Saturday 18 July, 2009

लोकगीतों की प्रासंगिकता

लोकगीतों की प्रासंगिकता लोकजीवन ही प्रासंगिक न रहा, तो लोकगीत कैसे हों...? -सत्यदेव त्रिपाठी लोकगीतों की प्रासंगिकता की बात करना ऐसा लगता है, गोया दादाजी से घर में रहने की उपयोगिता पूछी जा रही हो और स्थिति की विडम्बना यह है कि दादाजी को बतानी पड रही है...। क्योंकि जिस गाँव में दादाजी जनमे-जीये, वह गाँव उनका अंत समय आते-आते बदल गया है। अब लोक का वह सम्भार जाता रहा है, जिससे लोक गीत-संगीत जनमता-विकसता था। हर दिल-अज़ीज़ बनता था। मसलन... ...मशीनी खेती ने श्रमगीतों को खत्म कर दिया है। ट्रैक्ट्रर की घड्घड में भला हलवाहे व गाडीवान के गीत कैसे गाये-सुने जा सकते हैं? चक्की ने जाँता खत्म कर दिया, ‘जँतसार’ के गीत जाते रहे ... आदि-आदि? ...ऋतु गीत में पहले की तरह न महीनों कजरी गायी जाती, न फाग। न महीनों झूले पडते, न पूरे महीने जोगीडा चलता। याने अब इनके ही प्रति वह उछाह नहीं रहा, तो इन अवसरों के लिए बने लोकगीतों के लिए क्या होगा? बस, नागपंचमी-होली की रस्म-अदाई हो जाती है। ...भक्ति के सामूहिक आयोजन भी अब उस तरह से पूरे गाँव के एक ही साथ नहीं होते। सो‘पचरा’आदि जैसे पारम्परिक गीत भी बहुत कम हो गये हैं। इतने कम कि आज बढती पीढी को ये चीजें उस तरह मालूम भी नहीं हो पा रही हैं कि वे मौका आने पर कुछ सुन-सुना तो क्या, बता भी सकें... ...कुछ अवशेष बचे हैं संस्कार-गीतों के, पर उनमें भी भयंकर ह्रास आया है- भोर जगाने, जनेऊ यज्ञ जैसे अवसरों के गीत किसी को याद नहीं रहे। कुछ बूढियां जिस दिन नहीं होंगी, परिछन, ब्याह, गवना के गीत भी लुप्त हो जायेंगे। सोहर कुछ् दिन शायद बचे रहें...पर किस रूप में...!!1 ...‘गारी’ जैसे खुले रूप को तथाकथित सभ्य समाज ने फूहड व अश्लील करार देकर लगभग बन्द कर दिया है। वरना जो खुलापन रहता था उनमें, वह कई तरह से लाभदायक होता था। ब्याह बैठते ही ‘लाजि के मारे लजाधुरि जे पिय के अगवौं नहिं घूँघट खोलइ’ वाली नवेलियों व बूढी दादियों तथा प्रौढा माँओं के‘दुलहा हौ छिनारि के जनमल, अगुआ हौ ललगँडुआ रे’ जैसे गीत कई-कई तरह से रोमांचित कर जाते थे...। ... उक्त सब के सब टीवी और उस पर आती फिल्मों के सौजन्य से इल्मी-फिल्मी हो चुके हैं...। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राम स्वरूप चतुर्वेदी ने बीस साल पहले ही लिख दिया – ‘दूरदर्शन आधुनिक युग का लोक माध्यम है’। लेकिन यथार्थ को सीधे कहा है अशोक वाजपेयी ने - ‘एक समय था, जब लोकगीत-संगीत से बम्बइया फिल्में धुनें और भाषा उधार लेते थे। अब बारी पलट गयी है। अब फिल्मी धुनें लोकसंगीत को प्रभावित कर रही हैं’। शायद वे कहने में चूक गये या कंजूसी कर गये। हक़ीकत यह है कि सभी रूपों में पूरे के पूरे गीत ही फिल्म के प्रयुक्त हो रहे हैं – ‘पइसा दे दो, जूता ले लो’ जैसे गीतों के लिए तो शादी में स्थिति (सिचुएशन) भी बनायी जाती है। सो ऐसे में 20-30% ही कुछ खाँटी लोकगीत आदि बचे रह गये हैं – वही रस्म-अदाई के तौर पर...। वरना सारे गाँव गन्दी राजनीति व गुटबन्दी, झगडों, मुकदमेबाजियों व लूट-खसोट के अखाडे बन गये हैं। कितना कमा लें, कैसे कमा लें; के अलावा कोई बात नहीं होती। बाबा की बात साकार हो उठी है–‘मातु-पिता बालकन्ह बोलावहिं ; उदर भरइ, सोइ करम सिखावहिं’। इस तरह लोकगीत-संगीत तो क्या, सब कुछ छूट चुका है – ‘भूल गयी सान-सउख, भूलि गयी चौकडी ; तीनि चीज़ याद रही- नून, तेल, लकडी’। इसी की परवान चढ गये हैं – सारे लोकगीत-संगीत...