Friday 15 July, 2011

पर्यावरण और रंगमंच्

पर्यावरण और नाटक.... - सत्यदेव त्रिपाठी


पर्यावरण पर आयोजित सेमिनार में ‘नाटकों में पर्यावरण’ पर मुझे बोलना है, जानकर सोचना शुरू करते ही मेरी ज़ेहन में उभरी- नृत्य-नाटिका ‘प्रकृति’, जिसका शो मुम्बई में मैरीन लाइंस के समुद्र-तट पर स्थित भव्य ‘टाटा थियेटर’ में हुआ था और प्रकृति की भूमिका की थी नामचीन फिल्मनेत्री व कुशल नृत्यांगना आयशा ज़ुल्का ने। उन्हीं का निर्देशन भी था और उन्हीं की कथा-संकल्पना भी। लेकिन दिमाँग पर बहुत ज़ोर डालने के बावजूद उसमें आज के प्रचलित पर्यावरण – याने पर्यावरण-प्रदूषण या पर्यावरण-रक्षण - जैसा कुछ याद न आया। वह तो एक अनाथ लडकी के नृत्यांगना बनने की कथा थी। बस, प्रकृति की मनोरम छ्टायें अवश्य थीं मंच पर, जिसमें ‘प्रकृति’ नाम को सार्थक करती पली-बढी थी वह लडकी। याने ‘प्रकृति’ नाम भर से ही उसकी याद आ गयी थी...।

और फिर बहुतेरे नाटकों के बारे में सोचा, लेकिन कुछ भी पर्यावरण-प्रदूषण-रक्षण...जैसा याद न आया। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि नाटकों में ऐसा होगा ही नहीं, पर मेरे संज्ञान में नहीं आया- सिवाय कुछ पथ-नाट्यों के, जिनमें बतौर सूचना, प्रचार कोई सन्देश होता है - सुधार की सीख या नसीहत जैसा... और जिसके विषय होते हैं - सूखा-बाढ, पानी की बर्बादी, पेडों-जंगलों का कटना, नदियों-तालाबों का पटना, सफाई के अभाव में गन्दगी से फैली बीमारी व उससे बनती-बढती बर्बादी... आदि। लेकिन ये पथ-नाट्य नाटक-विधा के प्रमुख आयाम नहीं हैं। निर्मिति-प्रस्तुति व प्रसार-प्रभाव... याने प्राय: उनका सबकुछ फौरी हुआ करता है, जिससे बाद में कुछ भी याद नहीं रह जाता।

फिर नाटक के अलावा उपन्यासादि विधाओं पर भी नज़र दौडायी और वहाँ भी ऐसा ही पाया। इसका अर्थ यह कि पर्यावरण उस रूप में साहित्य में आ ही नहीं सका है, जैसा कि ‘एनजीओज़’ द्वारा लिये गये प्रकल्पों व मीडिया के बरक्स जीवन में तो नहीं, फ़िज़ाँ – वही पर्यावरण में - आज छा गया है, जिसका एक रूप यह सेमिनारी आयोजन भी है। तब मन में बात उठी कि न सही पर्यावरण; ऐसा क्या है, जो साहित्य में उसी रूप में आता है? दर्शन तक को भी साहित्य शुद्ध दर्शन की तरह कहाँ लेता है? याने साहित्य सबकुछ को अपनी तरह लेता है।

और इससे भी बडा सच यह है कि जो कुछ भी दुनिया और जीवन में है, वह सब किसी न किसी रूप में साहित्य में प्रतिबिम्बित होता ही है। तो पर्यावरण भी हुआ ही होगा। तो किस रूप में हुआ? फिर साहित्य के मूर्त्त रूप नाटक की तो एक अपनी ही दुनिया होती है – नेपथ्य की भी और मंच की भी। तो पर्यावरण इस दुनिया में भी आया ही होगा – वही कि किस रूप मे...?

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इसी पर सोचते हुए ‘अभिज्ञान शाकुंतल’ की याद हो आयी, जिसमें शकुंतला भी उक्त प्रकृति की तरह ही प्रकृति के बीच पली-बढी, उसी से समरस हुई, प्रकृति के फूल-पत्तों के गहने पहने दिखी और सुनायी पडा कि उसे पति-गृह के लिए विदा करते हुए पिता ऋषि कण्व उसी प्रकृति से कह रहे हैं- “पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्माष्व पीतेषु या, ना दत्ते प्रिय मण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम्।

आद्ये व: कुसुम-प्रसूति समये यस्या: भवत्युत्सव:, सोइयं शकुंतला पति-गृहं याति सर्वैरनुज्ञायताम्”।

