Sunday 29 June, 2008

समा गया थोडे-से प्यार में ज्यादा-सा जादू

‘थोडा मैजिक थोडा प्यार’ यूँ तो बच्चों की फिल्म है और बच्चों के लिए काफ़ी मज़ेदार भी है, पर उसकी शुरुआत होती है- फ़िल्म के नायक, बडे नामी बिजनेसमैन रनवीर तलवार (सैफ़ अली ख़ान) के गुस्से (न जाने क्यों?) व उसकी कार के हादसे से, जिसमें एक दम्पति की मृत्यु हो जाती है...। वैसे तो पूरा शहर, लेकिन ख़ास तौर पर पूरा मीडिया घोर शंका से आतुर है कि इस अमीरज़ादे को छोड देगा जज। पर वह तो अद्भुत फ़ैसला देता है- मृत दम्पति के चारो बच्चों को अपने घर में साथ रखकर श्री तलवार लालन-पालन करें...। और अब बच्चे तो बच्चे - वो भी फिल्म के बच्चे !! फिल्मी न होते, तो ऐसे दुखद समय में केस के दौरान अपने घर देखभाल के लिए आयी मौंसी-चाची-बुआ आदि को तूफ़ान-मस्ती करके भगा न देते... फ़िर माँ-बाप की मृत्यु के जिम्मेदार रनवीर के साथ क्या नहीं करेंगे...? उसे तंग करने की सारी बदमाशियों का नेतृत्व बडा बच्चा वशिष्ठ (अक्षत चोपडा) करता है...जिसमें इरादा तो बदले का है, पर तरीका बच्चा दर्शक वर्ग के मनोरंजन का ...। लेकिन यहाँ तक की तिहाई फिल्म में तो न प्यार है, न जादू...। वो आता है- भगवान (ऋषि कपूर) द्वारा इनमें मेल कराने के लिए गीता (रानी मुखर्जी) नाम से भेजी गयी परी के साथ...। सो, आगे की फिल्म परी-कथा है। सबकुछ जादू से होता है, जिसमें बच्चों के मुताबिक बहुत कुछ शामिल है...। इन तरीकों के परिणाम का तो पता था ही - सबकी दोस्ती व रानी से सैफ़ का प्यार...। सो, हुआ । और अंत के थोडे-से प्यार में समा गया - फिल्म के 55% हिस्से का यह जादू, 25 प्रतिशत शरारतें और थोडा-सा रोना-धोना भी...। इस प्यार पर कुर्बान होकर भगवान भी परी को धरती पर छोड देते हैं...सब खुश...। लेकिन इस बीच बच्चों के साथ आने वाले बडों के लिए कुछ है। सैफ़ की प्रेमिका के रूप में अमीषा पटेल रखी गयी है, जिसका अमीरी से बना गधापन (स्टुपिडिटी शालीन होता !) तो बच्चों का है, पर फिल्मकारों ने उसे महज कटि-वक्ष पर दो कसमसाते टुकडे (वही ‘टाइट टू पीस’) के साथ दर्शनीय बनाया है बडों के लिए। ज्यादा रसिकों के लिए उस पर नंगानाच (वही आइटम सांग) भी। दिल्ली-आधारित कहानी फिल्माने में विदेश हैं, और एक बार कहानी भी ‘लॉस एंजिल्स’ जाती है, जब सैफ़ के सौदे के बहाने बच्चों के साथ उसकी पूरी दोस्ती होती है। इनमें सधे कैमरे से कैद की गयीं ख़ूबसूरत दृश्यावलियां भी बडों को रुचेंगी। दो गीत तो ज़रूर सबको भायेंगे, पर असल में लुभायेगी बंगाली बाला रानी मुखर्जी ही - सैफ़ तो झींकते लगे इसमें मुझे। और सच का मज़ा तो बच्चों के सहज अभिनय का ही है - एक से बढकर एक। सब अपने काम व चरित्र की माँग पर सटीक...। और सब पर निर्देशक कुणाल कोहली की मनचाही पकड एकदम सही । किसी को राजेश खन्ना अभिनीत ‘दुश्मन’ की याद आ जाये, तो ताज्जुब न होगा... बच्चों के लिए तो उपहार है ही, बडे भी उनके साथ बोर न होंगे, वरन् फिल्म के आदर्शों-नसीहतों को समझाने के लिए उपयोगी ही होंगे... - सत्यदेव त्रिपाठी

