Sunday 4 May, 2008

अमर प्रेमी बनने की क़तार में एक और प्रेमी युगल - ‘जोधा अकबर’...

अमर प्रेमी बनने की क़तार में एक और प्रेमी युगल - ‘जोधा अकबर’... जिसके बेटे (सलीम) व पोते (शाह्जहां) अमर प्रेम के रहबर बनकर इतिहास व कला में मिथक बन चुके हों, वह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर भला अमर प्रेमी कैसे न होगा ? और आनुवंशिकता (हेरिडिटी) के इस जैविक व मनोवैग्यांनिक सच पर अब तक फिल्म वालों की नज़र न जाने से होती रही भारी क्षति की पूर्त्ति की है - आशुतोष गोवारीकर ने ‘जोधा- अकबर’ बनाकर । न सही पोते पर बनी ‘ताजमहल’, पर बेटे पर बनी फिल्मेतिहास की अमर रचना ‘मुगलेआज़म’ तो ज़रूर रही होगी आशुतोष के मन में, क्योंकि अपने नाम की तरह वे काम में आशु (थोडे) से तोष पाने वाले नहीं हैं। बनायी भी है पूरे मन व अपनी समूची कला-चेतना को निचोडकर, जो फिल्म के हर फ्रेम में ज़ाहिर भी है...लेकिन इसके बावजूद यह एक काफी अच्छी सही, पर ग्रैफिक्स आदि की तकनीकी सुविधओं तथा पश्चिम की ढेरों फिल्मों की प्रस्तुतियों के कुशल प्रयोग के बावजूद यह ‘मुग़लेआज़म’ जैसी क्लासिक फिल्म नहीं बन पायी है। और यह सीमा है गोवारीकर के साथ आज के समय की कलाचेतना की भी। वरना जब जोधा-अकबर की रूमानी फिल्म घोषित थी, तो जावेदजी व रहमान भाई मिलकर ‘ख्वाज़ा मेरे ख्वाज़ा...’ जैसी सूफ़ियाई के साथ ‘तेरे दर पे ये किस्मत आज़माके...’एवं ‘अज़ीमोशान शहंशाह...’ के बदले “मोहे पनघट...’ या ‘जब प्यार किया, तो डरना क्या...’की छाया जैसा ही कुछ दे पाते...। वैसा कुछ संवाद में के.पी. सक्सेना ही कर देते..। ये सब एक बार के लिए प्रीतिकर हैं, पर कुछ स्मरणीय नहीं। और ‘प्रेम कथा’ का नाम देने के बाद कनफ्यूज्ड (कर्त्तव्यविमूढ) हैं गोवारीकर भी, जो ‘गलबाहें हों, या हों कृपाण’ में तय ही नहीं कर पाये कि किस पर ज़ोर दिया जाये..। नतीजा यह हुआ है कि जहां सियासी को रूमानी होना था, वहां रूमान ही सियासी बनता गया..। सो, प्यार को मध्यांतर तक आने ही नहीं दिया - नृत्य-संगीत के बदले कलाबाज़ियां-तलवारबाज़ियां दिखाते रहे, शहंशाह के बहनोई के षडयंत्र व जोधा के मुँह्बोले भाई के साथ शक-ओ-शुबहा के ताने-बाने बुनते रहे एवं पालक बडी माँ का दबदबा बनाते रहे...। और यह सब भी जोधा-अकबर के प्यार की तरह ही अनकहा और अचीन्हा है। याने फिल्म में ऐतिहासिक मानने जैसा कुछ नहीं है। इतिहास के आभास के साथ इसे सामान्य प्रेमकथा मानने में ज्यादा मज़ा है। वरना बेटे के प्रेम की बलि लेने वाले बादशाह की छबि ऐसी बैठी है कि प्रेमिका तक के लिए पूरी टीम ‘शहंशाहजी’ के अलावा एक प्यारा नाम तक न सोच सकी। सो,शाही छबि टूटने में पूरा शक़ है। बस, ‘अकबर के उदार बादशाह होने’ की सरनाम ऐतिहासिकता का दामन इतना फलदायी हुआ है कि फिल्म आज की हो गयी है। धर्म, संस्कृति व लिंग के भेदों को मिटाने की व एक राष्ट्र बनाने की ज्वलंत चेतना बडे सलीके से जुड गयी है। हिन्दुओं से लिये जाने वाले तीर्थ-यात्रा के मह्सूल को हटाना, जोधा की हिन्दू बने रहने व महल में मन्दिर बनाने की शर्तों को मान लेना...