविधाओं के बीच भी देवी इतना अच्छा पढ लेती है। तथा ऊँची सोसाइटी वालों के साथ भी बाहर उतनी ही सहजता से रह लेती है। बस, मुझे खटकता यही कि पिता की बीमारी व मौत के बाद की अपनी करनी सबको बताती जरूर - टुकडे-टुकडे में, पर पूरी। और अपने को ‘देवी’ मानने की बात का तडका ऐसा लगाती, जो लोगों को विनोद भी लगता, मगर सच भी । परंतु यह मुझे बडा फूहड लगता...। इस सरनाम स्थिति में जब एम.ए. के पहले वर्ष की परीक्षा के दिन आये, तो देवी पहली बार अपनी एक अमीर सहेली अर्पणा के घर रहकर पढाई करने गयी - बेशक़ मुझे वहाँ पहले ले जाकर दिखा देने के बाद ही। परीक्षा के बाद वहाँ से आयी, तो कन्धे पर एक झोला लटकाए हुए । बताया अर्पणा के भाई ने दिया है - ‘शबनम’ कह्ते हैं। तभी से शबनम उसके कन्धे का स्थायी शृंगार बन गया। फिर तो भिन्न-भिन्न रंगों-डिज़ाइनों के कई-कई शबनम भेंट में आने लगे...। फिर उनमें रखे कई तरह के उपहार भी...। कोई किसी सहेली ने दिया, कोई किसी सहेली के भाई ने...फिर कोई और किसी मित्र ने...। न तो देवी बताते अघाती, न ही माँ सुनते...। तमाम सहेलियों-दोस्तों के फोन आने लगे...कुछ घर भी आते। देवी की तारीफ़ों के खूब पुल बाँधते...। और माँ गदगदायमान होकर कहती - ‘देवी तो सच ही देवी है’। ज़ाहिर होता गया कि उसके दोस्तों का सर्कल बढरहा है - बेतरह...। क्या बेतरतीब भी ? झोले में दिखता कि ढेर सारी दुनिया-जहान की चीज़ें भरी हैं...। और आज उसी झोले के सामान ने ही अचानक प्रकट होकर यह सब सोचने पर मज़बूर कर दिया...। पछता भी रहा हूँ कि क्यों उठा लिया मोबाइल...? बजकर बन्द हो जाने क्यों नहीं दिया...? या शुरू में ही क्यों नहीं रोका इस उपहार परम्परा को...? आखिर देवी तो कभी भेंट देती नहीं किसी को...। फिर इस इकतरफ़ा गिफ़्ट का मतलब... ? अजीब तब भी लगा था, जब एम.ए. दूसरे वर्ष की परीक्षा के दिनों वह अर्पणा के यहाँ न जाकर सविता के यहाँ जाने की बात करने लगी - ‘वो मान नहीं रही है। कहती है, इस बार मेरे ही घर आना होगा। दोनो साथ ही पढेंगे..’। सविता के पति का होटेल का करोबार है। देवी वहाँ जाती तो पहले भी थी, पर रहने जाने के पहले वहाँ भी मुझे ले गयी। याद है, मैंने रास्ते में कहा था - ‘दीदी, तुम दोस्तों के मामले में बडी ‘लकी’ हो’। वह मुस्करायी, फिर बोली - ‘अच्छी पढाई की सुविधा मिल जा रही है, तब तक माँग बनाये रखनी है’...। और मैं चौंक पडा था - यह तो बाज़ार की भाषा बोल रही है...। पर बातों की रौ में बात ‘आयी-गयी’ हो गयी। सविता का घर बडा आलीशान । देखकर पहला ख्याल यही मन में आया - यहाँ एकाध महीने रहने के बाद देवी उस चाल वाली अपनी खोली में रह कैसे पायेगी ! पर मानना पडेगा कि वहाँ से लौटने के बाद अपनी खोली में और अधिक मन से ही रहती दिखी...। लेकिन अब धडक खुल गयी और धीरे-धीरे सहेलियों के यहाँ रुकना अक्सर होने लगा। कभी भी बस, फोन घुमा देती - ‘माई, हम फलानी किहाँ हई। आज यहीं रुकि जाब... हाँ ई ना मानति हईं...अच्छा..’ ? लेकिन कई बार मुझे यह भी लगता कि देवी यहाँ-वहाँ जाने का मौका ख़ुद ही निकालती है। हाँ, छाप ऐसी छोडती है कि जाना-रुकना पड रहा है ! इसी तरह एक-एक उपहार किस-किसने दिया, सभी दोस्तों को यूँ बताती कि मुझे लगता - जैसे सामने वाले को उकसा रही है उपहार देने के लिए...। और यह सब दिनो-दिन बढता ही रहा ...। हाँ, रिज़ल्ट आया, तो उसने टॉप किया एम.ए. में भी । बधाइयों-प्रशंसाओं के ढेरों फोन आये., अख़बार में फोटो भी छपा। अब तो हमारी चाल की स्टार ही हो गयी देवी - सभी लड्कियों के लिये उदाहरण, आदर्श । चाल की सभी लडकियाँ ‘देवी दीदी, देवी दीदी’ कहती उसके इर्द-गिर्द घिरी रहने लगीं, जो मुझे बहुत अच्छा लगता...। अब ‘देवी’ नाम सार्थक होने लगा था...। लेकिन जल्दी ही यह भी होने लगा कि लडकियाँ अक्सर इंतज़ार कर-करके थक जातीं और देवी नहीं मिलती...। कभी जब मिल जाती, तो दस-पाँच मिनट भर के लिए ही। और उस दौरान भे यही बताती सुनी जाती कि किस तरह किसी कविगोष्ठी, किसी कहानी-पाठ, किसी सेमिनार...आदि आयोजन में रोक ली गयी...। और माँ यह सब कान पारकर सुनती.. गर्व से भर उठती। पर न जाने क्यों, मुझे इतना बाहर रहना अच्छा न लगता। रोज़-रोज़ इतने आयोजनों पर शंका हो उठती..। मेरे भाव ताड ही गयी होगी , तभी तो एक दिन कहा उसने - ‘सामतवादी पुरुष-परम्परा के मेरे भाई को मेरा यह सब भा नहीं रहा न...! लेकिन परेशान न होओ मेरे भाई, धीरे-धीरे समझ जओगे कि मैं तनिक भी ग़लत नहीं हूँ...’। और आज समझा, तो घिन आ रही है, पर तब तो शरमा ही गया था...। फिर तो देवी बाहर भी जाने लगी - नेशनल आयोजनों में...। कभी हवाई जहाज से भी बुलाया जाता । दो दिन के लिए कहकर जाती और कभी सप्ताह भर भी लगा देती...। वहीं से फोन करती - यहाँ एक बडी ऐतिहासिक जगह है। आयोजक हमें कार से वहाँ पिकनिक कराना चाह रहे हैं। तो, दो-तीन दिन बाद आती हूँ’। और ऐसा ही कुछ अक्सर होता...। सुनकर मैं उदास हो जाता, पर माँ बडे अभिमान भरे उछाह से कहती - ‘का फिकिर करते हो बचवा, तोहरी बहन तो सचमुच की देवी है। किसी बडे पुण्य से पैदा हुई है इस घर में। देखते रहो - केतना आगे जाती है...! तोहरे बाबूजी की बानी - ‘ देवी खान्दान का नाम रोशन करेगी’ - झूठ थोडे न होगी ‘! समापन किस्त.पढिए - कल...

माँ इसे ‘देवी’ कहती... !!