Sunday 22 June, 2008

दे ताली

ताल ठोंकते-ठोंकते... हो गयी ‘दे ताली’... एक लडकी मम्मो (आयशा टाकिया) और दो लडके - पगलू (रीतेश देशमुख) व अभि (आफ़्ताब शिवदासानी)...लेकिन ‘एक फूल दो माली’ नहीं.. वैसे साँचे अब नहीं रहे - न जीवन में, न फिल्म में। आफ़्ताब तो हर दिन एक लडकी को दिल दे बैठता है - 31 का आँकडा है फ़िल्म में। सो, हम आयशा-रीतेश को फूल-माली समझने लगते हैं कि तब तक रीतेश को आयशा से कहते पाते हैं - यार, तू उससे (आफ़ताब) प्यार करती है। इसमें आफ़्ताब के अमीर बाप (अनुपम खेर) का भी बडा मनोरम योगदान है। वह भी हमारी तरह पुराना आदमी है। नहीं जानता कि अब के युवाओं में दोस्ती व प्यार के बीच की लाइन बहुत बारीक हो गयी है। ख़ैर, बात संकेतों में आफ़्ताब तक पहुंचा दी गयी है और पापा की पार्टी में वह अपनी प्रिय जीवन संगिनी ( वही स्वीट हॉर्ट लाइफ़ पार्टनर) की घोषणा करने वाला है। आयशा-रीतेश के साथ हम भी दिल थामे बैठे हैं। कोई बेताब दर्शक बोल पडता है- ‘मम्मो को बताने के लिए आईना लेने गया है’, पर तब तक वह एक अदद लडकी लिए आ जाता है- कार्तिका (रीमा सेन)। अब आगे समूची फिल्म की कर्त्ता यही कार्त्तिका हो जाती है... जब कोई खलनायक न हो, तो ग़लतफ़हमी या नियति को ही वह भूमिका निभानी पडती है। मम्मो-पगलू को कार्त्तिका पर शक़ हो जाता है। वे दोस्त को बचाने में जुट जाते हैं। धीरे-धीरे राज़ खुलता हैं...कार्त्तिका की नियति है - गरीब और सनकी माँ-बाप, जिनसे व जिनकी करायी शादी से भागकर वह कई को अपने रूप-जाल में फँसाकर काम निकलने के बाद शराब में ग़र्क़ कर आयी है और अब अंजलि से कार्त्तिका बनकर पूरी पहचान ही बदलकर अमीरज़ादे अभि को फाँस रही है। पर कुचक्र ऐसा मजबूत रचती है कि अभि अपने 14 साल के दोस्तों को फटकार देता है। हारकर ये दोनो शादी के पहले कार्त्तिका का अपहरण कर लेते हैं। कार्त्तिका-वियोग से उबारने के दौरान मम्मो कामयाब हो जाती है- अभि को अपने में अनुरक्त करने में। और इधर आधी फिल्म भर पगलू के घर में बँधी कार्त्तिका से ताल ठोंकते-ठोंकते कब दोनो ‘दे ताली’ कर लेते हैं, का पता उन्हें भले देर से चला हो...विज्ञापन बता चुके हैं हमें हॉल में आने के पहले ही। रही-सही कसर साज-सँभार के दृश्य पूरी कर देते हैं। एक संवाद का सवाल था - कार्त्तिका की पहली शादी का तलाक भी हो जाता है...याने सब सुखी। नियति के खेल से बने राज़ के बनने-खुलने व रक़ीबों की होड और दोस्त के प्रति वफ़ादारी के साथ मौज-मस्ती के बीच अच्छा टाइमपास भी हुआ। इस बीच यह हास्य फिल्म रही कि नहीं, देखकर ही जानें...। और सुनें मौजूँ व मनभावन गीत-संगीत। कारग़र व मज़ेदार संवाद- पगलू के कहे विशेषण खास रोचक । पटकथा अवश्य ढीली-बिखरी-सी, पर ई निवास के निर्देशन की पकड एकदम फ़िट- दृश्यों के कट व जोड तो ग़ज़ब के। कुछ दृश्य तो बडे ही जानदार । पर इसी मोह में फिल्म लम्बा भी गयी। बहुत छोटे में अनुपम खेर व पगलू के मकान-मालिक के रूप में सौरभ शुक्ला का बेहतरीन उपयोग। मुख्य भूमिका में चारो ही सही...अभिनय में सटीक, पर पगलू के किरदार में काफी विविधता, जिसे अच्छा निभा पाने में अलग से उभरी - रीतेश की क्षमता...। - सत्यदेव त्रिपाठी