आदि को खूब रोशन किया गया है। इसे लागू करने के लिए कट्टर मुल्लाओं, रहनुमाओं की बग़ावत का दमन भी किया गया है...। और इसी में प्यार पनपाने का कुशल संयोजन भी। इसी के लिए फिल्म की मूल्यवत्ता काबिलेग़ौर है। और असरकारिता में तो फिल्म भव्य है ही। किंतु लगभग असहनीय है फिल्म की लम्बाई - सम्पादन-कला के लिए तो ज़ीरो मिलेगा। हाँ, दृश्य-योजना पर अवश्य 90% । अभिनय का मामला पहली नज़र में फिटहिट लगता है, पर है मिश्रित फलदायक। जब तय हो ऋतिक को लेना, तो किरदार के लायक होने की चर्चा क्या करनी, पर उनकी मेहनत का फल मिला है फिल्म को। ऐश्वर्या आयी भी हैं सही व भायी भी हैं। दोनो को खूब मौके देने ही थे, पर वह नज़र में भी आता है। बडी माँ बनी इला अरुण प्रभावी हैं। माँ बनी मल्लिका हामिदा सलीकेदार हैं। सोनू सूद बाद में निखरे हैं। कुलभूषण दयनीय हो चुके हैं। बहनोई बने निकितन दमदार हैं। शेष सभी सहयोगी रूप में सही हैं। फिल्म से पैसे की खुली छूट (सौजन्य ‘यू टी.वी’) के चालीस करोड की वापसी की ‘उम्मीद तो काफी है’, पर कालजयी कला बन पाने में ‘यकीं कुछ कम है’- बल्कि बहुत कम है। -सत्यदेव त्रिपाठी

“ह्ल्ला बोला तो, पर ह्ल्ला हुआ नहीं...”

“ह्ल्ला बोला तो, पर ह्ल्ला हुआ नहीं...” राजकुमार संतोषी ने ‘हल्ला बोल’ में भी विषय तो उठाया सामाजिक सरोकार का, जिसमें हमेशा की तरह सभी भ्रष्ट तत्त्वों के खिलाफ एक व्यक्ति का विरोध है। मामला भी मंत्री व स्मगलर के बेटे द्वारा एक लडकी के क़त्ल का...और आदतन पुन: डाले वैसे ही जनता लुभाऊ दृश्य.। ‘घायल’ तथा ‘दामिनी’ के सन्नी देवल जैसे ही करायी हीरोगीरी अजय देवगन से भी। पर इस बार लगता है कि पहले की तरह इन जोडों का घुलामिला फ़ार्मूला उस तरह चलने वाला नहीं- पहले दिन ही हाल में जनता ने ठेंगे दिखा दिये... शायद कारण बना समाजिकता वाली बात पर ज़ोर देता प्रचार और उसे सिद्ध करता नाम- ‘ह्ल्ला बोल’, जो सफदर हाशमी जैसे आन्दोलंनकारी से जुडा है। उसका वैसा ही इस्तेमाल भी करने की कोशिश हुई है। मीडिया में आने के बाद नाट्यकर्म को तिलांजलि देने वाले पंकजकपूर को कुछ तो संतोष हुआ होगा- डाकू से प्रतिबद्ध रंगकर्मी बनने वाले की भूमिका करके- पर्दे पर ही सही। उन्हें भी खूब मौके दिये गये हैं ऐक्टिंग के, जिसे जमाया भी है पंकज ने। लेकिन ऐसी कलात्मक रुचियों से जनता का वास्ता तोडने का काम भी तो फिल्मों ने ही किया है। मुख्य घटना के रूप में ‘जसैका लाल ह्त्याकांड’ को रखा गया है...। नर्मदा आन्दोलन में शामिल होने के बाद आमिर की फिल्मों के बहिष्कार का मामला भी स्टार के सरोकार के साथ जोड दिया गया है...