याने उस समय वनप्रांतर में प्रकृति के साथ ऐसी समरसता !! पौधों को पानी पिलाये बिना शकुंतला स्वयं पानी नहीं पीती, अपने शृंगार के लिए प्रिय होने के बावजूद स्नेह के कारण उनके पल्लवों को नहीं तोडती, उनका कुसुम-प्रसव ही शकुंतला का उत्सव होता, तो फिर इतने प्रियतों को बताये बिना उस बेटी को ऋषिवर कैसे विदा कर देते? ऐसी समरसता, ऐसा स्नेह तो आज भरे जीवन में मनुष्य-मनुष्य के बीच भी नहीं रहा। मनुष्य जिस तरह प्रकृति को काट रहा है, उसी तरह अपनों को भी। क्या पर्यावरण की समस्या इसी वृत्ति के कारण तो नहीं आ रही है। फिर उनके लिए प्रोजेक्ट ले-लेकर

कमाने के लिए जो कुछ हो रहा है, क्या उससे कोई समस्या हल होने वाली है? ऐसी शकुंतला को कम से कम पढा तो जाये, तो कुछ मानसिकता तो बने- पर्यावरण बनने की बात तो दूर...!

चलिए कालिदास से थोडा और पीछे चलें भास की तरफ... शकुंतला तो ख़ैर वन में ही पली-बढी थी- वनहित कोल-किरात किसोरी’ जैसी, लेकिन ‘प्रतिमा नाटकम्’ की सीता तो महलों से वन में गयी थी। लेकिन कितनी समरस हो गयी? कवि कहता है-

“योsस्या: कर: श्राम्यति दर्पणेपि, स नैति खेदं कलशं वहंत्या:।

कष्टं वनं स्त्रीजन सौकुमार्यम्, समं लताभि: कठिनी करोति”॥

ऐसी महिमा प्रकृति की कि लताओं की तरह ही स्त्री-सौकुमार्य को भी कठिन बना देती है, जिससे वह सीता भी भरा कलश ढोने लगती है, जो महलों में कभी दर्पण उठाने में भी थक जाती थी। क्या आज का एनजीओ मालिक वहाँ जाकर ऐसी समरसता, ऐसी शक्ति पाना चाहता है? फिर एसी में बैठकर दूर से पर्यावरण की समस्या कैसे हल होगी?

मेरे ख्याल से पर्यावरण के लिए कार्य करने वालों को ये नाटक पढने चाहिए।

मुझे लगता है कि कुछ-कुछ स्पष्ट हुआ कि साहित्य किस रूप में लेता है चीज़ों को....और पर्यावरण किस रूप में आया है प्राचीन नाटकों में, जो आज के पर्यावरण के सन्दर्भ में कैसे पढे जा सकते हैं। और आज के पर्यावरण-विदों को बताता भी है कि पर्यावरण को मुक्त करने के लिए शकुंतला की तरह पर्यावरणमय होना पडेगा, सीता की तरह पर्यावरण को अपनाना होगा, क्योंकि –

‘न हम कुछ हँसके सीखे हैं, न हम कुछ रोके सीखे हैं; जो कुछ थोडा-सा सीखे हैं, किसी के होके सीखे हैं’, लेकिन इस प्रक्रिया व सच को भूल चुकी है आज की दुनिया, जो सर काटकर बालों की रक्षा कर रही है!!

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इसी भूलने का परिणाम है कि आज हम प्रकृति का दोहन कर रहे हैं। पर्यावरण को विषाक्त बना रहे हैं। और भोपाल गैस काण्ड से ज्यादा विषाक्त और क्या हुआ होगा, जिसमें भर शहर का जीवन ही दूषित तो क्या, प्राय: नेस्त-नाबूद हो गया। और उसी शहर में बसे महान रंगकर्मी हबीब तनवीर ने उसी काण्ड पर नाटक बनाया- ‘ज़हरीली गैस’। याने पर्यावरण के परिणाम पर नाटक। लेकिन काण्ड के बाद बना और काण्ड के भेदों को खोलने-बचाने के चक्कर में उलझकर रह गया। हबीब साहब अपनी गीत-संगीत की नाट्यवृत्ति को भूले तो क्या होंगे, विषय के साथ न्याय करने के फिराक़ में उसे नज़रअन्दाज़ किया और परिणाम यह हुआ कि ऐसा अक्षम मंच हबीब साहब का कभी न रहा। याने यदि साहित्य या नाटक या कला किसी थीम को व्यक्त करने में अपनी प्रकृति को छोडेगी, तो थीम तो छूटेगी ही, कला भी जाती रहेगी। याने जिस तरह ऊपर उद्धृत नाटकों में पर्यावरण को प्रकृति और उसकी समरसता के रूप में लिया गया है, साहित्य के लिए वही वरेण्य है।