Sunday 15 June, 2008

मेरे बाप पहले आप्

हास्य के साथ ‘कुछ और’ की खिचडी - काफ़ी फ़ीकी... यदि सिनेमा हाल में घुसते हुए प्रियदर्शन (लेखक-निर्देशक) मिल जायें, तो आप यही कहके उन्हें आगे कर सकते हैं- पहले आप। फिर दोनो पूरे तीन घंटे (हॉय, सम्पादित क्यों न किया या..र) बैठ पायें, तो निकलते हुए पूछिए कि वे क्या बनाना चाहते थे - कॉमेडी या कुछ और...! कॉमेडी को सस्पेंस में खत्म करने वाली ‘चलती का नाम गाडी’ जैसी बेहतरीन फिल्म का उदाहरण है। और प्रियदर्शन को समापन नहीं आता, इसका प्रमाण उनकी सबसे अच्छी फिल्म ‘हेराफेरी’ भी है- याद कीजिए वो झटके लगांने वाला उबाऊ दृश्य। फिर तो सबमें है...। शायद इसीलिए उन्हें ज़रूरत पडी- ‘कुछ और’ की, जो कॉमेडी पर भारी पडता गया और कथा में उसे बुनने की प्रक्रिया में हास्य (पर ध्यान) कम होता गया, जो उनकी ख़ासियत व मशहूरियत हैं। ठीक ध्यान होता, तो राजपाल के किरदार को एकदम ही फ़ालतू न होने देते...शोभना को ‘शोपीस’ न बनाकर उनकी क्षमता लायक कुछ कराते...। उधर ओमपुरी के किरदार पर ऐसा ध्यान दिया कि पचासे की उम्र में पूरी फिल्म शादी के लिए लडकी खोजने में भटकाते रहे, जो अच्छा हास्य तो शुरू में भी नहीं बना, आगे तो बोरियत की हद तक एकरस (मोनोटोनस) हो गया। इसी ‘कुछ और’ ने परेश रावल के किरदार को गम्भीरता की टोपी पहना दी और दर्शक ठहकेदार हास्य से महरूम रह गया...। हालाँकि जो दिया गया, उसे करने की जीतोड कोशिश दोनो ने की, पर ‘बिगडी बात बने नहीं, लाख करे किन कोय’... और यह सब कर देने वाला वह ‘और कुछ’ कथा के बाहर भी तमामों को काफ़ी नाग़वार गुज़रा है। क्योंकि वह बहुत सही है, बहुत प्यारा है; पर ग़ैर पारम्परिक है। बचपन से एक दूसरे के जानू-अनु (जनार्दन-अनुराधा) रहे परेश रावल-शोभना का साठ साल की उम्र में मिलन व विवाह, जिसे कराते हैं जानू के सुपुत्र गौरव (अक्षय खान्ना) और अनु की पुत्रीवत शिखा (जिनेलिया डिसोज़ा)। फिर ये हीरो-हिरोइन हैं। सो, अपनी शादी के पहले यह शादी कराते हैं। बेटा कहता भी है- ‘मेरे बाप, पहले आप’। पर शीर्षक गीत ‘बाहर’ का पर्दा खुलने के बाद क्यों शुरू होता है? हीरोगीरी तो यहाँ तक है कि प्रेमिका