और साथ ही नाटक से फिल्म-स्टार बनने में नायक अशफ़ाकुल्ला से समीर खान ही नहीं होता, उसका सारा वजूद ही बदल जाता है। फिर स्टार की कई रुटीन बेईमानियां शामिल होती हैं, जिनके चलते माँ-पिता-गुरु उसे छोड जाते हैं । पत्नी सिर्फ नाम के लिए घर में रह जाती है। स्टार्डम व अय्याशी के मोह में फँसे नायक को संवेदनशील समाजधर्मी बनाने में आधी फिल्म निकल जाती है। फिर उसे नष्ट करने में खल पात्र मिलकर वही सब हथकंडे अपनाते हैँ, जो हर दूसरी फिल्म में आम तौर पर होते हैं। इस प्रकार इतने घोल मिल गये हैं कि किसी का भी अपेक्षित असर नहीं बन पाता और फिल्म भी काफी लंबी हो गयी है। आधी के बाद भ्रष्टता को खत्म करने के लिए कोर्ट व आम जनता को ‘दामिनी’ की तरह ही मिलाया गया है, पर इस बार जनता की भागीदारी के प्रतिशत का ज्यादा होना बेहतर आयोजन अवश्य है, जो आज का एकमेव विकल्प भी है। पर इसमें ‘रंग दे बसंती’ व ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ जैसा असर नहीं बनता। वैसे ‘फ़न’ का नितांत अभाव भी फ़िल्म के सूखेपन का जिम्मेदार है। मीडिया के दोनो पक्षों का बखूबी आना, फिर भी, सराहनीय हैं। संगीत सामान्य है- ‘ह्ल्ला बोल’ तक में अपेक्षित असर नहीं बनता। अच्छे संवाद बेहतर भी हो सकते थे। यादगार हैं कुछेक दृश्य- खानापूर्ति वाली भूमिका में भी विद्या बालन के प्रेस वाला, अजय की खल पात्रों से समक्षता- ख़ासकर मंत्री के विदेशी कार्पेट को गीला करने व उसके गृह्प्रवेश पर बेबाकी वाला और पंकज कपूर का प्रेस वालों के बहाने पूरे समाज की तटस्थता को फटकारने वाला...आदि । और इन सबके बीच ऐसा बहुत कुछ निकलकर आता है, जिसके लिए यह फिल्म पहली फ़ुर्सत में ही एक बार देख लेने लायक तो है ही...। - सत्यदेव त्रिपाठी

‘यू’ और ‘मी’... कैसे बनते हैं ‘हम’...!!

‘यू’ और ‘मी’... कैसे बनते हैं ‘हम’...!! नीरज जी ने बहुत पहले एक कविता लिखी थी- ‘प्यार अग़र थामता न जग में उंगली इस बीमार उमर की, हर पीडा वेश्या बन जाती, हर आंसू आवारा होता...’ पिया (काजोल) को सब कुछ भूलने की बीमारी (अनज़ाइना) हो जाती है। वह रह-रह कर अपना घर-बार भूल जाती है.. यहां तक कि पति अजय (देवगन) को भी नहीं पहचानती..। छोटे-से बेटे को स्नानघर में डूबते हुए भूल जाने के दिल हिला देने वाले दृश्य के बाद उसे अस्पताल में छोडने का दृश्य कलेजा काढ लेता है। यदि पिया को वहीं छोड दिया जाता, तो उसकी पीडा लावारिस (वेश्या) व उसके आंसू आवारा ही होते..। पर तभी अजय को याद आता है कि उसने पिया को वहां उसके लिए नहीं, अपने आराम, स्वार्थ, सुविधा के लिए छोडा है। ‘अपने बेटे’ को ‘उस औरत’ के पास कैसे छोड दूँ....