माँ इसे ‘देवी’ कहती... !! - सत्यदेव त्रिपाठी पहली किस्त- अचानक चाल में जोरों का झगडा शुरू हुआ....और अपनी आदत के मुताबिक देवी वहाँ पहुंच गयी। मैं अकेला रह गया कमरे में...। आजकल यूं भी देवी कम ही मिलती है घर पर। सहित्य- कला आदि के तमाम कामों में बिज़ी हो गयी है। हमें अच्छा लगता है...। इसलिए अभी थोडा-सा वक्त मिला था, तो उसे भी छोडकर उसका चले जाना कहीं खल गया। मेरी इकलौती बहन है - देवी। मुझसे तीन साल बडी । और मैं भी उसका इकलौता भाई , पर व्यवहार में वह माँ जैसी मेरी केयर करती है। मुझ पर आयी हर मुसीबत को अपने ऊपर ओढ लेना चाहती है... इन्हीं सब ख्यालों में उतरा ही रहा था कि बगल में पडे देवी के झोले में मोबाइल बज उठा... । निकालने चला, तो एक-एक करके चार मोबाइल हाथ आ गये। याद आया कि उसकी सहेली सविता ने एक मोबाइल भेंट किया था...पर दो की जगह ये चार-चार...!!! आश्चर्य के साथ बजने वाला ऑन किया और बिना हेल्लो किये ही सामने से जो सुन पडा...कि ओफ़ ..! हाथ-पैर सुन्न हो गये। गुस्से से सारा बदन जलने लगा। .. वहीं बिस्तर पर पड गया। सामने चार-चार मोबाइल ..जैसे चार-चार साँप - फ़न उटाये ...। बस, देवी का गला ही दिख रहा था मुझे। पंजे कुलबुलाने लगे थे... पर हाय रे लोक-लाज ...और इस वक्त वह लोक के बीच थी !! झगडने वाली दोनो पार्टियों को उपदेश पिला रही होगी - ‘देवी’ जो ठहरी... ! और उसी झोंक में झोला-मोबाइल भूल गयी.. वरना आजकल एक मिनट के लिए भी झोला नहीं छोडती - भेद अब समझा..। वाह री देवी...धन्य है..! हारकर थसमसाया पडा रहा। एक - एक करके दृश्य उभरने लगे... ...असल में ‘देवी’ नाम इसे पिताजी ने दिया था। तब यह 10-12 साल की रही होगी, जब पहली बार इसका कहा सबके ध्यान में आया - ‘आज सपने में मैंने देखा कि गोलू फेल हो गया है’..। और पिताजी ने ‘चुप-चुप, चूप...ऐसा नहीं बोलते। किसी और से मत कहना...’ कहकर चुप करा दिया था। आख़िर गोलू गाँव के सबसे बडे ठाकुर का इकलौता बेटा था। लेकिन रिज़ल्ट आया, तो गोलू सचमुच फ़ेल हो गया। बस, अपनी बेटी में पिताजी की आस्था जमने लगी। उन्हें इस बात का ख्याल भी नहीं आया कि मुम्बई में रहता उनका दामाद भी फ़ेल हो गया है, जिससे बचपन में ही ब्याही गयी थी देवी। फिर पिताजी की ग़वाही में देवी की कई-कई बातें सच होने लगीं। मसलन - सपना देखा कि फ़ला आज मुंबई से आ गये हैं...फलनियां ससुराल से भाग आयी है.. वग़ैरह..। बस, पिताजी कहते सुने गये - इसकी जिह्वा पर तो कोई देवी बैठी हैं। और धीरे-धीरे उसका नाम ही पड गया - ‘देवी’... पिताजी की ‘देवी बिटिया’, माँ की ‘देवी रानी’... और कभी गुस्से में ‘देविया’..। उन्हीं दिनों चाचाजी के साथ बँटवारा हुआ और मुम्बई की एक दुकान पिताजी को मिली। बस, हम मुम्बई आ गये । दुकान ठीकठाक चलने लगी और हम पढने लगे। लेकिन इतने में साल भीतर ही देवी के गवने का समय आ गया और अपनी पढाई के छूटने का मलाल लिये वह ससुराल चली गयी । परंतु चार दिन भी नहीं बीते कि पिताजी को बुलवाकर वापस भी आ गयी। आते ही घोषणा कर दी - ‘अब मैं ससुराल कभी नहीं जाऊंगी...आगे पढाई करूँगी..’। और पिताजी ने देवी के प्रति अपनी आस्था की रौ में इसे भी ‘दैवी विधान’ मानकर मंजूरी दे दी। पूछा तक नहीं कि आख़िर वहाँ हुआ क्या ...। देवी देखने में सुन्दर है। व्यवहार में कुशल है। करने-धरने का गुन-सऊर भी है। सो, इसे लेकर तो कुछ नहीं ही हुआ होगा...। परंतु कोई आज तक न जान सका कि देवी ने ऐसा किया क्यों ? कोई कुछ कह भी न सका - पिताजी का देवी में अखंड विश्वास !! ...धीरे-धीरे यह तय हो गया और सबने मन ही मन मान भी लिया कि देवी अब विवाह नहीं करेगी..। उसने अपनी पढाई जारी कर ली...। दुर्भाग्य से कुछ ही दिनों बाद पिताजी कैंसर की भयावह बीमारी से ग्रस्त पाये गये। पूरा घर बेहाल हो गया। पर देवी खडी हो गयी - चट्टान की तरह...। एक वक्त तो ऐसा ही आया कि उसने इलाज़ के लिए लोगों से घूम-घूमकर पैसे माँगने में भी संकोच नहीं किया। फिर भी हम सब पिताजी को बचा न सके। लेकिन इस दौरान देवी के प्रति वैसा ही भाव माँ के मन में भी उमड आया - जैसा पिता में था। इस दौरान दुकान एकदम बैठ गयी। हम दोनो की पढाई भी छूट गयी। मुझे तो पिता के न रहने पर पढाई छोडकर दुकान सँभालनी ही थी, पर देवी ने भी अपनी पढाई को किनारे करके दुकान को लाइन पर लाने में अपनी जान लडा दी। उतना सब कर पाना अकेले मेरे बस का न था। और दुकान जब ठीकठाक चलने लगी, तो देवी ने फिर से पढाई शुरू की। देवी के इस काम ने मुझे भी उसका गहरा विश्वासु बना दिया, पर माँ-पिता जैसा अन्धविश्वासु नहीं। मैं उसे दीदी ही कह्ता रहा - ‘देवी दीदी’ कभी न कह सका। ....अगली किस्त कल...

Monday 5 May, 2008

बिन पानी सब सून...