के बाप (नसीरुद्दीन शाह) की खास अदा में शादी तोडने की धमकी के बावजूद अपने प्रेम को कुर्बानी की कीमत पर भी बेटा यह कराता है। इस त्याग भाव पर हिरोइन के (सच्चे फिल्मी) बाप को मानना ही था। बडा बेटा चिराग (मनोज जोशी) भी हिन्दी फिल्मों की रूढिगत कुलटा पत्नी को फिल्मी तमाचा मारकर शादी में शामिल होता है। इसी सब फिल्मी लटकों व हास्य के दोराहे में इस मह्त्त्वपूर्ण ‘और कुछ’ को निखरने नहीं दिया। बेटे की तरह बाप के रख-रखाव के बेहतरीन आइडिया को तो लोग हास्य समझते रहे। फिल्माया भी गया हीरोगीरी के साथ। सो, फिल्मी होकर रह गया। याने ‘कुछ और’ ने ‘हास्य’ को भटकाया -बिखेरा और हास्य ने इसे दबाया, धूमिल किया - ना ख़ुदा ही मिला, ना बिसाले सनम...। हाँ, इस थीम के पहले हीरो-हिरोइन की लॉग-डाँट में लिपटी लुकाछिपी से बनी चौथाई फिल्म में तथा बूढे प्रेमी-प्रेमिका को मिलाने के फोन वाले कल्पनाशील दृश्यों में निर्मल हास्य बना है। अक्षय खन्ना तो नया कुछ नहीं करते, पर नयी आयी जिनेलिया का तो सब नया है ही, थोडी ही देर में वह मुग्ध भी कर लेती है। पूरी फिल्म में लडकियों को छेडने के नाम पर दोनो दोस्तों - परेश व ओमपुरी - को पकडते हुए और ओमपुरी से उठाबैठक कराते हुए पुलिस इंस्पेक्टर बनी अर्चना पूरन सिंह कब ओमपुरी की खोज का नतीजा बन जाती हैं, दर्शकों को जैसे जाते-जाते ही मालूम पडता है, उसी तरह शायद प्रियदर्शन को भी बाद में ही किलका होगा...। सबसे बडी बर्बादी तो पुराने ज़माने के परेश-शोभना के प्यार के नग़मे की उछलकूद वाले नाच के फिल्मांकन में हुई है। भाई प्रियन, कुछ तो प्रिय दर्शन रहने देते... - सत्यदेव त्रिपाठी

Saturday 7 June, 2008

satyadev tripathi: माँ इसे देवी कहती... (समापन किस्त...)

satyadev tripathi: माँ इसे देवी कहती... (समापन किस्त...) प्रियवर बेनामजी, आशीर्वचनों के लिए बारम्बार शुक्रिया...! कहीं बहुत गहरे चुभी होगी देवी, तभी अपनी असलियत के साथ प्रकट हुए आप...। आप को लगी चोट के लिए खेद सहित - स.त्रि.

satyadev tripathi: cinema

satyadev tripathi: cinema अनाम महोदय, सही श्लोक भी लिख ही देते ! ग़लती किससे नहीं होती ? स. त्रि.