याने ‘वह’ और ‘मै’ हो गये !! इस अपनी अमानवीयता पर उसे कोफ़्त होती है। अपना प्रेम, अपने वायदे याद आते हैं। और अजय जाकर पिया को घर ले आता है - डॉक्टर के लाख मना करने के बावजूद । इस तरह ‘मी’-‘यू’ मिलकर ‘हम’ बनते हैं, जो ‘मैं’-‘तुम’ और ‘हम’ भी हो सकता था..। यही है फ़िल्म। और यह सब फ़िल्म का उत्तरार्ध भर है, जिसे देखने के बाद किसी को पूर्वार्ध वाला भाग ‘समय की बर्बादी’ भी लग सकता है। लेकिन वह फिल्म की स्टाइल से बावस्ता है। बेटे की चुनौती पर एक औरत को पटाते और उसी दौरान पूरी कहानी सुनाने की स्टाइल। अंत में पता लगता है कि यही है वह औरत, जो रोज़ पति को भूल जाती है। पति रोज़ पटाता है- पटाना फ़ितरत बन गया है। और आज उनकी शादी की सिलवर जुबली है। वे उसी शिप (क्रुइज़) पर हैं, जहां दोनो मिले थे। पटाने में स्टाइल तब भी था। अजय अकेला था। उसके दो मित्र थे- जोडे में। एक खुशहाल अविवाहित जोडा और दूसरा दुखी विवाहित । जब पिया को अजय घर ले आता है, तब पहला शादी करने और दूसरा साथ रहने का फ़ैसला करते हैं..और यह भी ‘मैं’- ‘तुम’ और ‘हम’ का स्टाइल बन जाता है। चरित्रों की पहचान बनाने, रिश्तों के लुत्फ़ लेने, हास्य-विनोद के आस्वाद पाने व यथार्थ के दंश झेलने के ऐसे कई आयोजन इसमें भरे पडे है, जो मज़ेदार व अर्थभरे संवादों, सटीक दृश्य-विधानों तथा नैन-सुख देने के साथ तकनीकी नक्काशी पिरोते चित्रांकनों (फ़ोटोग्रैफ़ी) से सजे हैं। सभी के सही अभिनयों से सँवरे हैं। काजोल वहीं से शुरू हो गयी है, जहां छोडकर गयी थी। अजय ने खुद से वह सब एक साथ करा लिया है, जो तमाम निर्देशक मिलकर उससे अलग-अलग कराते रहे हैं। इन सबसे लगता नहीं कि बतौर निर्देशक यह अजय की पहली फ़िल्म है...। कहानी भी अजय ने ही तैयार की है, जो भले किसी या किन्हीं फ़िल्मों की प्रेरणा से हुई हो, पर उसमें बेहतर कथा-संयोजन का गुर है। कैंसर आदि को लेकर ‘अँखियों के झरोखों से’ व ‘मिली’ आदि कई फ़िल्मों में त्याग भरे प्रेम सम्बन्धों की अच्छी परख हुई है- ‘आनन्द’ में मानवीयता का अच्छा पहलू एक दर्शन के साथ आता है, पर सबमें सम्बन्धों की प्रेम व करुणामय विदाइयां हैं, जबकि इसमें उन सम्बन्धों की पडताल है, जिसे तिल-तिल जलकर सहना है। यहां बात उन संबन्धों के पुनरुज्जीवन तक जाती है, जो आज अनायास टूट रहे हैं...। यह प्रासंगिकता बडी ज़हीन व ज़रूरी है। इसी से मन में सहज इच्छा जगती है कि पूछा जाये- अजय, अगली फिल्म कब व क्या होगी? और बताया जाये कि वह जो भी हो, जब भी हो, उसका सम्पादन ज़रा तटस्थ होकर करना....। - सत्यदेव त्रिपाठी

यह ‘रेस’ किसकी है.....?

