Friday 6 June, 2008

cinema

‘सरकार राज’ की ‘सरकारी’ के सबब.... रामगोपाल वर्मा की ‘सरकार’ में एक व्यापारिक प्रकल्प को रोकने में सुभाष नागरे (अमिताभ बच्चन) घायल होते हैं। बेटा शंकर नागरे (अभिषेक बच्च्न) उन सबको मार डालता है। अब इस ‘सरकार राज’ में एक बिजली उत्पाद योजना को लगाने में बेटा शंकर नागरे मारा जाता है और तब पिता उन सभी को मरवा डालता है। मुख़्तसर में यही थीम है फिल्म की... और यह पैटर्न वही गॉड फादर का है, जिस वजन पर निश्चित कयास हैं कि तीसरा भाग भी बनेगा, जिसमें पोता चीकू (मुझे चीकू चाहिए- सरकार) होगा और सरकार फिर भी जिन्दा रहेंगे। आख़िर, भीष्मों की परम्परा वाला देश है यह । ख़ैर..., इसी तरह की छोटी-छोटी तमाम आवा जाही देखी जा सकती है... मसलन - उसमें बडा बेटा बाग़ी होता है, छोटे भाई के हाथों मारा जाता है; तो इसमें बेटे सरीखा वफ़ादार सेवक पिता सरीख़े मालिक के हाथों...। विरोधियों में व्यापारियों, गुण्डों, स्मगलरों के साथ बडे-बडे ओहदों पर आसीन राजनीतिज्ञों की मिली भगत दोनो में है...और महाराष्ट्र की भक्ति व सच्ची सेवा की मिश्री तो घुली है ही। कुल मिलाकर सिर्फ़ ‘इस कोठी का धन उस कोठी’ करने के अलावा क्या है? फिर भी फिल्म हिट होगी और इंशा अल्लाह तीन साढे तीन स्टार से नवाजी भी जायेगी...। क्योंकि अमिताभ बच्चन हैं...। और बाला साहेब का ‘सरकार राज’ प्रदेश में हो, न हो; फिल्म में अमिताभ का है। फिर व्यक्तित्वों को बनाना तथा उनके हर सही-गलत की पूजा करना हमारे देश की पुरानी परम्परा है - ‘यत्र कृष्णो, ततो धर्म:’ से लेकर ‘इंडिया इज इन्दिरा’ तक के इतिहास को रामगोपाल वर्मा सरीखे लोग जानते हैं। सतत भुना रहे हैं...। सुभाष नागरे इतने लोगों को खुल्लमखुल्ला मरवा देते हैं इस बार कहा भी - ‘राजनीतिज्ञों के वेश में गुण्डे’, पर हिट... । हाँ, दो राय नहीं कि बस अमिताभ ही हो सकते हैं सरकार। तीन चौथाई फिल्म में उन्हें बेटे के पीछे कर दिया गया था। फिर बेटे को मरवाकर वर्मा ने अमिताभ की सरकारी दिखायी। इस सरकारी के होते हुए भी बेटे के मरने के बाद जागते हैं सरकार !! भाई, सरकार हैं, कोई स्टंट फिल्मों के विलेन तो नहीं कि बेटे को बचाने के लिए चीखें...? ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि जो बहू के मरने के बाद दिल के दौरे का शिकार हो जाता है, बेटे की मौत के बाद पहलवान होकर एक-एक को मरवा कैसे सकता है - सरकार जो ठहरा - ‘समरथ के नहिं दोष गुसाईं’ । दो-दो एकालापों में भी सरकारी सर चढकर बोली, पर फिल्म मुँह के बल गिरी- वह सब कुछ तो फिल्म को करके दिखाना चाहिए था...लेकिन सरकार ही तो फिल्म हैं- इन्दिरा इज़ इंडिया। और जब “गॉड फ़ादर’ ही नहीं बताती कि साराकुछ कारनामा होता कैसे है, तो वर्मा क्यों बतायें कि आख़िर किस बल पर शंकर नागरे क्या कुछ करता है, जो बाप से आगे व प्रदेश का भविष्य हो गया है। जैसे अभिषेक की भूमिका प्रायोजित है, वैसे ही अभिनय भी प्रक्षेपित (प्रोजेक्टेड) । और ऐश्वर्या को तो बस, दो लाख करोड वाली परियोजना की फाइल पकडाकर अभिषेक को निहारना भर था, जो अच्छा करती है वह। शालीन लिबास में खिलती भी है। परियोजना में इफ़रात बिजली से महाराष्ट्र का विकास होना है, पर 40 हजार लोगों को उजडना है, जिनके पुंनर्वास पर कुछ नहीं कहती फिल्म...बस, विरोध में प्रांत के अति मानिन्द राव साहेब को अपने बच्चे के लिए खूनी राजनीति का खेल खेलने वाले आज के नेताओं के साथ खडा करके उस ज़माने को भी नाहक दाग़दार बना देती है। परंतु राव साहेब बने दिलीप प्रभावलकर अपनी खास आवाज व निराबानी अदा से अभिनय मूल्यों को अवश्य खूब ऊंचा उठा देते हैं...। पॉवर प्लांट के बहाने पॉवर पॉलिटिक्स का यह खेल ही खेलना था, जिसके लिए सब दोयम दर्जे के विलेन (गोनिन्द नामदेव ...आदि) तो ठीक, पर सभी कैरिकेचर क्यों बन गये है वर्माजी ? क्या स्टाइल मरवाने के चक्कर में ? या आपको सीरियलों का बालाजी बनना है...? -सत्यदेव त्रिपाठी