सामयिक मुद्दों पर टिप्पणी बिन पानी सब सून... पानी बचाय के ना रखबेया, तब ना हम लेबै सराध में पानी... - सत्यदेव त्रिपाठी ‘बिन पानी सब सून’ पर लिखने के लिए बात करते हुए आदरणीय विश्वनाथजी ने कहा - ‘पानी’ को आप किस रूप में देखते हैं, लिखिए। और मेरे अध्यापक ने शायद फ़ौरन ‘हाँ’ कर दी - तीस साल के अध्यापन के दौरान छिटफुट दोहों के अलावा कभी रहीम को ठीक से पढाने का मौका जो नहीं मिला... तो सोचा होगा कि इसी बहाने कुछ कह पायेंग़ॆ... और सोचते हुए सबसे पहले रहीमदास की वह लोकवृत्ति ख्याल में आयी, जिसने उनसे न ही लोकजीवन व लोकसंस्कृति के ‘टिपिकल’ (खास व अछूते) प्रसंगों को दोहों का माध्यम बनवाया (काश, कुछेक उदाहरण दे पाता !) , वरन लोक के शब्दों का भी सहज-सटीक प्रयोग कराया। ‘पानी’ ऐसा ही लोक का- लोगों का, बहुजन का शब्द है । विशिष्ट जन का तो ‘जल’ है, जहां जलपान होता है। आमआदमी तो ‘पानीकानौ’ व ‘मीठा-पानी’ करता था। देवताओं को आज भी ‘जल’ देते हैं, पित्रों को पानी देते हैं, मित्रों को पानी पिलाते हैं और शत्रुओं को पानी पिला-पिलाकर मारते भी हैं...। हम पानी पीते-पिलाते हैं, तो समाज में होते हैं, वरना तो कहते हैं - उसके यहां कोई पानी तक नहीं पीता...। सो, लोक-जीवन का मानदण्ड है - पानी। लोक के लिए प्रयुक्त पानी के शब्द-युग्मों में दाना-पानी, रोटी-पानी...और ‘हुक्का-पानी’...। फिर तो उसका हुक्का-पानी बन्द होने लगा, जिसने कोई समाज विरोधी काम किया हो। इस तरह वह इज्जत-पानी हो गया- भाई, इज्जत-पानी बनाये रखना...। और तब यह इज्जत राष्ट्र तक पहुंच गयी, जब हमारे भोजपुरी कवि के मरणासन्न बूढे पात्र ने अपने बेटे से कहा - ‘पानी बचाय के ना रखबेया, तब ना हम लेबै सराध में पानी’। देखिए, ‘इज्जत’ शब्द निकल गया। अकेले पानी ही वह काम करने लगा। मेरी समझ से पानी के इज्जतविषयक अर्थ का यह चरम है, जो हमारे लिए सबसे मह्त्त्वपूर्ण है। इज्जत के वजन पर ही पद-पानी, पत-पानी भी चलते हैं। पद-पानी तो समझा जा सकता है, पर ‘पत-पानी’ में ‘पद’ से ‘पत’ का भेद मात्र भाषा-शास्त्र का नहीं है। इसके पीछे छिपा समाज-शास्त्र काफी बारीक है, पर यहां बताने का अवकाश (स्कोप) नहीं...। इज्जतदार के लिए तो पानीदार कुछ कम भी कहते हैं (गोकि उसमें थोडा अलग व ज्यादा अर्थ भी भर उठा हैं - ‘आदमी ‘पानीदार’ है’ में कुछ-कुछ ‘कौल का पक्का’, ‘बात पर मर-मिटने वाला’ का भाव भी आ जाता है। ‘वो तो एक पानी पर रहता ही नहीं’, में यह अर्थ साफ़ देखा जा सकता है) , पर ‘बेइज्जत’ के लिए ‘बेपानी’ तो धडल्ले से चलता है। काफी व्यंग्यात्मक भी हो गया है। हम अपने मित्र ‘नीरन’ को ‘नीर-न’ के विच्छेद के साथ विनोद में बेपानी कह्ते हैं । पानी का चढना तो पानी ही रह गया, पर ‘पानी उतरने में’ तो इज्जत ही उतरती है। और पानी उतरने से ज्यादा पानी उतारा जाता है। इसीलिए ‘भरे बाज़ार उनका पानी उतर गया’ से ज्यादा सटीक व प्रचलित है- ‘उसने भरे बाज़ार उनका पानी उतार दिया’। और जिसका ‘पानी उतर गया’, वो समाज में ‘पानी-पानी’(शर्मसार) हो जाता है। वो फ़िर कैसे सर उठाकर चलेगा ? तो हो गया न उसके लिए ‘बिन पानी सब सून’। इसीलिए ‘पानी रखने’ याने बचाये व बनाये रखने की बात रहीमदासजी ने कही है - ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून’। और उदाहरण देते हुए बताया- ‘पानी गये न ऊबरहिं, मोती मानस चून’। यह ‘मानस’- मानुष- मनुष्य ही है, जिसका पानी (इज्जत) चले जाने के बाद फिर वह उबर नहीं पाता । उसका जीवन सूना (शून्य) हो जाता है। कुछ विद्वान ‘मानस’ को ‘मानसरोवर’ से भी जोडते हैं। पर मानसरोवर में तो पानी का अर्थ पानी ही रह जायेगा (यूँ मानसरोवर में पानी नहीं होता, सलिल होता है - ‘मानस सलिल सुधा प्रतिपाली’) , जो पानी के बिना सूख कर सूना हो जाने वाले उस चूने में भी है। पर मोती का पानी !! सुनार तो नकली गहने पर भी पानी चढाकर असली बना देते हैं। पर सोहनलाल द्विवेदी ने अपनी कविता ‘नन्हीं बूँद’ में बताया कि वह पानी (शायद स्वाती नक्षत्र के पानी) की बूंद ही होती है, जो समुद्र में पडे सीपी में जाकर मोती बन जाती है। बूँद सीपी में टपकी तो मोती, और आँख में अटकी, तो मोती - ‘अटका तो मोती है ; टपका, तो पानी है’। ये विशिष्ट हैं, वरना तो पानी के बिना कुछ भी बना नहीं रह जाता। सब कुछ सूख जाता है - ‘धान-पान अरु केरा, तीनो पानी के चेरा’ की तरह। इसलिए मनुष्य की बात न होगी, तब तो दोहा बहुत सामान्य हो जायेगा। यह विशिष्ट है मानुष के लिए और उसके पानी (इज्जत) के लिए । कविता मनुष्य की होती है। मनुष्य के लिए होती है। प्रकृति तो उसमें उदाहरण बनकर आती है- चूने-मोती के पानी की तरह। लेकिन रहीम पुराने जमाने के थे। आज सबकुछ बदल गया है। मनुष्य के पानी (इज्जत) की आज कोई कद्र नहीं रही। कद्र तो मनुष्य मात्र की ही नहीं रही...। तो किसकी रही..? बशीर बद्र के शब्दों में सुनिए - ‘घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे; बहुत तलाश किया, कोई आदमी न मिला’। तो ओहदे के (वैभव) की कद्र रह गयी है। इसके सामने आदमी ही कुछ नहीं रहा, तो उसके पानी का क्या ? तमाम बेपानी लोग ही बडे-बडे ओहदों पर आसीन हैं। या यूं कहें कि बडे होने के लिए बेपानी होने के रास्ते से ही गुज़रना होता है। प्रमाण देने की कोई ज़रूरत नहीं - जिस नेता, जिस पूंजीपति, जिस अफ़सर, जिस धर्मगुरु...