Friday 6 June, 2008

cinema

‘सरकार राज’ की ‘सरकारी’ के सबब.... रामगोपाल वर्मा की ‘सरकार’ में एक व्यापारिक प्रकल्प को रोकने में सुभाष नागरे (अमिताभ बच्चन) घायल होते हैं। बेटा शंकर नागरे (अभिषेक बच्च्न) उन सबको मार डालता है। अब इस ‘सरकार राज’ में एक बिजली उत्पाद योजना को लगाने में बेटा शंकर नागरे मारा जाता है और तब पिता उन सभी को मरवा डालता है। मुख़्तसर में यही थीम है फिल्म की... और यह पैटर्न वही गॉड फादर का है, जिस वजन पर निश्चित कयास हैं कि तीसरा भाग भी बनेगा, जिसमें पोता चीकू (मुझे चीकू चाहिए- सरकार) होगा और सरकार फिर भी जिन्दा रहेंगे। आख़िर, भीष्मों की परम्परा वाला देश है यह । ख़ैर..., इसी तरह की छोटी-छोटी तमाम आवा जाही देखी जा सकती है... मसलन - उसमें बडा बेटा बाग़ी होता है, छोटे भाई के हाथों मारा जाता है; तो इसमें बेटे सरीखा वफ़ादार सेवक पिता सरीख़े मालिक के हाथों...। विरोधियों में व्यापारियों, गुण्डों, स्मगलरों के साथ बडे-बडे ओहदों पर आसीन राजनीतिज्ञों की मिली भगत दोनो में है...और महाराष्ट्र की भक्ति व सच्ची सेवा की मिश्री तो घुली है ही। कुल मिलाकर सिर्फ़ ‘इस कोठी का धन उस कोठी’ करने के अलावा क्या है? फिर भी फिल्म हिट होगी और इंशा अल्लाह तीन साढे तीन स्टार से नवाजी भी जायेगी...। क्योंकि अमिताभ बच्चन हैं...। और बाला साहेब का ‘सरकार राज’ प्रदेश में हो, न हो; फिल्म में अमिताभ का है। फिर व्यक्तित्वों को बनाना तथा उनके हर सही-गलत की पूजा करना हमारे देश की पुरानी परम्परा है - ‘यत्र कृष्णो, ततो धर्म:’ से लेकर ‘इंडिया इज इन्दिरा’ तक के इतिहास को रामगोपाल वर्मा सरीखे लोग जानते हैं। सतत भुना रहे हैं...। सुभाष नागरे इतने लोगों को खुल्लमखुल्ला मरवा देते हैं इस बार कहा भी - ‘राजनीतिज्ञों के वेश में गुण्डे’, पर हिट... । हाँ, दो राय नहीं कि बस अमिताभ ही हो सकते हैं सरकार। तीन चौथाई फिल्म में उन्हें बेटे के पीछे कर दिया गया था। फिर बेटे को मरवाकर वर्मा ने अमिताभ की सरकारी दिखायी। इस सरकारी के होते हुए भी बेटे के मरने के बाद जागते हैं सरकार !! भाई, सरकार हैं, कोई स्टंट फिल्मों के विलेन तो नहीं कि बेटे को बचाने के लिए चीखें...? ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि जो बहू के मरने के बाद दिल के दौरे का शिकार हो जाता है, बेटे की मौत के बाद पहलवान होकर एक-एक को मरवा कैसे सकता है - सरकार जो ठहरा - ‘समरथ के नहिं दोष गुसाईं’ । दो-दो एकालापों में भी सरकारी सर चढकर बोली, पर फिल्म मुँह के बल गिरी- वह सब कुछ तो फिल्म को करके दिखाना चाहिए था...लेकिन सरकार ही तो फिल्म हैं- इन्दिरा इज़ इंडिया। और जब “गॉड फ़ादर’ ही नहीं बताती कि साराकुछ कारनामा होता कैसे है, तो वर्मा क्यों बतायें कि आख़िर किस बल पर शंकर नागरे क्या कुछ करता है, जो बाप से आगे व प्रदेश का भविष्य हो गया है। जैसे अभिषेक की भूमिका प्रायोजित है, वैसे ही अभिनय भी प्रक्षेपित (प्रोजेक्टेड) । और ऐश्वर्या को तो बस, दो लाख करोड वाली परियोजना की फाइल पकडाकर अभिषेक को निहारना भर था, जो अच्छा करती है वह। शालीन लिबास में खिलती भी है। परियोजना में इफ़रात बिजली से महाराष्ट्र का विकास होना है, पर 40 हजार लोगों को उजडना है, जिनके पुंनर्वास पर कुछ नहीं कहती फिल्म...बस, विरोध में प्रांत के अति मानिन्द राव साहेब को अपने बच्चे के लिए खूनी राजनीति का खेल खेलने वाले आज के नेताओं के साथ खडा करके उस ज़माने को भी नाहक दाग़दार बना देती है। परंतु राव साहेब बने दिलीप प्रभावलकर अपनी खास आवाज व निराबानी अदा से अभिनय मूल्यों को अवश्य खूब ऊंचा उठा देते हैं...। पॉवर प्लांट के बहाने पॉवर पॉलिटिक्स का यह खेल ही खेलना था, जिसके लिए सब दोयम दर्जे के विलेन (गोनिन्द नामदेव ...आदि) तो ठीक, पर सभी कैरिकेचर क्यों बन गये है वर्माजी ? क्या स्टाइल मरवाने के चक्कर में ? या आपको सीरियलों का बालाजी बनना है...? -सत्यदेव त्रिपाठी