यह ‘रेस’ किसकी है.....? मस्तान अब्बास द्वारा निर्देशित और बहुप्रचारित फिल्म ‘रेस’ तीन-तीन नामी हीरो-हिरोइनों से भरी है- सजी नहीं है...। और यह रेस घोडों की नहीं है..। हालांकि नायक सैफ़ अली का घोडों का पेशा भी है और पैशन भी। इस पेशे में उसका चिर प्रतिद्वन्द्वी दिलीप ताहिल है, जिसने एक बार धोखे से सैफ को बडी करारी मात दी है, पर जान जाने के बाद सैफ उससे भी बडे धोखे से ऐसी करारी शिकस्त देता है कि वह शायद नेस्तनाबूद ही हो जाता है...। यह सब आधे घंटे में पूरा हो जाता है- याने रेस व उसमें विलेन का यह सब मामला फिल्म में बहाना ही है। असली रेस तो सैफ अली के साथ उसके सौतेले भाई बने अक्षय खन्ना की है, जो सबसे पहले सैफ की प्रेमिका विपाशा बसु को पाने की रेस दिखती है। लेकिन उसे सैफ सहर्ष दे देता है भाई को- शराब की लत छोडने की शर्त पर प्यार व शादी करा देता है...। तब मालूम पडता है कि असली रेस तो सैफ के पचास मिलियन पाने की है - कानूनी शर्त के मुताबिक उसे दुर्घटना में मरवाकर । उसमें से 20 मिलियन देने के सौदे पर विपाशा को मोहरा बनाकर अक्षय ही लाया है। दुर्घटना के ठीक पहले विपाशा बता देती है सैफ को और लगता है कि अब अक्षय मारा जायेगा, पर ऐन वक्त पर अक्षय का ही साथ देती है विपाशा और सैफ मारा जाता है। यहीं मध्यांतर होता है और समीरा को सेक्रेटरी के रूप में लिए अनिल कपूर नुमायां होता है जांच अधिकारी के रूप में एकदम करमचन्द-किटी स्टाइल की नकल बनकर । जांच के दौरान सैफ की सेक्रेटरी कैटरीना कैफ़, जो सैफ से प्रेम करती भी पायी जाती रही, सैफ के साथ अपनी शादी का प्रमाणपत्र पेश कर देती है - याने अक्षय का भाई को मारना गुनाहे बेलज्जत ही हुआ- वो 50 मिलियन अब कैटरीना पायेगी...। लेकिन तब तक एकदम अलग ही राज़ खुलता है - सैफ की दस्तख़त कैट्रीना धोखे से पहले ही ले चुकी थी- शादी के वक्त तो अक्षय वहां मौजूद था। अब विपाशा को भी धोखा देता अक्षय यूं पक्का शातिर बन सामने आता है कि विपाशा को मारने की सुपारी उसी के हाथों दिलवाता है। अनिल को भी तिहाई रक़म देकर जब पैसा कैश हो जाता है और विपाशा को खत्म करने क़ातिल आ जाता है, तब उडते हुए सैफ़ पुन: प्रकट होता है, जिसकी उम्मीद इतने सारे अचानक मोडों के बाद हमें हो ही गयी थी..। अब मालूम पडता है कि इस सब कुछ की खबर सैफ़ को पहले ही हो गयी थी। तभी उसने विपाशा को उसके साथ व्याहा था...। सस्पेंस का यह पार्ट सचमुच लाजवाब है। यहां आकर असली रेस का पता चलता है, जो पैसों की भी नहीं थी। भाई-भाई के सम्बन्धों की थी, जिसमें बचपन से ही हर मामले में- खासकर सायकल की रेस में- सैफ़ ही जीतता था । इससे हीन भाव की ऐसी ग्रंथि बन गयी कि अक्षय निकम्मा-सा सिद्ध हो गया और पिता ने 50-50 मिलियन के बीमे के अलावा सारी सम्पत्ति सैफ को दे दी थी। इसी के बदले में वह पूरा सौ मिलियन लेने के रोप में एक बार सैफ़ को हराना चाहता था; पर हरा नहीं पाया। बडा वजिब कारण भी सैफ़ ने बताया कि ‘तुम हराने के लिए लड रहे थे और मैं जीतने के लिए। इसलिए मैं जीतता गया और तुम हारते गये..’। लेकिन इस सचाई तक पहुंचने व इस सच को सुनने के लिए इतनी घाटियों-पहाडों से गुज़रना पडता है कि सब कुछ पर से विश्वास उठ जाता है। सीट से उठकर आते हुए शक़ होता रह्ता है कि अंत में जलकर ख़ाक़ हो चुके अक्षय-कैटरीना जीकर उठ न जायें और फिल्म फिर से चलने न लग जाये..। बडी मेहनत से बनी होगी यह स्क्रिप्ट। बहुत बांधती भी है। पर निर्देशन में किसी कलात्मक सूझ का नितांत अभाव है- वह कथा को ही फ़ाइनल मानकर अटक गया है। इसीलिए उत्तरार्ध एकदम ढीला हो गया है। संपादन के बिना बहुत लम्बा भी। शुरू के गीत मौजूं हैं, पर हर हिरोइन पर गीत के संतुलन की भर्ती वाले बाद के दो गीत भी संपादित होने लायक ही हैं। सैफ़ ने कमाल का काम किया है...। अक्षय भी सही है, पर अनिल का रोल ही भरती का है। दोनो भाइयों से कट लेकर 50-60 मिलियन बना लेने में भ्रष्ट जमाना भले उजागर हुआ हो, अधिकारी का वह च्ररित्र और फ़ालतू हो गया है। देह-प्रदर्शन व भूखी शेरनी बनकर पुरुष पर टूट पडने के अलावा विपाशा को कम ही फ़िल्मों में कुछ करने को मिलता है- वही यहां भी है। यही कैटरीना को भी करना हुआ है। अभिनय दोनो को नहीं आता। कुल मिलाकर सैफ़ व अक्षय के अलावा सभी इसमें फ़िलर ही हैं - पर इस रूप में भी समीरा ही कुछ ठीक बन पडी है। कई-कई सस्पेंसों से भरी यह फिल्म एक बार तो देखने लायक है ही...। - सत्यदेव त्रिपाठी

बनाविंग ‘टशन’ बिग पैसा और मिक्स भेजा का काम...