आदि-आदि पर उंगली रख दो, सब बेपानी ही मिलेंगे - ‘जिसकी पूँछ उठायी, उसको मादा पाया’ । हाँ, अपवादस्वरूप कोई पानीदार मिल जाये, तो मैं मूसलों ढोल बजाऊं ! वरना आज की आम हक़ीकत तो यही है कि जयप्रकाशजी के बाद दुष्यंतकुमार के शब्दों में अब ‘इस अँधेरी कोठरी में एक रोशनदान ’ भी नहीं रहा...। और जग जाहिर है कि इस मनुष्य के पानी की कद्र दृश्य मीडिया और पाठ्य मीडिया के दैनिकों में नहीं रही..। सप्ताहिकों-मासिकों में है, पर कितनी व कैसी तथा क्यों, की बात न ही करें, तो अच्छा...। और मैं क्या, आप सभी जानते हैं कि ‘नवनीत’ का यह आयोजन भी रहीम के उस पानी के लिए नहीं है, जीवन में काम आने वाले पानी के संकट की करंट समस्या से बावस्ता है। अब आप पूछेंगे कि फिर अब तक मैं क्यों भटका रहा था आपको ? तो जिस तरह साहित्य की पंक्ति को माध्यम बनाया गया इस भौतिक समस्या को रखने के लिए, उसी तरह इस उक्ति के माध्यम से साहित्यिक बात कह देने का यह भी माध्यम है...। हिसाब बराबर हो गया । अब आगे चलें ... इन दिनों भीषण गर्मी है। इसमें पानी का टोटा है। सो, इस वक्त यह विषय मीडिया के लिए मौसमी (सीज़नल) है। मीडिया का टेक्स्ट है। आज (दो मई को) ही खबर छपी है कि पानी की बेह्द कमी होने से एक गाँव में लडकों की शादियां नहीं हो रही हैं। लोग वहां की स्त्रियों को पानी ढोते हुए देखते हैं और अपनी बेटियां व्याहने की हिम्मत नहीं करते...। वरना पानी की मूल समस्या तो बारहो महीने है। सूखे-दुर्भिक्ष-अकाल पहले भी पडते थे, लेकिन आज भी सारी प्रगति व साधन-सम्पन्नता के बावजूद खेतों में पानी नहीं है। पम्पिंग्सेट-इंजन-ट्रैक्टर के लिए किसान कर्ज़ ले रहा है। वापस नहीं कर पा रहा है। आत्महत्याएं कर रहा है...। सनातन आश्चर्य का विषय है कि दो 70% पानी के बावजूद सृष्टि की 30% धरती प्यासी रहती है...। मैदानों में पानी लाने के प्रावधान में सारे संसाधन व सारी तकनीक क्यों फ़ेल हो जाती है? नहरें निकली तो हैं...पर जब जरूरत होती है, तभी वे सूखी क्यों रहती हैं? और ख़ुदा-न-ख़ास्ते जब पानी आता हैं, तो इस क़दर कि या तो खडी फ़सलें डूब जाती हैं या फिर खाली खेतों में बुवाई महीनों लेट हो जाती है...। पानी से बिजली बनती है और बिजली की बेतरह कटौती गाँवों में ही होती है। छोटे शहरों के लघु उद्योग बिजली के बिना बन्द हो रहे हैं। कानपुर के उद्योग जब उजड रहे थे, तो लखनऊ में बिजली मंत्री के घर में आपूर्त्ति की आधी दर्जन स्कीमें जोर-शोर से काम कर रही थीं। उन लघु उद्योगों को मुम्बई जैसे महानगरों में शरण लेनी पडती है.... और मुम्बई में पानी की कटौती आ-ए-दिन होती रहती है। कविता बनायी गयी है- ‘भाई वही है सच्चा प्रेमी, इतना आँसू रोज़ बहाये। पत्नी जिसमें कपडा धो ले, बच्चा जिसमें खूब नहाये’॥ पर वही बात कि यह सब किसके लिए...और कहाँ.. ? तो चालों-झोपडों व निम्नमध्यवर्गीय इलाकों में...। वरना जहाँ मंत्री-संत्री व बडे धनी-धरिकार लोग रह्ते हैं, वहाँ इतने पानी से कुत्ते नहलाये जाते हैं, जितने से एक चाल का गुज़ारा हो जाये... इनकी करतूतें ऐसी भी हैं कि नदी की नदी बेच दे रहे हैं। वहाँ बहुराष्ट्रीय कंपनियां कोकाकोला बना रही हैं और आस-पास की सारी ज़मीनें बंजर होती जा रही हैं। ऐसे विद्रूप आजादी मिलने के बाद की योजनाओं के तहत गाँवों में भी हुए, जब गाँव के सार्वजनिक तालाब पट्टे पर किसी को दे दिये गये और पानी की अपासी से वंचित हो रहा है पूरा गाँव। इन हालात को लेकर कहावतें बनी हैं - नदी हमारी पानी उनका...और पानी उसको मिलेगा, जिसकी जेब में पैसा होगा...। ये तो व्यवस्था की सीधी विडम्बनाएं हुईं...। इनके चलते ही हो रही है- प्रकृति के साथ छेडखानी, जो आधुनिक मनुष्य निरंतर कर रहा है। इससे यह समस्या दिन-ब-दिन विकराल होती जा रही है। ऋतुएं अपनी प्रकृति तक बदल रही हैं। बेमौसम बरसात हो रही है, तो बरसात में सूखे पड रहे हैं। अब लडकियां सावन में गाती हैं- ‘अरे रामा रिमझिम बरसे पानी, बलम घर नाहीं रे हरी,,,’ और उधर तपती धूप इस रोमैंटिक गीत का मज़ाक उडा रही होती है...। लेकिन अपने हित में प्रकृति को काटने-पाटने के इस रास्ते पर मनुष्य इतना आगे बढ चुका है कि लौटना नामुमकिन है - ‘हिम्मत है न बढूँ आगे को, साहस है न फिरूँ पीछे...’ की स्थिति है। उदाहरण के लिए इतने सारे पम्पिंग सेट्स लग गये हैं, जिनसे एक तनिक पानी की ज़रूरत पर दस तनिक पानी निकल रहा है और धरती के भीतर पानी की सतहें नीचे से नीचे होती जा रही हैं। जब एकाध नलकूप (ट्यूप्वेल) लगे थे, तो ही आस-पास के कूएं सूखने लगे थे और उनसे पानी निकालना भारी हो गया था। तभी नहीं सोचा गया - खेती व देश की प्रगति का जज़्बा जो सवार था...। कैसे कहें कि यह ठीक न हुआ ? आज तो कूएं रहे ही नहीं। चौतरफ़ा हैंडपम्प हो गये हैं। उनमें भी मोटर लग गये हैं। पानी की आबादी के साथ बर्बादी वहाँ भी हो रही है। जलस्तर इससे भी नीचे जा रहा है...। सो, ‘बिन पानी सब सून’ तो हो ही रहा है, किंतु इसका एक दूसरा पक्ष भी सामने आ रहा है, जिसे ‘बहुपानी सब सून’ भी कहा जा सकता है... भूमंडल का तापमान बढ रहा है... क्या प्रकृति के साथ छेडखानियों के चलते ...? और इससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं। यह बढ तो रहा ही है... जितना ज्यादा बढेगा पिघलना, समुद्र का जलस्तर भी उतना ही बढेगा..। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यदि दो फिट भी बढा, तो दुनिया के मुम्बई जैसे तमाम शहर नष्ट हो जायेंगे... कुल मिलाकर मुझे लगता है कि बिन पानी सब सून व बहुपानी सब सून के लिए बहुत दूर तक जिम्मेदार हैं - ऊपर बताये गये वे बेपानी लोग, जिनके पास सत्ता की शक्ति या फिर शक्ति की सत्ता है। उन्हें अपने देश व लोगों के पानी की पडी नहीं है। उनका बेपानी होना, देश के पानी पर भारी पड रहा है । और अब तो रहीमजी जैसे लोग रहे नहीं कि ‘रहिमन पानी राखिए...’की सीख दें...। अभी पिछले दिनों ही भोजपुरी के वे कवि चन्द्रशेखर मिसिर भी दिवंगत हो गये, जो अपने श्राद्ध का पानी न लेने की धमकी देकर भी पानी बचाकर रखने-रहने की बात कहते थे- पानी बचाय के ना रखबेया, तब ना हम लेबै सराध में पानी...। वैसे मैं जानता हूँ कि उनकी आज कोई सुनने वाला भी नहीं रहा, पर कहने वालों का न रहना भी बहुत साल रहा है...। इससे तो सचमुच ही और भी सब ‘सून’ होता जा रहा है - अफ़ाट शून्य...। ऐसे में ‘नवनीत’ के इस तरह के आयोजन भी काफ़ी राहत दिलाते है - ‘कुछ नहीं’ के बीच ‘कुछ’ की याद का यह अहसास भी क्या कम है...!! * * * * सम्पर्क- ‘नीलकण्ठ’, एन.एस. रोड नं-5, विलेपार्ल्रे (पश्चिम), मुंबई-56/ मो.- 09869355103