Thursday 5 June, 2008

अरे, जा रे ज़माना

‘तीसरी कसम’ का गँवई नायक हीरामन बात-बात पर कहता है- ‘अरे जा रे ज़माना’...। आज कदम-कदम पर हमारा भी मन जमाने के लिए यही कहता है... ...अभी चार दिन पहले की बात है- हमारी बगल वाली बिल्डिंग में एक 58 वर्षीय आदमी को दिल का दौरा पडा। वह एक कॉलेज में प्राध्यापक है । शादी नहीं की है और अपनी अविवाहित बहन के साथ बँगले की पहली मंजिल पर रहता है। दौरे के दौरान वह फ़र्श पर गिर गया, उल्टियां होने लगीं..। पास-पडोस में किसी से ताल्लुक नहीं। भाई को उठाने में अकेली बहन असमर्थ...किसको बुलायें? तल मंजिल पर सगा बडा भाई रहता है। सम्पत्ति को लेकर केस चल रहे हैं। बातचीत बन्द है। उसे बुलाया नहीं। दूसरा भाई चार किमी की दूरी पर है। उसे फोन किया। पर आया वह तीन घंटे बाद...। तब एम्बुलेंस आयी। वह अस्पताल गया। नीचे से बडे भाई के परिवार ने देखा, पर घर से बाहर न निकला...। ....और यह सुनकर मेरे मुँह से बेसाख़्ता निकल पडा- अरे, जा रे ज़माना...! न निकलता... पर इसलिए निकला कि मैंने देखा है- दो पट्टीदारों में सम्पत्ति को लेकर पुश्तैनी मुकदमे चल रहे हैं। रात के आठ बजे एक को साँप काटने की चिल्लाहट होती है और सबसे पहले वही पट्टीदार आता है। पाँव में गमछा बाँधता है, ताकि ज़हर का ऊपर चढना रुका रहे। और तुरत अपनी सायकल पर लेकर इलाज़ के लिए चल पडता है - गोया दोनो में कभी अदावत रही ही नहीं...। पहला भी सहर्ष उसकी सेवाएं लेता है, क्योंकि वह भी जानता है कि वक्त पर ऐसा करने से वह भी बाज नहीं आयेगा...। यह तो मेरी जवानी के दिनो की बात है - दस साल पहले की। लेकिन यह सुनकर मुझे अपने बचपन की घटना याद हो आयी थी, जब मेरे बडे बाबूजी के दोस्त, जो पट्टीदार थे, खेत व घर के ज़मीन का मुकदमा लडने जिले की कचहरी जाते थे और आते-जाते रातों को मेरे घर ठहरेते, क्योंकि उनके घर यातायात के साधन से 15 किमी दूर थे, जहाँ से वे चलकर आते थे। दोनो साथ आते-जाते, साथ में बैठकर खाना खाते और यदि केस के खर्च के कारण एक के पास पैसे कम पड जाते, तो दूसरा उसे भाडे-किराये का पैसा भी देता... याद आना स्वाभाविक है महाभारत का भी, जहाँ राज्य के लिए दिन भर हर तरह की मार-काट मची रहती थी, पर सूर्यास्त के बाद सब एक दूसरे के शिविर में आते-जाते ही नहीं, खाते-पीते भी थे। पाण्डवों ने युद्ध के बाद कौरव-भाइयों का भी दाह-संस्कार किया था। इन्हीं संस्कारों से बनी मेरी समझ को ताज्जुब