सारी लोक-संस्कृति। यह 20-30% भी कब तक बचे रहेगा, कहना मुश्किल है। आजकल कुछ सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थान इन गीतों को सुरक्षित करने के प्रयत्न में लगे हैं – करोडों के वारे-न्यारे हो रहे हैं, पर सीधी सी बात कोई नहीं समझता कि घर-आगनों, गली-चौबारों से मुहल्लों-गाँवों को गुलज़ार करने वाले ये गीत वातानुकूलित भाण्डारों में दस्तावेज़ की तरह रखे जाकर किस काम के रह जायेंगे? इनकी इससे बडी अप्रासंगिकता और क्या होगी? तो सक्षेप में ये हैं गावों के हालात और उनमें लोकगीत की दशा व दिशा, जिनमें गीत ही लुप्त होते जा रहे हैं, तो उनकी प्रासंगिकता की बात ही क्या? बाँस ही नहीं, तो बाँसुरी की बात क्या...? और अब ज़रा गाँव से अलग हटकर हालात का एक जायज़ा लें, जिसमें लोकगीतों की स्थिति व गति बन-बिगड रही है... आज हम ग्लोबल हो गये हैं। उत्तर आधुनिक हो गये हैं। बाज़ार के युग में जी रहे हैं। भौतिक सुख जीवन का परम लक्ष्य हो गया है। सारी प्रगति और सभ्यता के केन्द्र शहर हो गये हैं। ‘गोदान’ के मेहता-मालती... आदि की तरह हम गाँव में पिकनिक के लिए जाते हैं- छुट्टियों के कुछ दिन बिताने या फिर प्रोजेक्ट आदि...के लिए। इस विलोमी बदलाव से लोकगीत ही नहीं, समूची लोक समृद्धि पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है। मसलन... ...मैग्डोनल व चाइनीज़ के सामने दाल-भात-रोटी-भाजी को बतानी पड रही है अपनी प्रासंगिकता और बेरहिन-बख़ीर, ठोक्वा-गुलगुला, दोहथी-हथुई तो अप्रासंगिक ही क्या, अपना अस्तित्त्व तक खो चुकी हैं। ...बीस साल पहले के कॉंन्वेंटी बच्चों ने सारी पहननेवाली अपनी माँओं से अपेक्षा की थी कि वे जींस-टीशर्ट पहनकर स्कूल से उन्हें लेने आयें। वे बच्चे अब जवान हो गये हैं और माँ के साथ दो पल बिताने के बदले क्लब-होटेल-सिनेमाघरों में जाना पसन्द करते हैं। फिर वे लोकगीत कहाँ सुनेंगे? ...अपनी लोकभाषा पढने, उसमें लिखने का अभ्यास तो हमारा ही नहीं रहा। महानगरों में प्रशासनिक कार्यों के लिए हिन्दी के मुकाबले अंग्रेजी ही सरल लगने लगी है – ‘सविनय निवेदन है कि...’ को भूलकर ‘आई बेग टु स्टेट दैट...’लिखना आसान हो गया है। तो ऐसे में लोकभाषा की अपेक्षा उस बच्चे से करना बेमानी है, जिसे लाखों के पैकेज की कमाई (तथा फिर उसी बुनियाद पर लाखों के दहेज) पाने के लिए लोकजीवन को छुडाकर ये राहें हमने ही पकडाई हैं...। नतीजा यह है कि हमें तो बचपन में मिले उस जीवन के कारण लोकभाषा बोलने-बतियाने, उसमें गाने-बजाने कमोबेश आता है – कम से कम सुनकर प्रसन्न होने लायक तो हैं ही हम। यह दाय अपनी नयी पीढी को नहीं दिया हमने। सो, आने वाले समय में उन्हें अपनी लोकभाषा ही नहीं आयेगी, तो गीत-संगीत भला कैसे आयेगा? हम अंतर्मुख होकर सोचें और अपने आप को ही बतायें कि हमारे जीवन में लोकगीत-संगीत कितना है ! कितने लोकगीत की कितनी पंक्तियां हमें याद हैं? चलिये, कितनी काव्य-पंक्तियां याद हैं, जो हम चलते-फिरते अपने बच्चे को सुना-सिखा सकते हैं? बडे-बडे नेताओं, मंच-वक्ताओं को वही की वही पंक्तियां ही हर मौके पर सुनाते हुए यूँ सुना जा सकता है कि श्रोता पहले ही भुनक पडता है– अब फला पंक्ति सुनायेगा। याने लोकसाहित्य क्या, साहित्य ही नहीं रहा जीवन