Sunday 4 May, 2008

अमर प्रेमी बनने की क़तार में एक और प्रेमी युगल - ‘जोधा अकबर’...

अमर प्रेमी बनने की क़तार में एक और प्रेमी युगल - ‘जोधा अकबर’... जिसके बेटे (सलीम) व पोते (शाह्जहां) अमर प्रेम के रहबर बनकर इतिहास व कला में मिथक बन चुके हों, वह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर भला अमर प्रेमी कैसे न होगा ? और आनुवंशिकता (हेरिडिटी) के इस जैविक व मनोवैग्यांनिक सच पर अब तक फिल्म वालों की नज़र न जाने से होती रही भारी क्षति की पूर्त्ति की है - आशुतोष गोवारीकर ने ‘जोधा- अकबर’ बनाकर । न सही पोते पर बनी ‘ताजमहल’, पर बेटे पर बनी फिल्मेतिहास की अमर रचना ‘मुगलेआज़म’ तो ज़रूर रही होगी आशुतोष के मन में, क्योंकि अपने नाम की तरह वे काम में आशु (थोडे) से तोष पाने वाले नहीं हैं। बनायी भी है पूरे मन व अपनी समूची कला-चेतना को निचोडकर, जो फिल्म के हर फ्रेम में ज़ाहिर भी है...लेकिन इसके बावजूद यह एक काफी अच्छी सही, पर ग्रैफिक्स आदि की तकनीकी सुविधओं तथा पश्चिम की ढेरों फिल्मों की प्रस्तुतियों के कुशल प्रयोग के बावजूद यह ‘मुग़लेआज़म’ जैसी क्लासिक फिल्म नहीं बन पायी है। और यह सीमा है गोवारीकर के साथ आज के समय की कलाचेतना की भी। वरना जब जोधा-अकबर की रूमानी फिल्म घोषित थी, तो जावेदजी व रहमान भाई मिलकर ‘ख्वाज़ा मेरे ख्वाज़ा...’ जैसी सूफ़ियाई के साथ ‘तेरे दर पे ये किस्मत आज़माके...’एवं ‘अज़ीमोशान शहंशाह...’ के बदले “मोहे पनघट...’ या ‘जब प्यार किया, तो डरना क्या...’की छाया जैसा ही कुछ दे पाते...। वैसा कुछ संवाद में के.पी. सक्सेना ही कर देते..। ये सब एक बार के लिए प्रीतिकर हैं, पर कुछ स्मरणीय नहीं। और ‘प्रेम कथा’ का नाम देने के बाद कनफ्यूज्ड (कर्त्तव्यविमूढ) हैं गोवारीकर भी, जो ‘गलबाहें हों, या हों कृपाण’ में तय ही नहीं कर पाये कि किस पर ज़ोर दिया जाये..। नतीजा यह हुआ है कि जहां सियासी को रूमानी होना था, वहां रूमान ही सियासी बनता गया..। सो, प्यार को मध्यांतर तक आने ही नहीं दिया - नृत्य-संगीत के बदले कलाबाज़ियां-तलवारबाज़ियां दिखाते रहे, शहंशाह के बहनोई के षडयंत्र व जोधा के मुँह्बोले भाई के साथ शक-ओ-शुबहा के ताने-बाने बुनते रहे एवं पालक बडी माँ का दबदबा बनाते रहे...। और यह सब भी जोधा-अकबर के प्यार की तरह ही अनकहा और अचीन्हा है। याने फिल्म में ऐतिहासिक मानने जैसा कुछ नहीं है। इतिहास के आभास के साथ इसे सामान्य प्रेमकथा मानने में ज्यादा मज़ा है। वरना बेटे के प्रेम की बलि लेने वाले बादशाह की छबि ऐसी बैठी है कि प्रेमिका तक के लिए पूरी टीम ‘शहंशाहजी’ के अलावा एक प्यारा नाम तक न सोच सकी। सो,शाही छबि टूटने में पूरा शक़ है। बस, ‘अकबर के उदार बादशाह होने’ की सरनाम ऐतिहासिकता का दामन इतना फलदायी हुआ है कि फिल्म आज की हो गयी है। धर्म, संस्कृति व लिंग के भेदों को मिटाने की व एक राष्ट्र बनाने की ज्वलंत चेतना बडे सलीके से जुड गयी है। हिन्दुओं से लिये जाने वाले तीर्थ-यात्रा के मह्सूल को हटाना, जोधा की हिन्दू बने रहने व महल में मन्दिर बनाने की शर्तों को मान लेना...आदि को खूब रोशन किया गया है। इसे लागू करने के लिए कट्टर मुल्लाओं, रहनुमाओं की बग़ावत का दमन भी किया गया है...। और इसी में प्यार पनपाने का कुशल संयोजन भी। इसी के लिए फिल्म की मूल्यवत्ता काबिलेग़ौर है। और असरकारिता में तो फिल्म भव्य है ही। किंतु लगभग असहनीय है फिल्म की लम्बाई - सम्पादन-कला के लिए तो ज़ीरो मिलेगा। हाँ, दृश्य-योजना पर अवश्य 90% । अभिनय का मामला पहली नज़र में फिटहिट लगता है, पर है मिश्रित फलदायक। जब तय हो ऋतिक को लेना, तो किरदार के लायक होने की चर्चा क्या करनी, पर उनकी मेहनत का फल मिला है फिल्म को। ऐश्वर्या आयी भी हैं सही व भायी भी हैं। दोनो को खूब मौके देने ही थे, पर वह नज़र में भी आता है। बडी माँ बनी इला अरुण प्रभावी हैं। माँ बनी मल्लिका हामिदा सलीकेदार हैं। सोनू सूद बाद में निखरे हैं। कुलभूषण दयनीय हो चुके हैं। बहनोई बने निकितन दमदार हैं। शेष सभी सहयोगी रूप में सही हैं। फिल्म से पैसे की खुली छूट (सौजन्य ‘यू टी.वी’) के चालीस करोड की वापसी की ‘उम्मीद तो काफी है’, पर कालजयी कला बन पाने में ‘यकीं कुछ कम है’- बल्कि बहुत कम है। -सत्यदेव त्रिपाठी

“ह्ल्ला बोला तो, पर ह्ल्ला हुआ नहीं...”

“ह्ल्ला बोला तो, पर ह्ल्ला हुआ नहीं...” राजकुमार संतोषी ने ‘हल्ला बोल’ में भी विषय तो उठाया सामाजिक सरोकार का, जिसमें हमेशा की तरह सभी भ्रष्ट तत्त्वों के खिलाफ एक व्यक्ति का विरोध है। मामला भी मंत्री व स्मगलर के बेटे द्वारा एक लडकी के क़त्ल का...और आदतन पुन: डाले वैसे ही जनता लुभाऊ दृश्य.। ‘घायल’ तथा ‘दामिनी’ के सन्नी देवल जैसे ही करायी हीरोगीरी अजय देवगन से भी। पर इस बार लगता है कि पहले की तरह इन जोडों का घुलामिला फ़ार्मूला उस तरह चलने वाला नहीं- पहले दिन ही हाल में जनता ने ठेंगे दिखा दिये... शायद कारण बना समाजिकता वाली बात पर ज़ोर देता प्रचार और उसे सिद्ध करता नाम- ‘ह्ल्ला बोल’, जो सफदर हाशमी जैसे आन्दोलंनकारी से जुडा है। उसका वैसा ही इस्तेमाल भी करने की कोशिश हुई है। मीडिया में आने के बाद नाट्यकर्म को तिलांजलि देने वाले पंकजकपूर को कुछ तो संतोष हुआ होगा- डाकू से प्रतिबद्ध रंगकर्मी बनने वाले की भूमिका करके- पर्दे पर ही सही। उन्हें भी खूब मौके दिये गये हैं ऐक्टिंग के, जिसे जमाया भी है पंकज ने। लेकिन ऐसी कलात्मक रुचियों से जनता का वास्ता तोडने का काम भी तो फिल्मों ने ही किया है। मुख्य घटना के रूप में ‘जसैका लाल ह्त्याकांड’ को रखा गया है...। नर्मदा आन्दोलन में शामिल होने के बाद आमिर की फिल्मों के बहिष्कार का मामला भी स्टार के सरोकार के साथ जोड दिया गया है...और साथ ही नाटक से फिल्म-स्टार बनने में नायक अशफ़ाकुल्ला से समीर खान ही नहीं होता, उसका सारा वजूद ही बदल जाता है। फिर स्टार की कई रुटीन बेईमानियां शामिल होती हैं, जिनके चलते माँ-पिता-गुरु उसे छोड जाते हैं । पत्नी सिर्फ नाम के लिए घर में रह जाती है। स्टार्डम व अय्याशी के मोह में फँसे नायक को संवेदनशील समाजधर्मी बनाने में आधी फिल्म निकल जाती है। फिर उसे नष्ट करने में खल पात्र मिलकर वही सब हथकंडे अपनाते हैँ, जो हर दूसरी फिल्म में आम तौर पर होते हैं। इस प्रकार इतने घोल मिल गये हैं कि किसी का भी अपेक्षित असर नहीं बन पाता और फिल्म भी काफी लंबी हो गयी है। आधी के बाद भ्रष्टता को खत्म करने के लिए कोर्ट व आम जनता को ‘दामिनी’ की तरह ही मिलाया गया है, पर इस बार जनता की भागीदारी के प्रतिशत का ज्यादा होना बेहतर आयोजन अवश्य है, जो आज का एकमेव विकल्प भी है। पर इसमें ‘रंग दे बसंती’ व ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ जैसा असर नहीं बनता। वैसे ‘फ़न’ का नितांत अभाव भी फ़िल्म के सूखेपन का जिम्मेदार है। मीडिया के दोनो पक्षों का बखूबी आना, फिर भी, सराहनीय हैं। संगीत सामान्य है- ‘ह्ल्ला बोल’ तक में अपेक्षित असर नहीं बनता। अच्छे संवाद बेहतर भी हो सकते थे। यादगार हैं कुछेक दृश्य- खानापूर्ति वाली भूमिका में भी विद्या बालन के प्रेस वाला, अजय की खल पात्रों से समक्षता- ख़ासकर मंत्री के विदेशी कार्पेट को गीला करने व उसके गृह्प्रवेश पर बेबाकी वाला और पंकज कपूर का प्रेस वालों के बहाने पूरे समाज की तटस्थता को फटकारने वाला...आदि । और इन सबके बीच ऐसा बहुत कुछ निकलकर आता है, जिसके लिए यह फिल्म पहली फ़ुर्सत में ही एक बार देख लेने लायक तो है ही...। - सत्यदेव त्रिपाठी