हुआ और निकल पडा- ‘अरे, जा रे जा रे ज़माना’ ...! वो संस्कार कहाँ चले गये ? क्यों मर गये... ? सोचता हूँ - शहर के ये बहुत ज्यादा पढे-लिखे लोग सही हैं.. या गाँव के वे कम पढे लिखे लोग...? इनकी निजता सही है या उनकी सामाजिकता ? दुश्मनी की हद में मनुष्य को जिन्दा रखना सही है या दुश्मनी के नाम पर अहम की ज़द में इतना अ-लगाव ? ये लोग शायद उस व्यवहार को पाखण्ड कहें - कि जब मुकदमा चल रहा है, बातचीत बन्द है, तो मदद करना एक नाटक है...। अब आप भी सोचें कि वह नाटक है या यह अमानवीय ? पर मैंने उस पट्टीदार से पूछा था ...। उसने अकुंठ भाव से बताया था- मुकदमे की बात और है... फैसला होगा, तो जायदाद मिलेगी या नहीं, पर रहना तो साथ ही है। दोनो के दुख-सुख में तो साथ ही है...। भाई, लडने के लिए भी दोनो को रहना है...। लेकिन इनसे तो पूछने की हिम्मत भी नहीं । न जाने क्या कह दें - ‘आपसे मतलब ? हमारी जिन्दगी है... मरें या जियें । जिससे केस है, बात नहीं है, उसकी मदद लेने से बेहतर है- मर जाना’...। पडोसी के नाते मेरा भी बडा मन था कि देखने जायें...। पर अपने घर में काम करने वाली बाई, जो वहाँ भी करती है, ने बताया- वे नहीं चाहते कि कोई देखने आये। सो, हिम्मत नहीं पडी। कहते हैं- इस दुनियादारी का क्या मतलब ? रोमैंटिक आन्दोलन की शुरुआत में ‘द वर्ल्ड इज़ टू मच विद अस’ (दुनिया बहुत-बहुत मेरे साथ है) की वैयक्तिकता भी थी, पर उसका मक़्सद भी मनुष्यमात्र से कटकर अकेले हो जाना तो नहीं रहा होगा...! वे सज्जन बहन से भी कहते हैं - यहाँ तो नर्सेज हैं देखभाल के लिए। तुम क्यों आती हो’? पर बहन जाती है। उसका भी मामूली-सा तर्क है - उसके बिना पूरा घर कैसा तो लगता है ! याने भाव भाई के जीने के प्रति नहीं, अपने होने के लिए है...। और वह भाई, जो छोटे भाई को एम्बुलेंस में जाते देखकर भी घर से न निकला..., जाने क्या कहे... !! दुष्यंतजी को क्या पता थ कि जो शेर वे शहर के लिए लिख रहे हैं, कभी भाई के लिए भी सच हो जायेगा - ‘इस शहर में अब कोई बारात हो या वारदात ; अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिडकियां’ । सोच के दायरे से बाहर वह भाई भी नहीं, जिसने कार से 5 किमी आने में तीन घंटे लगा दिये...! बस, समझ में एक बात आयी कि यदि ऐसे जीना है, तो दिल को इतना मज़बूत होना होगा कि वह भीषण दौरे को भी तीन-चार घंटे सह ले, वरना तो एक मिनट भी सम्भव नहीं होता...। - सत्यदेव त्रिपाठी

