Sunday 15 June, 2008

मेरे बाप पहले आप्

हास्य के साथ ‘कुछ और’ की खिचडी - काफ़ी फ़ीकी... यदि सिनेमा हाल में घुसते हुए प्रियदर्शन (लेखक-निर्देशक) मिल जायें, तो आप यही कहके उन्हें आगे कर सकते हैं- पहले आप। फिर दोनो पूरे तीन घंटे (हॉय, सम्पादित क्यों न किया या..र) बैठ पायें, तो निकलते हुए पूछिए कि वे क्या बनाना चाहते थे - कॉमेडी या कुछ और...! कॉमेडी को सस्पेंस में खत्म करने वाली ‘चलती का नाम गाडी’ जैसी बेहतरीन फिल्म का उदाहरण है। और प्रियदर्शन को समापन नहीं आता, इसका प्रमाण उनकी सबसे अच्छी फिल्म ‘हेराफेरी’ भी है- याद कीजिए वो झटके लगांने वाला उबाऊ दृश्य। फिर तो सबमें है...। शायद इसीलिए उन्हें ज़रूरत पडी- ‘कुछ और’ की, जो कॉमेडी पर भारी पडता गया और कथा में उसे बुनने की प्रक्रिया में हास्य (पर ध्यान) कम होता गया, जो उनकी ख़ासियत व मशहूरियत हैं। ठीक ध्यान होता, तो राजपाल के किरदार को एकदम ही फ़ालतू न होने देते...शोभना को ‘शोपीस’ न बनाकर उनकी क्षमता लायक कुछ कराते...। उधर ओमपुरी के किरदार पर ऐसा ध्यान दिया कि पचासे की उम्र में पूरी फिल्म शादी के लिए लडकी खोजने में भटकाते रहे, जो अच्छा हास्य तो शुरू में भी नहीं बना, आगे तो बोरियत की हद तक एकरस (मोनोटोनस) हो गया। इसी ‘कुछ और’ ने परेश रावल के किरदार को गम्भीरता की टोपी पहना दी और दर्शक ठहकेदार हास्य से महरूम रह गया...। हालाँकि जो दिया गया, उसे करने की जीतोड कोशिश दोनो ने की, पर ‘बिगडी बात बने नहीं, लाख करे किन कोय’... और यह सब कर देने वाला वह ‘और कुछ’ कथा के बाहर भी तमामों को काफ़ी नाग़वार गुज़रा है। क्योंकि वह बहुत सही है, बहुत प्यारा है; पर ग़ैर पारम्परिक है। बचपन से एक दूसरे के जानू-अनु (जनार्दन-अनुराधा) रहे परेश रावल-शोभना का साठ साल की उम्र में मिलन व विवाह, जिसे कराते हैं जानू के सुपुत्र गौरव (अक्षय खान्ना) और अनु की पुत्रीवत शिखा (जिनेलिया डिसोज़ा)। फिर ये हीरो-हिरोइन हैं। सो, अपनी शादी के पहले यह शादी कराते हैं। बेटा कहता भी है- ‘मेरे बाप, पहले आप’। पर शीर्षक गीत ‘बाहर’ का पर्दा खुलने के बाद क्यों शुरू होता है? हीरोगीरी तो यहाँ तक है कि प्रेमिका के बाप (नसीरुद्दीन शाह) की खास अदा में शादी तोडने की धमकी के बावजूद अपने प्रेम को कुर्बानी की कीमत पर भी बेटा यह कराता है। इस त्याग भाव पर हिरोइन के (सच्चे फिल्मी) बाप को मानना ही था। बडा बेटा चिराग (मनोज जोशी) भी हिन्दी फिल्मों की रूढिगत कुलटा पत्नी को फिल्मी तमाचा मारकर शादी में शामिल होता है। इसी सब फिल्मी लटकों व हास्य के दोराहे में इस मह्त्त्वपूर्ण ‘और कुछ’ को निखरने नहीं दिया। बेटे की तरह बाप के रख-रखाव के बेहतरीन आइडिया को तो लोग हास्य समझते रहे। फिल्माया भी गया हीरोगीरी के साथ। सो, फिल्मी होकर रह गया। याने ‘कुछ और’ ने ‘हास्य’ को भटकाया -बिखेरा और हास्य ने इसे दबाया, धूमिल किया - ना ख़ुदा ही मिला, ना बिसाले सनम...। हाँ, इस थीम के पहले हीरो-हिरोइन की लॉग-डाँट में लिपटी लुकाछिपी से बनी चौथाई फिल्म में तथा बूढे प्रेमी-प्रेमिका को मिलाने के फोन वाले कल्पनाशील दृश्यों में निर्मल हास्य बना है। अक्षय खन्ना तो नया कुछ नहीं करते, पर नयी आयी जिनेलिया का तो सब नया है ही, थोडी ही देर में वह मुग्ध भी कर लेती है। पूरी फिल्म में लडकियों को छेडने के नाम पर दोनो दोस्तों - परेश व ओमपुरी - को पकडते हुए और ओमपुरी से उठाबैठक कराते हुए पुलिस इंस्पेक्टर बनी अर्चना पूरन सिंह कब ओमपुरी की खोज का नतीजा बन जाती हैं, दर्शकों को जैसे जाते-जाते ही मालूम पडता है, उसी तरह शायद प्रियदर्शन को भी बाद में ही किलका होगा...। सबसे बडी बर्बादी तो पुराने ज़माने के परेश-शोभना के प्यार के नग़मे की उछलकूद वाले नाच के फिल्मांकन में हुई है। भाई प्रियन, कुछ तो प्रिय दर्शन रहने देते... - सत्यदेव त्रिपाठी