‘यू’ और ‘मी’... कैसे बनते हैं ‘हम’...!!

‘यू’ और ‘मी’... कैसे बनते हैं ‘हम’...!! नीरज जी ने बहुत पहले एक कविता लिखी थी- ‘प्यार अग़र थामता न जग में उंगली इस बीमार उमर की, हर पीडा वेश्या बन जाती, हर आंसू आवारा होता...’ पिया (काजोल) को सब कुछ भूलने की बीमारी (अनज़ाइना) हो जाती है। वह रह-रह कर अपना घर-बार भूल जाती है.. यहां तक कि पति अजय (देवगन) को भी नहीं पहचानती..। छोटे-से बेटे को स्नानघर में डूबते हुए भूल जाने के दिल हिला देने वाले दृश्य के बाद उसे अस्पताल में छोडने का दृश्य कलेजा काढ लेता है। यदि पिया को वहीं छोड दिया जाता, तो उसकी पीडा लावारिस (वेश्या) व उसके आंसू आवारा ही होते..। पर तभी अजय को याद आता है कि उसने पिया को वहां उसके लिए नहीं, अपने आराम, स्वार्थ, सुविधा के लिए छोडा है। ‘अपने बेटे’ को ‘उस औरत’ के पास कैसे छोड दूँ....याने ‘वह’ और ‘मै’ हो गये !! इस अपनी अमानवीयता पर उसे कोफ़्त होती है। अपना प्रेम, अपने वायदे याद आते हैं। और अजय जाकर पिया को घर ले आता है - डॉक्टर के लाख मना करने के बावजूद । इस तरह ‘मी’-‘यू’ मिलकर ‘हम’ बनते हैं, जो ‘मैं’-‘तुम’ और ‘हम’ भी हो सकता था..। यही है फ़िल्म। और यह सब फ़िल्म का उत्तरार्ध भर है, जिसे देखने के बाद किसी को पूर्वार्ध वाला भाग ‘समय की बर्बादी’ भी लग सकता है। लेकिन वह फिल्म की स्टाइल से बावस्ता है। बेटे की चुनौती पर एक औरत को पटाते और उसी दौरान पूरी कहानी सुनाने की स्टाइल। अंत में पता लगता है कि यही है वह औरत, जो रोज़ पति को भूल जाती है। पति रोज़ पटाता है- पटाना फ़ितरत बन गया है। और आज उनकी शादी की सिलवर जुबली है। वे उसी शिप (क्रुइज़) पर हैं, जहां दोनो मिले थे। पटाने में स्टाइल तब भी था। अजय अकेला था। उसके दो मित्र थे- जोडे में। एक खुशहाल अविवाहित जोडा और दूसरा दुखी विवाहित । जब पिया को अजय घर ले आता है, तब पहला शादी करने और दूसरा साथ रहने का फ़ैसला करते हैं..और यह भी ‘मैं’- ‘तुम’ और ‘हम’ का स्टाइल बन जाता है। चरित्रों की पहचान बनाने, रिश्तों के लुत्फ़ लेने, हास्य-विनोद के आस्वाद पाने व यथार्थ के दंश झेलने के ऐसे कई आयोजन इसमें भरे पडे है, जो मज़ेदार व अर्थभरे संवादों, सटीक दृश्य-विधानों तथा नैन-सुख देने के साथ तकनीकी नक्काशी पिरोते चित्रांकनों (फ़ोटोग्रैफ़ी) से सजे हैं। सभी के सही अभिनयों से सँवरे हैं। काजोल वहीं से शुरू हो गयी है, जहां छोडकर गयी थी। अजय ने खुद से वह सब एक साथ करा लिया है, जो तमाम निर्देशक मिलकर उससे अलग-अलग कराते रहे हैं। इन सबसे लगता नहीं कि बतौर निर्देशक यह अजय की पहली फ़िल्म है...। कहानी भी अजय ने ही तैयार की है, जो भले किसी या किन्हीं फ़िल्मों की प्रेरणा से हुई हो, पर उसमें बेहतर कथा-संयोजन का गुर है। कैंसर आदि को लेकर ‘अँखियों के झरोखों से’ व ‘मिली’ आदि कई फ़िल्मों में त्याग भरे प्रेम सम्बन्धों की अच्छी परख हुई है- ‘आनन्द’ में मानवीयता का अच्छा पहलू एक दर्शन के साथ आता है, पर सबमें सम्बन्धों की प्रेम व करुणामय विदाइयां हैं, जबकि इसमें उन सम्बन्धों की पडताल है, जिसे तिल-तिल जलकर सहना है। यहां बात उन संबन्धों के पुनरुज्जीवन तक जाती है, जो आज अनायास टूट रहे हैं...। यह प्रासंगिकता बडी ज़हीन व ज़रूरी है। इसी से मन में सहज इच्छा जगती है कि पूछा जाये- अजय, अगली फिल्म कब व क्या होगी? और बताया जाये कि वह जो भी हो, जब भी हो, उसका सम्पादन ज़रा तटस्थ होकर करना....। - सत्यदेव त्रिपाठी

यह ‘रेस’ किसकी है.....?