पर देखिइंग ‘टशन’ तो सच्ची - कलेजा का काम...। घबरायें ना आप, यही हिन्दी है यशराज बैनर की विनयकृष्ण आचार्य निर्देशित फिल्म ‘टशन’ की । यह बंबइया डॉन बने एक कानपुरिये ‘भैयाजी’ (अनिल कपूर) के मिक्सचर किरदार की भाषा है। उसे वे अमिताभ बच्चन की ‘दीवार’ के मन्दिर वाले हिट संवाद को अपनी दिलीपकुमार वाली नकल शैली में बोलकर और पक्की खिचडी बना देते हैं। किसी विदेशी प्रतिनिधि मंडल से बात करने के लिये सीखी गयी अंग्रेजी से इसे जोडकर कहानी के लिये सही बनाने की कोशिश की गयी है। इधर की फ़िल्मों से यह तो पता चल ही गया है कि अब एक हीरो के साथ-साथ रोमैंटिक या सस्पेंस..जैसी किसी एक तरह की कहानी से काम नहीं चलता, पर ‘टशन’ बता रही है कि अब एक भाषा से भी काम न चलेगा। तो शायद ‘हिंग्लिश’ में ‘जिन्दी’ की तरह ‘फ़िन्दी’ चले। पूरी फ़िल्म के बाद ‘टशन’ का मतलब तो समझ में आ जाता है, पर इसे समझाने लायक एक शब्द समझ में नहीं आ पाता। ख़ैर, भाषा व कहानी की तरह ही सारे चरित्र भी मिक्सचर। भैयाजी को अंग्रेजी सिखाने वाला सैफ़ अली ख़ान तो अंग्रेजी-हिन्दी दोनो अच्छी बोलता है, पर किरदार में पूरी मिलावट- कॉल सेंटर चलाने वाले छोकरीबाज़ से फ़िदा होने वाले प्रेमी के बाद फ़िर त्यागी-बलिदानी..। और हर रूप में सही लाइन के अभिनय के बावजूद सैफ़ का सही उपयोग हुआ नहीं। शो लूट लेने वाला किरदार है- कानपुर के लोकल गुण्डे से नेशनल भाई बनने की फ़िराक़ में मुम्बई आये बच्चन पाण्डे बने अक्षय कुमार का, जो आता है तो है भैयाजी के 25 करोड लेकर फ़रार करीना-सैफ़ को खोजने, पर पा जाता है अपनी बचपन की प्रेमिका गुडिया (करीना कपूर) को...। गुण्डे तक तो शुद्ध हिन्दी बोलता है, पर प्रेमी होने के बाद फ़िन्दी पर उतर आता है। नहीं उतरती फ़िन्दी पर करीना, लेकिन सबसे ज्यादा मिक्स्चर उसी का बना है। पता ही नहीं चलता कि वह गुडिया है या जादू की पुडिया...। सब कुछ करती तो है यह कुडी- बस, ठीकठाक, लेकिन लोगों को याद रह जायेगा उसका बिकनी वाला तथा अन्य कई रूपों में उघडा बदन। यह दिखने से अधिक वीभत्स है- पूरी फ़िल्म यही दिखाने की निर्देशकीय मंशा का दिखना। छोटे से कस्बे की तेज-तर्रार लडकी भैयाजी के जाल में फँसी है। सैफ़ से प्रेम करके साथ भागने की योजना बनाती है। 25 करोड लेकर अकेली उड जाती है। अकेले ही वह पैसे इतनी जगह रख देती है कि उसे वापस लेने में अक्षय-सैफ़ के साथ पूरी फ़िल्म बन जाती है। और इस दौरान क्या-क्या नहीं होता... नौटंकी.. अंग्रेजी फ़िल्म में फिन्दी गाना- वैसा ही मिलावटी मेकअप...पुलिस से मुठ्भेड में मारधाड...