और देखिए जब उसी रूप में हबीब साहब ने शेक्सपीयर के ‘मिड समर नाइट ड्रीम’ पर बने ‘कामदेव का अपना, वसंत ऋतु का सपना’ में प्रकृति को लिया, तो कैसी बात बनी!! संयोग से मुझे वो देखने को भी मिला – प्रकृति की खुली गोद में- ‘हॉरिमन सर्कल गॉर्डेन’ (मुम्बई) के मुक्ताकाशी मैदान में, जहाँ चाँदनी खिली रात थी, पेड-पौधे थे, लताओं के गुल्म थे, झाडियों के झुरमुट थे... और उसी के बीच पेडों से कूदकर, झुरमुटों से निकलकर आते थे हबीब साहेब के लोक कलाकार – फूल-मालाओं में गमकते प्रकृतिमय होते हुए...। वसंत ऋतु के सपने का ऐसा साकार रूप भला और क्या हो सकता है? स्वस्थ-सुन्दर पर्यावरण तथा उसमें खिले ऐसे खुशनुमा जीवन का इससे अच्छा रूप और क्या हो सकता है? लेकिन यहाँ नीयत नाटक की थी और वहाँ नाटक एक ज़रिया बन गया था।

ऐसी ही जीवंत प्रकृति के बीच बडी खुशी से रहते हैं एक नाना (मशहूर कलाकार के.के. रैना) और उनकी नातिन (मशहूर कलाकार इला अरुण की बिटिया इशिता अरुण)। क्या ही उन्मुक्त प्राकृतिक परिवेश है- थीम का भी और मंच पर लगे सेट का भी। उसमें उतना ही उन्मुक्त नाना-नातिन का हँसता-खेलता जीवन। पर इस सहज पर्यावरण में युवा पीढी के लिए प्रलोभन बनकर आती है शहर से भौतिक समृद्धि की दूषित हवा, जो नातिन को उडा ले जाती है शहर। नाना बेबस देखता रहता है, पर चूँकि यह नाटक है, नातिन लौटकर आती है; क्योंकि शहर का नितांत भौतिक पर्यावरण उसे रास नहीं आता। अपना नैसर्गिक पर्यावरण उसे लुभाता है- ‘हंस-सुता की सुन्दर कगरी अरु मधुबन की छाहीं’ की तरह। और अंत में बुला ही लेता है। लेकिन वास्तविक जीवन में ऐसा कहाँ हो पाता है? कोई नहीं लौटता- ‘जो जो गये बहुरि नहिं आये, पठवत नाहिं सँदेस’। इसीलिए तो लौटने की बात करते हैं ये कलारूप- उस खोते जाते जीवन-रूपों का स्मरण दिलाने के लिए।

कालिदास (आषाढ का एक दिन) भी तो लौट आया था। उसे भी क्षिप्रा का किनारा, उज्जयिनी का प्रांतर – पहाडियां, वर्षा और मिट्टी - तथा हिरण व मल्लिका की आँखें भुलाये नहीं भूलीं। बुलाती रहीं। और राजधानी की गन्दी-स्वार्थी राजनीति - बतर्ज़ ‘यह मथुरा काजर की कोठरि’- बहुत सालती रही। पर आकर भी रह नहीं पाया। क्योंकि प्रांतर तो नहीं, मल्लिका की आँखों को मज़बूरन किसी और की तरफ़ झुकना पडा था और कालिदास के मन में प्रांतर से अधिक गहरे धँसी थीं मल्लिका की आँखें। तब साहित्य का एक और आयाम खुलता है कि साहित्य के केन्द्र में है मनुष्य और उसके सम्बन्ध। शेष सब उसका माध्यम होता है। अत: पर्यावरण को केन्द्र में रखकर नाटकों की तलाश उलटा रास्ता है। मनुष्य से कटकर साहित्य में पर्यावरण नहीं आ सकता – अन्य विषयों में भले आये। इसी द्व्न्द्व में ‘ज़हरीली गैस’ बिगडा। इसलिए भी सबकुछ को बनाने-बिगाडने वाला होता है मनुष्य। पर्यावरण को पहले बनाता था मनुष्य ही - प्रकृति तो पूरक भर थी। और अब नष्ट भी कर रहा है वही – प्रकृति को नष्ट करके भी और उससे अधिक प्रकृति से इतर माहौल को भी। तो नाटक उसका होता है - होना चाहिए भी उसी का। एक उदाहरण दूँ...?