यह ‘रेस’ किसकी है.....? मस्तान अब्बास द्वारा निर्देशित और बहुप्रचारित फिल्म ‘रेस’ तीन-तीन नामी हीरो-हिरोइनों से भरी है- सजी नहीं है...। और यह रेस घोडों की नहीं है..। हालांकि नायक सैफ़ अली का घोडों का पेशा भी है और पैशन भी। इस पेशे में उसका चिर प्रतिद्वन्द्वी दिलीप ताहिल है, जिसने एक बार धोखे से सैफ को बडी करारी मात दी है, पर जान जाने के बाद सैफ उससे भी बडे धोखे से ऐसी करारी शिकस्त देता है कि वह शायद नेस्तनाबूद ही हो जाता है...। यह सब आधे घंटे में पूरा हो जाता है- याने रेस व उसमें विलेन का यह सब मामला फिल्म में बहाना ही है। असली रेस तो सैफ अली के साथ उसके सौतेले भाई बने अक्षय खन्ना की है, जो सबसे पहले सैफ की प्रेमिका विपाशा बसु को पाने की रेस दिखती है। लेकिन उसे सैफ सहर्ष दे देता है भाई को- शराब की लत छोडने की शर्त पर प्यार व शादी करा देता है...। तब मालूम पडता है कि असली रेस तो सैफ के पचास मिलियन पाने की है - कानूनी शर्त के मुताबिक उसे दुर्घटना में मरवाकर । उसमें से 20 मिलियन देने के सौदे पर विपाशा को मोहरा बनाकर अक्षय ही लाया है। दुर्घटना के ठीक पहले विपाशा बता देती है सैफ को और लगता है कि अब अक्षय मारा जायेगा, पर ऐन वक्त पर अक्षय का ही साथ देती है विपाशा और सैफ मारा जाता है। यहीं मध्यांतर होता है और समीरा को सेक्रेटरी के रूप में लिए अनिल कपूर नुमायां होता है जांच अधिकारी के रूप में एकदम करमचन्द-किटी स्टाइल की नकल बनकर । जांच के दौरान सैफ की सेक्रेटरी कैटरीना कैफ़, जो सैफ से प्रेम करती भी पायी जाती रही, सैफ के साथ अपनी शादी का प्रमाणपत्र पेश कर देती है - याने अक्षय का भाई को मारना गुनाहे बेलज्जत ही हुआ- वो 50 मिलियन अब कैटरीना पायेगी...। लेकिन तब तक एकदम अलग ही राज़ खुलता है - सैफ की दस्तख़त कैट्रीना धोखे से पहले ही ले चुकी थी- शादी के वक्त तो अक्षय वहां मौजूद था। अब विपाशा को भी धोखा देता अक्षय यूं पक्का शातिर बन सामने आता है कि विपाशा को मारने की सुपारी उसी के हाथों दिलवाता है। अनिल को भी तिहाई रक़म देकर जब पैसा कैश हो जाता है और विपाशा को खत्म करने क़ातिल आ जाता है, तब उडते हुए सैफ़ पुन: प्रकट होता है, जिसकी उम्मीद इतने सारे अचानक मोडों के बाद हमें हो ही गयी थी..। अब मालूम पडता है कि इस सब कुछ की खबर सैफ़ को पहले ही हो गयी थी। तभी उसने विपाशा को उसके साथ व्याहा था...। सस्पेंस का यह पार्ट सचमुच लाजवाब है। यहां आकर असली रेस का पता चलता है, जो पैसों की भी नहीं थी। भाई-भाई के सम्बन्धों की थी, जिसमें बचपन से ही हर मामले में- खासकर सायकल की रेस में- सैफ़ ही जीतता था । इससे हीन भाव की ऐसी ग्रंथि बन गयी कि अक्षय निकम्मा-सा सिद्ध हो गया और पिता ने 50-50 मिलियन के बीमे के अलावा सारी सम्पत्ति सैफ को दे दी थी। इसी के बदले में वह पूरा सौ मिलियन लेने के रोप में एक बार सैफ़ को हराना चाहता था; पर हरा नहीं पाया। बडा वजिब कारण भी सैफ़ ने बताया कि ‘तुम हराने के लिए लड रहे थे और मैं जीतने के लिए। इसलिए मैं जीतता गया और तुम हारते गये..’। लेकिन इस सचाई तक पहुंचने व इस सच को सुनने के लिए इतनी घाटियों-पहाडों से गुज़रना पडता है कि सब कुछ पर से विश्वास उठ जाता है। सीट से उठकर आते हुए शक़ होता रह्ता है कि अंत में जलकर ख़ाक़ हो चुके अक्षय-कैटरीना जीकर उठ न जायें और फिल्म फिर से चलने न लग जाये..। बडी मेहनत से बनी होगी यह स्क्रिप्ट। बहुत बांधती भी है। पर निर्देशन में किसी कलात्मक सूझ का नितांत अभाव है- वह कथा को ही फ़ाइनल मानकर अटक गया है। इसीलिए उत्तरार्ध एकदम ढीला हो गया है। संपादन के बिना बहुत लम्बा भी। शुरू के गीत मौजूं हैं, पर हर हिरोइन पर गीत के संतुलन की भर्ती वाले बाद के दो गीत भी संपादित होने लायक ही हैं। सैफ़ ने कमाल का काम किया है...। अक्षय भी सही है, पर अनिल का रोल ही भरती का है। दोनो भाइयों से कट लेकर 50-60 मिलियन बना लेने में भ्रष्ट जमाना भले उजागर हुआ हो, अधिकारी का वह च्ररित्र और फ़ालतू हो गया है। देह-प्रदर्शन व भूखी शेरनी बनकर पुरुष पर टूट पडने के अलावा विपाशा को कम ही फ़िल्मों में कुछ करने को मिलता है- वही यहां भी है। यही कैटरीना को भी करना हुआ है। अभिनय दोनो को नहीं आता। कुल मिलाकर सैफ़ व अक्षय के अलावा सभी इसमें फ़िलर ही हैं - पर इस रूप में भी समीरा ही कुछ ठीक बन पडी है। कई-कई सस्पेंसों से भरी यह फिल्म एक बार तो देखने लायक है ही...। - सत्यदेव त्रिपाठी

बनाविंग ‘टशन’ बिग पैसा और मिक्स भेजा का काम...

पर देखिइंग ‘टशन’ तो सच्ची - कलेजा का काम...। घबरायें ना आप, यही हिन्दी है यशराज बैनर की विनयकृष्ण आचार्य निर्देशित फिल्म ‘टशन’ की । यह बंबइया डॉन बने एक कानपुरिये ‘भैयाजी’ (अनिल कपूर) के मिक्सचर किरदार की भाषा है। उसे वे अमिताभ बच्चन की ‘दीवार’ के मन्दिर वाले हिट संवाद को अपनी दिलीपकुमार वाली नकल शैली में बोलकर और पक्की खिचडी बना देते हैं। किसी विदेशी प्रतिनिधि मंडल से बात करने के लिये सीखी गयी अंग्रेजी से इसे जोडकर कहानी के लिये सही बनाने की कोशिश की गयी है। इधर की फ़िल्मों से यह तो पता चल ही गया है कि अब एक हीरो के साथ-साथ रोमैंटिक या सस्पेंस..जैसी किसी एक तरह की कहानी से काम नहीं चलता, पर ‘टशन’ बता रही है कि अब एक भाषा से भी काम न चलेगा। तो शायद ‘हिंग्लिश’ में ‘जिन्दी’ की तरह ‘फ़िन्दी’ चले। पूरी फ़िल्म के बाद ‘टशन’ का मतलब तो समझ में आ जाता है, पर इसे समझाने लायक एक शब्द समझ में नहीं आ पाता। ख़ैर, भाषा व कहानी की तरह ही सारे चरित्र भी मिक्सचर। भैयाजी को अंग्रेजी सिखाने वाला सैफ़ अली ख़ान तो अंग्रेजी-हिन्दी दोनो अच्छी बोलता है, पर किरदार में पूरी मिलावट- कॉल सेंटर चलाने वाले छोकरीबाज़ से फ़िदा होने वाले प्रेमी के बाद फ़िर त्यागी-बलिदानी..। और हर रूप में सही लाइन के अभिनय के बावजूद सैफ़ का सही उपयोग हुआ नहीं। शो लूट लेने वाला किरदार है- कानपुर के लोकल गुण्डे से नेशनल भाई बनने की फ़िराक़ में मुम्बई आये बच्चन पाण्डे बने अक्षय कुमार का, जो आता है तो है भैयाजी के 25 करोड लेकर फ़रार करीना-सैफ़ को खोजने, पर पा जाता है अपनी बचपन की प्रेमिका गुडिया (करीना कपूर) को...। गुण्डे तक तो शुद्ध हिन्दी बोलता है, पर प्रेमी होने के बाद फ़िन्दी पर उतर आता है। नहीं उतरती फ़िन्दी पर करीना, लेकिन सबसे ज्यादा मिक्स्चर उसी का बना है। पता ही नहीं चलता कि वह गुडिया है या जादू की पुडिया...। सब कुछ करती तो है यह कुडी- बस, ठीकठाक, लेकिन लोगों को याद रह जायेगा उसका बिकनी वाला तथा अन्य कई रूपों में उघडा बदन। यह दिखने से अधिक वीभत्स है- पूरी फ़िल्म यही दिखाने की निर्देशकीय मंशा का दिखना। छोटे से कस्बे की तेज-तर्रार लडकी भैयाजी के जाल में फँसी है। सैफ़ से प्रेम करके साथ भागने की योजना बनाती है। 25 करोड लेकर अकेली उड जाती है। अकेले ही वह पैसे इतनी जगह रख देती है कि उसे वापस लेने में अक्षय-सैफ़ के साथ पूरी फ़िल्म बन जाती है। और इस दौरान क्या-क्या नहीं होता... नौटंकी.. अंग्रेजी फ़िल्म में फिन्दी गाना- वैसा ही मिलावटी मेकअप...पुलिस से मुठ्भेड में मारधाड...याने सबकुछ...। पर कुछ मौलिक नहीं। हर चरित्र, हर दृश्य, हर फ़्रेम में नकल साफ़। पर यही सब फिल्म चलने के लिए आज जरूरी माना जाता है। सब ऊलजलूल होता है। इसका सबको पता होता है। पर जांबूझकर बनाया व पूरे होशोहवास में देखा जाता है। और अंत में सब कुछ एक बदले की बात सिद्ध होता है। भैयाजी को मैट्रिक्स टाइप लडाई में अक्षय व सैफ़ की मदद से मारकर करीना अपने बाबा की ह्त्या का बदला ले लेती है। बस, कहानी का कायापलट कर देने वाले एक-दो ऐसे मोड आते हैं.. कुछेक ऐसे संवाद आ जाते हैं, जो एक अच्छे कलारूप का लुत्फ़ दे जाते हैं, पर इतने के लिए ढाई घंटे सरफ़ा करना खल जाता है। - सत्यदेव त्रिपाठी