याने सबकुछ...। पर कुछ मौलिक नहीं। हर चरित्र, हर दृश्य, हर फ़्रेम में नकल साफ़। पर यही सब फिल्म चलने के लिए आज जरूरी माना जाता है। सब ऊलजलूल होता है। इसका सबको पता होता है। पर जांबूझकर बनाया व पूरे होशोहवास में देखा जाता है। और अंत में सब कुछ एक बदले की बात सिद्ध होता है। भैयाजी को मैट्रिक्स टाइप लडाई में अक्षय व सैफ़ की मदद से मारकर करीना अपने बाबा की ह्त्या का बदला ले लेती है। बस, कहानी का कायापलट कर देने वाले एक-दो ऐसे मोड आते हैं.. कुछेक ऐसे संवाद आ जाते हैं, जो एक अच्छे कलारूप का लुत्फ़ दे जाते हैं, पर इतने के लिए ढाई घंटे सरफ़ा करना खल जाता है। - सत्यदेव त्रिपाठी

‘प्रणाली’ - घी के लड्डू टेढे भी भले...

आजकल जब सिनेमाई उपकरणों के इस्तेमाल से लैस और प्रस्तुति के खींचतान भरे तरीकों की कसरत करती बेबात की बात वाली फिल्में प्राय: ही आ रही हैं, बाबा तुलसी के ‘मन मलीन तन सुन्दर..’ की तरह..., तो ऐसे में निर्देशक हृदयेश काम्बले की फ़िल्म ‘प्रणाली’ को देखकर मन से यही निकला- ‘घी के लड्डू टेढे भी भले...’। मैं जानता हूँ कि इसको देखकर लोग तो क्या, समीक्षक तक नाक-भौं सिकोडेंगे...सबका ज़ायका जो खराब हो गया है। और ‘प्रणाली’ का लड्डू भी टेढा है- अभिनय पक्ष निहायत कमज़ोर है । प्रणाली बनी नरगिस सबसे कमज़ोर- बोलने की अदा तो असह्य। वेश्याओं की अड्डावाली सुधा चद्रन को देखते नहीं बनता। साथ की वेश्या में दीपशिखा सामान्य - शेष तो उससे भी नीचे। छोटे चरित्र की बडी भूमिका में उपेन्द्र लिमये लाउड, पर लहकते हुए । हेमंत पाण्डेय टी.वी. वाली छबि से काफ़ी लचर..। बस, विनय आप्टे उस भ्रष्ट मंत्री को फूहड भी बनाकर आक्रोश के साथ जुगुप्सा भी जगा पाते हैं। विजय का चरित्र बखूबी निभा है। एक चरित्र के आस-पास बुनी हुई कहानी बनायी हुई का अहसास कराती रह्ती है। चित्रांकन में कोई चारुता नहीं। ध्वनि में मधुरता नहीं। निर्देशन ढीलाढाला, फ़िल्म भागती हुई... याने ख़ारिज़ कर देने के सारे सरंजाम..। परंतु इस लड्डू का घी है - बिना किसी फ़िल्मी तमाशे के सीधे-सीधे कही गयी वह ज़हीन बात, जो इस फ़िल्म को एक उपयोगी कला बना देती है - निरस बिसद गुनमय फल जासू । बात है शीर्ष राजनीति, प्रशासन, अमीरवर्ग, गुण्डागर्दी...आदि से संचालित आज की समूची व्यवस्था को जमकर व खुलकर नंगा करने की, जिसमें यह फ़िल्म एकदम सफल हुई है। बिना किसी पेशेवर आग्रह के, पूरी गंभीरता के साथ यह करना (बक़ौल एक पात्र - क्या धो-धो के मार रहेला है!) हिम्मत का काम है। समाज के प्रति गहन सरोकार एवं फिल्म जैसे सशक्त माध्यम के सही व कारगर इस्तेमाल का नमूना है, जिसे आज के कमाऊ फ़िल्मकार भूल गये हैं एवं सोद्देश्य फिल्म