Saturday 9 August, 2008

सिंग इज़ किंग...नाम में क्या नहीं है...! अनीस बज़्मी को अंग्रेजी नामों का खासा मोह है। ‘नो एंट्री’, ‘वेलकम’ को तो हिन्दी में कह सकते थे, पर ‘सिग इज़ किंग’ को तो हिन्दी में ढालना भी कठिन है, पर है इतना सरल कि अंग्रेजी लगता नहीं। तभी तो सिगों की कुछ ट्रकों के पीछे भी दिख जाता है...। क्या जाने वहीं से ले लिया हो..! लेकिन फिल्म का नाम बनने के बाद इसका जल्वा देखकर आज होते, तो शेक्स्पीयर भी ‘नाम में क्या रखा है’ को बदलकर कर देते- ‘नाम में क्या नहीं है?’। ऐसा हिट हुआ कि कहाँ-कहाँ फ़िट होने लगा ! ख़बरों-एसएमएसों आदि में सिंग लोग किंगमय होने लगे। विश्वास पाकर मनमोहन सिंह, छह विकेट लेकर हरभजन सिंह किंग हो गये। अमर सिह भी नहीं बचे। नाम ही नारा हो गया। प्रचार भी भीषण हुआ। और इसी के चलते कुछ न करने वाले सिंग लोग नाम को देखकर ही तूफ़ान मचाने चल उठे...। लेकिन फिल्म देखकर लगा कि तूफ़ान मचाने जैसा तो प्याला भी नहीं है और यह नाम अपने काम में भी कुछ ऐसा ‘किंग साइज़’ नहीं है। हैपी सिंग बना अक्षय कुमार बेचारा गाँव का भोलाभाला लडका है। सबकी मदद करता है। ईमानदार है। भावुक है। सो, चढाने पर कुछ भी करने को चढ जाता है - मुर्गी पकडने से लेकर ऑस्ट्रेलिया में डॉन बन बैठे अपने गाँव के दोस्त लकी सिंग (सोनू सूद) को वापस लाने तक का...। मुर्गी पकडने में पूरे गाँव के सामान तहस-नहस करता हैं, तो लकी सिंग को विरोधी गैंग वालों से बचाने में उसी के सर-पैर तोड डालता है। इन सबमें गँवईंपने को बेहद बढा-चढा कर दिखाने से फ़ार्स वाला हास्य बनता तो है, पर हँसी लाने तक खींचने में दृश्यों का कीमा भी बन जाता है। साथ में ओमपुरी हैं, जो ‘मेरे बाप पहले आप’ स्टाइल में बर्बाद होने के लिए टाइप्ड होते जा रहे हैं। लेकिन हैपी सिग की तो यही सब पहचान बन जाता है, जिसे निभाने के मास्टर हो चले हैं अक्षय - नमस्ते लंडन व भूलभुलैया आदि से..। फिर ऐसे कारनामे खोज-खोज कर शामिल किये गये हैं, जिनके चलते बडी कुशलता से कहानी भी बनती जाती है। ऑस्ट्रेलिया जाने में इजिप्ट पहुंच जाना गँवरपन के चलते है, पर वहाँ सोनिया (कैटरीना कैफ़) का पर्स लेकर भागने वाले को मुर्गी के अन्दाज में पकडना ऐक्शन है। उसे दिल दे बैठना फिल्मी है। फिर ऑस्ट्रेलिया में उसी की माँ (किरन खेर) के यहाँ रहना और उसी के चलते लकी सिंग की गैंग में पैठना, लकी का बीमार व हैपी का सरगना बन जाना...आदि सब असम्भव के आकस्मिक जोड का मसाला भी है, पर कथाकला का सबब भी। कैटरीना आती है अपने ब्वायफ्रेंड (रनवीर शौरी) के साथ, पर हिन्दी फिल्म का दर्शक जानता है कि वो मिलेगी हीरो को ही। सो, लकी की गैंग ढेरों मेलोड्रामा रचती है, जो खासे मनोरंजक बन पडे हैं - बस, आप दिमाँग को पूर्ण विश्राम देकर उनका विशुद्ध मजा लेने का मन बना लें। हैपी पूरी गैंग को हिंसक से अच्छा इंसान बनाता है, जो फिल्म का शुभ पक्ष है और इस प्रयत्न में सभी चरित्रों व कलाकारों - नेहा धूपिया, यशपाल शर्मा, मनोज पाहवा, कमल चोपडा, सुधांशु पाण्डेय आदि कलाकारों की पहचान बन जाना अच्छी कला का नमूना है। लेकिन हीरो के लिए सबके रोल का कटना छिपता नहीं। ऐसे में नामवाले जावेद जाफ़री के रोल का विस्तार भी खुल जाता है। किरन खेर की सदाबहार आवाज व अदा मोहक है, तो कैटरीना की सुन्दरता को अभिनय की दरकार नहीं। विरासती पुट के साथ नयेपन को मिलाकर संवाद फिल्म के किंगपने को सार्थक करते हैं - ‘मैं कहता हूँ सच, अच्छा तो अपने आप लगने लगता है’। गीत कई हैं, पर शीर्षक गीत के सिवा सभी औसत हैं और औसत संगीत से मिलकर औसत मनोरंजन दे जाते हैं। और लगता है कि औसत के स्तर से ऊपर उठना आज की हिन्दी फिल्मों को भूल-सा गया है। - सत्यदेव त्रिपाठी