‘प्रणाली’ - घी के लड्डू टेढे भी भले...

आजकल जब सिनेमाई उपकरणों के इस्तेमाल से लैस और प्रस्तुति के खींचतान भरे तरीकों की कसरत करती बेबात की बात वाली फिल्में प्राय: ही आ रही हैं, बाबा तुलसी के ‘मन मलीन तन सुन्दर..’ की तरह..., तो ऐसे में निर्देशक हृदयेश काम्बले की फ़िल्म ‘प्रणाली’ को देखकर मन से यही निकला- ‘घी के लड्डू टेढे भी भले...’। मैं जानता हूँ कि इसको देखकर लोग तो क्या, समीक्षक तक नाक-भौं सिकोडेंगे...सबका ज़ायका जो खराब हो गया है। और ‘प्रणाली’ का लड्डू भी टेढा है- अभिनय पक्ष निहायत कमज़ोर है । प्रणाली बनी नरगिस सबसे कमज़ोर- बोलने की अदा तो असह्य। वेश्याओं की अड्डावाली सुधा चद्रन को देखते नहीं बनता। साथ की वेश्या में दीपशिखा सामान्य - शेष तो उससे भी नीचे। छोटे चरित्र की बडी भूमिका में उपेन्द्र लिमये लाउड, पर लहकते हुए । हेमंत पाण्डेय टी.वी. वाली छबि से काफ़ी लचर..। बस, विनय आप्टे उस भ्रष्ट मंत्री को फूहड भी बनाकर आक्रोश के साथ जुगुप्सा भी जगा पाते हैं। विजय का चरित्र बखूबी निभा है। एक चरित्र के आस-पास बुनी हुई कहानी बनायी हुई का अहसास कराती रह्ती है। चित्रांकन में कोई चारुता नहीं। ध्वनि में मधुरता नहीं। निर्देशन ढीलाढाला, फ़िल्म भागती हुई... याने ख़ारिज़ कर देने के सारे सरंजाम..। परंतु इस लड्डू का घी है - बिना किसी फ़िल्मी तमाशे के सीधे-सीधे कही गयी वह ज़हीन बात, जो इस फ़िल्म को एक उपयोगी कला बना देती है - निरस बिसद गुनमय फल जासू । बात है शीर्ष राजनीति, प्रशासन, अमीरवर्ग, गुण्डागर्दी...आदि से संचालित आज की समूची व्यवस्था को जमकर व खुलकर नंगा करने की, जिसमें यह फ़िल्म एकदम सफल हुई है। बिना किसी पेशेवर आग्रह के, पूरी गंभीरता के साथ यह करना (बक़ौल एक पात्र - क्या धो-धो के मार रहेला है!) हिम्मत का काम है। समाज के प्रति गहन सरोकार एवं फिल्म जैसे सशक्त माध्यम के सही व कारगर इस्तेमाल का नमूना है, जिसे आज के कमाऊ फ़िल्मकार भूल गये हैं एवं सोद्देश्य फिल्म के घोषित पैरोकार सत्ता को खुश रखते हुए कला का और्गाज़्म रचने में ग़र्क़ हैं। प्रणाली को गाँव के मन्दिर का पुजारी 10-12 साल की उम्र में ही देवदासी बना लेता है। देवता से ब्याही जाने के धार्मिक कुचक्र के विश्वासी पिता व गाँव के समक्ष माँ का विरोध नाकाम होता है। वर्षों तक अपनी हविश का शिकार बनाने के बाद एक दिन पुजारी उसे बीस एकड ज़मीन के बदले मंत्री के पास छोड आता है...। लेकिन मंत्री के बर्बर हमले के दौरान उसे घायल करके प्रणाली पुलिस थाने जाती है, जहां मंत्री के फोन पर उसे नारी निकेतन और वहाँ से मुम्बई की वेश्या-मंडी में पहुंचा दिया जाता है। यह तो भूमिका हुई... फ़िल्म तो इसी वेश्या-जीवन पर है, जिसका सबसे अधिक शोषण उस एरिया (लक्ष्मी नगर) का मंत्री करता है- अपने गुण्डे फ़कीरा की गैंग के ज़रिये...। वोट के प्रचार के लिए उनसे राखी भी बँधवाता है। असली लडाई शुरू होती है, जब अपनी बेटी को एक आम नागरिक की तरह पढाने की कोशिश में प्रणाली नाकाम होती है और एड्स से एक वेश्या की लावारिस मौत हो जाती हैं । तब विदेश में बसे व वेश्या-जीवन पर शोध-कार्य कर रहे विजय की सलाह पर सेक्स वर्कर के रूप में वेश्याओं के समस्त मानवाधिकारों की माँग को लेकर मंत्री से मिलती है। वहाँ से टका-सा जवाब पाने के बाद हडताल कराती है, जिसमें जी-जान से सारी वेश्याएं जुट जाती हैं। मीडिया व कुछ नारी-संगठन भी अच्छा सहयोग देते हैं। विदेशों से समर्थन आते हैं। और 15 दिनों के बाद विरोधी दल के नेता भी अपना उल्लू सीधा करने साथ आ जाते हैं...। ऐसे प्रयत्न आज जीवन में तो मर-से गये हैं और फ़िल्मों में अकेले हीरो द्वारा सबकुछ कर-करा लेने के रूप में स्टंट बनक्रर जिन्दा हैं, जिनका कोई मतलब नहीं। और इसीलिए सार्थक ढंग से यह कराना ही ‘प्रणाली’ का श्रेय बन गया है। और प्रेय है- सरकार का झुकना, पर उस प्रयत्न का सफल न होना। याने बदलाव का रास्ता भी, पर यथार्थ से बावस्ता भी। राजनीति की ज़ाहिर-सी पेंच उघडती है - आश्वासन देकर मंत्री विचारार्थ समिति बना देता है और दर्शकों को बता भी देता है कि रिपोर्ट कभी नहीं आयेगी और आयेगी भी, तो अमल न होगा। पर इस तरह चुनाव तो सरकार जीत ही जाती है...। फिर जब विजय की बेस्ट सेलर पुस्तक की बिक्री के प्रतिशत से कुछ वेश्याओं के पुनर्वास व प्रणाली के जारी प्रयत्न के साथ फ़िल्म पूरी होती है., तो लगता है कि हम एक समूचा जीवन जीकर उठे हैं। हाँ, इसके लिए सरोकार का एक जज़्बा आपके मन में भी चाहिए। और न हो, तो थोडा ही सही, ‘प्रणाली’ पैदा भी कर देगी। और इसी के लिए उसूलन इसे सभी को एक बार देखना ही चाहिए...। - सत्यदेव त्रिपाठी