Sunday 1 June, 2008

हँसते हँसते

“हँसते-हँसते’ में बैठना ‘फँसते-फँसते’ बन गया....” ‘हँसते-हँसते’ जैसा नाम...व कलाकारों में राजपाल यादव। हास्य-विनोद का अन्दाज़ हुआ था। और यही सबसे बडे धोखे निकले। न फिल्म में कुछ हँसते-हँसते होता, न एक बार भी हँसी आती। हँसाने के नाम पर बाप-बेटे-चाच की तेहरी भूमिकओं में राजपाल जो कुछ करते हैं, बेहद बचकाना व फ़ालतू है। अभिनय तो कार्टून जैसा करते ही हैं वे, यहाँ चरित्र भी कार्टून ही हैं। सबसे अधिक कार्टून वो मुख्य भूमिका है, जिसमें वे विदेश में पढने गये हैं और हर लडकी से परिचय के दौरान ही चिपक जाते हैं। कूदकर होठों पर ‘पुच’ कर देते हैं। क्या लडकियां वहाँ इतनी बेवक़ूफ़ हैं! बिज़्नेस की गम्भीर बात चल रही है और ज़नाब खुलेआम लटपटाये जा रहे हैं। ऐसे ही खराब काम करते रहे, तो वो नाम मिट्टी में मिल जायेगा, जिसके कारण इतने रोल में आधी फिल्म को अकेले घेरे हुए हैं। उत्सुकता रही टोनी नामक जीव को लेकर भी, जो निर्माता से पहली बार निर्देशक बनकर अवतरित हो रहा था। पर वह बन्दा फिल्म के किसी पहलू को लेकर कुछ भी उल्लेख्य न कर पाया । सबकुछ हो जाने पर जब दर्शक जाने के मूड में हैं, नायक-नायिका के एक दूसरे को ढूँढने में 15 मिनट का फूटेज खाते हैं.. ऐसा ही सब कुछ है..। कहानी तक कुछ नहीं है। बस, विदेश के दृश्य फिल्माये हैं और वे भी बिना किसी कल्पना या संगति के । प्रेम दृश्यों में मिलते ही बस, गरदन पकडकर झूल जाना व गिर जाना भर है - गिरती ही चली जाती है फिल्म भी। जगह-जगह गीत भरे हैं और एक शीर्षक गीत के अलावा एक भी किसी अर्थ का नहीं। मन को छू ले, ऐसा एक भी नहीं । हाँ, जिम्मी शेरगिल के काम की सफाई के साथ नयी अभिनेत्रियों के नाम से जो आस थी, वह ठीक होती, यदि उन्हें कुछ करने-कराने को मिलता। कहानी का नायक होने के बावजूद जिम्मी को नहीं मिलता - राजपाल से इतनी अभिभूत है फिल्म । फिर भी जितना मिला है, अच्छा किया है। उससे सच्चा प्रेम करने में निशा रावल व उस पर अनायास फ़िदा होकर न पाने पर बदला लेने में मोनिष्का को जो करना था, ठीक ही हुआ है। शक्ति कपूर को ज़ाया किया गया है। और बेज़ा तो बहुत कुछ है, जिसे अब दिखाये जाने के बाद फिल्म वालों के लिए भी भूल जाना ही बेहतर है... - सत्यदेव त्रिपाठी