विख्यात रंगकर्मी दिनेश ठाकुर ने खेला- ‘जिया जाये ना’ – नील साइमन के ‘प्रिज़्नर ऑफ़ सेकोना एवेन्यू’ का हिन्दी रूपांतर। उस मूल का शहर न्यूयार्क या कुछ रहा होगा, लेकिन ‘जिया जाये ना’ तो मुम्बई नगरिया का सच है, जहाँ मनुष्य ने माहौल की ऐसी बर्बादी की है कि पाँचवीं मंजिल तक भरता कचरा भरा है। किसी भी समय बिजली-पानी का कट है। नीचे कुत्तों का शोर है। बगल में वेश्यावृत्ति का धन्धा है। कभी भी नौकरी जाने का डर है...। ऐसे में अच्छा-भला आदमी पागल हो जाता है। क्या यह पर्यावरण-प्रदूषण नहीं है? लेकिन आज के ‘पर्यावरण’ की अवधारणा में यह नहीं आता, क्योंकि इसमें पेड-पौधे, फूल-पत्तों वाला जंगल नहीं है। यह तो आदमी का जंगल है और वह आज के ‘पर्यावरण’ की ज़द से बाहर है।

पहले जब पर्यावरण नहीं, वातावरण हुआ करता था, तो उसमें यह सब समाहित था। तब साहित्य में ‘देश-काल या वातावरण’ नाम से सबको पढा जाता था। लेकिन अब विशेषीकरण (स्पेशलाइज़ेशन) का ज़माना है। साहित्य में अब ‘देशकाल एवं वातावरण’ के बदले अच्छा शब्द आया है- परिवेश। इसमें भी सब समाहित है। प्रकृति का अलग से विवेचन भी होता था-‘छायावाद में प्रकृति-चित्रण’। और तब सारे प्वाइंट तो जीवन व शास्त्रानुसार होते थे, बस एक होता था- ‘स्वतंत्र रूप में प्रकृति’, जो आज कुछ तकनीकी जोड के साथ पर्यावरण हो गया है। लेकिन व्यापक स्तर पर सामाजिकता के समावेश के चलते स्वतंत्र रूप में प्रकृति का चित्रण अब साहित्य में कम हो गया है। परिवेश का मामला बहुत व्यापक हो गया है। कथा-चरित्र-भाषा... सब परिवेश से संचालित होने लगा है। और ‘जिया जाये ना’ इसी परिवेश का नाटक है।

सभी नाटक क्या, सारा साहित्य इसी परिवेश की मार का सृजन है। सचमुच जिन्दगी के प्रदूषण का यही कारक और कारण है। इसी रूप में वह साहित्य का श्रेय-प्रेय बनता है। वरना विज्ञान, समाज-विज्ञान जैसी ज्ञान-शाख़ाओं की तरह निखालिस पर्यावरण आ जाये. तो साहित्य स्थूल हो जायेगा। साहित्य के अंतर्गत इस सच को समझना होगा। वरना कान लिए जाते कौए के पीछे भागने जैसा मामला बन रहा है...। आइए, इस बातचीत के अंतिम पडाव पर एक विरल व अभिनव रूप में प्रकृति के कारकत्त्व की चर्चा करें। मैं आपको शंकर शेष के ‘अरे मायावी सरोवर’ में ले चलता हूँ...। अपने स्त्री-जनित दायित्त्वों व नारी-प्रकृति की माँगों के चलते राजा के सभी आमोद-प्रमोद में रानी शरीक नहीं हो पाती। राजा इस बात को समझ ही नहीं पाता और रानी की पसन्द पर तान कसता है। और एक दिन ज्ंगल में सुदूर पहुँचकर एक मनोरम तालाब में स्नान करते ही वह स्त्री हो जाता है। यही मायावी सरोवर की माया है। तब वह भी रानी की तरह बहुतेरे आमोद-प्रमोद से दूर रहते हुए स्त्रियोचित जीवन जीने लगता है- याने रानी के सच को समझ पाता है। है न यह सारा मामला पर्यावरण का ?

लेकिन मकसद पर्यावरण की ताकत बताना नहीं है। इतना भर कहना है कि स्त्री-जीवन को समझने के लिए स्त्री होना पडेगा- नारी विमर्श के रहबर मुलाहिज़ा फ़रमायें – क्या वे इसे नारी-विमर्श का नाटक मानेंगे? यह तो न नारी द्वारा लिखा गया है, न नारी इसके केन्द्र में है।

क्या पर्यावरण है केन्द्र में?

तो मित्रो, इन सबका उचित सन्धान व समझ ही साहित्य व जीवन का नियामक होगा।

यदि पर्यावरण पर मैं आपकी अपेक्षाओं जैसी बात न कर सका होऊँ, तो क्षमा कर दीजिएगा और धन्यवाद तो स्वीकार कर ही लीजिए कि आपने एक और कोण से नाटकों को देखने का अवसर दिया। --------------------------------------------------------------------------

सम्पर्क- ‘मातरम’, 26-गोकुल नगर, कंचनपुर, डी.एल.डब्ल्यू., वाराणसी-221004/ मोबा.094535519830/

satyadev tripathi: Preview "अरबिन्द के आलोक में जीवन का उद्देश्य..."

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