के घोषित पैरोकार सत्ता को खुश रखते हुए कला का और्गाज़्म रचने में ग़र्क़ हैं। प्रणाली को गाँव के मन्दिर का पुजारी 10-12 साल की उम्र में ही देवदासी बना लेता है। देवता से ब्याही जाने के धार्मिक कुचक्र के विश्वासी पिता व गाँव के समक्ष माँ का विरोध नाकाम होता है। वर्षों तक अपनी हविश का शिकार बनाने के बाद एक दिन पुजारी उसे बीस एकड ज़मीन के बदले मंत्री के पास छोड आता है...। लेकिन मंत्री के बर्बर हमले के दौरान उसे घायल करके प्रणाली पुलिस थाने जाती है, जहां मंत्री के फोन पर उसे नारी निकेतन और वहाँ से मुम्बई की वेश्या-मंडी में पहुंचा दिया जाता है। यह तो भूमिका हुई... फ़िल्म तो इसी वेश्या-जीवन पर है, जिसका सबसे अधिक शोषण उस एरिया (लक्ष्मी नगर) का मंत्री करता है- अपने गुण्डे फ़कीरा की गैंग के ज़रिये...। वोट के प्रचार के लिए उनसे राखी भी बँधवाता है। असली लडाई शुरू होती है, जब अपनी बेटी को एक आम नागरिक की तरह पढाने की कोशिश में प्रणाली नाकाम होती है और एड्स से एक वेश्या की लावारिस मौत हो जाती हैं । तब विदेश में बसे व वेश्या-जीवन पर शोध-कार्य कर रहे विजय की सलाह पर सेक्स वर्कर के रूप में वेश्याओं के समस्त मानवाधिकारों की माँग को लेकर मंत्री से मिलती है। वहाँ से टका-सा जवाब पाने के बाद हडताल कराती है, जिसमें जी-जान से सारी वेश्याएं जुट जाती हैं। मीडिया व कुछ नारी-संगठन भी अच्छा सहयोग देते हैं। विदेशों से समर्थन आते हैं। और 15 दिनों के बाद विरोधी दल के नेता भी अपना उल्लू सीधा करने साथ आ जाते हैं...। ऐसे प्रयत्न आज जीवन में तो मर-से गये हैं और फ़िल्मों में अकेले हीरो द्वारा सबकुछ कर-करा लेने के रूप में स्टंट बनक्रर जिन्दा हैं, जिनका कोई मतलब नहीं। और इसीलिए सार्थक ढंग से यह कराना ही ‘प्रणाली’ का श्रेय बन गया है। और प्रेय है- सरकार का झुकना, पर उस प्रयत्न का सफल न होना। याने बदलाव का रास्ता भी, पर यथार्थ से बावस्ता भी। राजनीति की ज़ाहिर-सी पेंच उघडती है - आश्वासन देकर मंत्री विचारार्थ समिति बना देता है और दर्शकों को बता भी देता है कि रिपोर्ट कभी नहीं आयेगी और आयेगी भी, तो अमल न होगा। पर इस तरह चुनाव तो सरकार जीत ही जाती है...। फिर जब विजय की बेस्ट सेलर पुस्तक की बिक्री के प्रतिशत से कुछ वेश्याओं के पुनर्वास व प्रणाली के जारी प्रयत्न के साथ फ़िल्म पूरी होती है., तो लगता है कि हम एक समूचा जीवन जीकर उठे हैं। हाँ, इसके लिए सरोकार का एक जज़्बा आपके मन में भी चाहिए। और न हो, तो थोडा ही सही, ‘प्रणाली’ पैदा भी कर देगी। और इसी के लिए उसूलन इसे सभी को एक बार देखना ही चाहिए...। - सत्यदेव त्रिपाठी