में, तो अप्रासंगिक होगा ही...। इन्हीं कारणों से लोकगीत गाने वाले दिन-पर-दिन कम होते जा रहे हैं। वरना मुम्बई में एक ही गायिका को हम हर साल वही-वही, वैसे-वैसे ही गाते हुए क्यों सुनते? यूँ लोकगीत का स्वभाव यही रहा कि एक गीत को हर साल गाते हुए कई-कई पीढियां गुजर जाती थीं, पर गाते-सुनते लोग अघाते न थे...। लेकिन तब कार्यक्रम पूर्व-नियोजित या प्रायोजित न होते थे। आज ऐसा होने में हम शिक्षित प्रमोटरों का अज्ञान व आलस्य भी है, जो नयों को जान-खोज नहीं पाता। और हमारे आयोजन जिस तरह के शिष्ट व अभिजात होते हैं, वे स्वयं ही उस सहजता व अनगढता के विरोधी हैं, जो लोकगीतों की बुनियादी प्रवृत्ति है। इसीलिए वे खाँटी गायक ऐसे आयोजनों में नहीं आ पाते, जो असली लोकगायक हैं व जिनसे लोकगीत बनता है – याने ‘दुकानदार तो मेले में लुट गये यारो, तमाशबीन दुकानें लगाके बैठ गये’। और असली लोकगायकों को लूटने वाले ये गायक लोकप्रिय ज़रूर हैं, पर उन्हें लुटवाने वाले तो हम अभिजात आयोजक ही हैं, जो एक-दो नहीं हैं – ‘कहाँ तक नाम गिनवायें सभी ने ‘इनको’ लूटा है...’। लोकगीत गाने वाले हमारे गायक प्राय: कवि हुआ करते थे। वे समय की समस्याओं के गीत लिखा करते थे। उन पर गम्भीर व बेबाक टिप्पणी किया करते थे। आजादी की लडाई के समय जाँते को सम्बोधित करके लिखा गीत तो मशहूर है ही- ‘सुराज धुन गावा हे मोर जाँता’...! लाल रंग गोहुँआ, सफेद रंग पिसना कपट दिल खोला, ए मोर जाँता... लेकिन आज़ादी के बाद जो नज़ारा हमारे अपनों ने दिखाया, जिसे साहित्य में ‘मोहभंग’ के नाम से जाना गया, उसकी सीधी, धारदार; पर उतनी ही लयात्मक अभिव्यक्ति किसी लोकगायक ने ‘कांगरेसिया बिदेसिया समान सजनी’ गाकर की और लोकगीत प्रासंगिक तो क्या, प्रहारक बन गया। यही असली तत्त्व है प्रासंगिकता का, जो तब था... पर अब आ नहीं आ रहा है। गायब हो चुका है लोकगीतों से। आज के सरोकारों वाले लोकगीत इधर लिखे ही नहीं जा रहे हैं। यही सबसे प्रमुख कारण है, लोकगीतों की प्रासंगिकता के कम होने का। आज का युग सब कुछ को उपयोगिता की कसौटी पर कसता है। इसे समझ व अपना कर ही कुछ भी प्रासंगिक हो सकता है आज। सो, जीवन में आज जो बदलाव आ रहे हैं – जिनका एक ट्रेलर-सा इस लेख की शुरुआत में ही दिखाया गया, उन पर गीत लिखे जाकर ही लोकगीतों को प्रासंगिक बनाया जा सकता है। इनके अभाव के नजीतन ये लोकप्रिय गायक पुराने लोकगीत गाये जा रहे हैं, जिनका आज के जीवन से कोई ख़ास सरोकार ही नहीं रहा। गीतों के आउट ऑफ़ डेट होने का एक उदाहरण दें? एक हिट कजरी गीत है – ‘पिया मेंहदी लिया दा मोतीझील से, जाके सायकील से ना...’। अब देखिये कि इसके जीवनगत सरोकार क्या हैं ... मेंहदी के लिए नीलीझील की क्या पहचान है, हमें भी नहीं मालूम। ये लोकल पहचानें हैं। तब गायन लोकल लेवेल पर हुआ करता था। हर अंचल के अपने लोकगीत होते थे। वहाँ वे गाये जाते थे। धुनों और भावों की समानता में उनका राष्ट्रीय स्वरूप आपोआप बनता था, जिसे अनेकता में एकता कहा जाता है। अब लोकगीतों की राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुतियां होने लगी हैं, तो व्यापक पहचानों वाले गीत लिखे जाने चाहिए, जिससे वे सबकी समझ में आयें, सबको आनन्द दें...। दूसरी बात यह कि अब कौन प्रियतम है, जो सायकल से जाकर अपना अपमान करायेगा ? वह कार नहीं, तो बाइक से जरूर जायेगा... कुछ नहीं तो स्कूटर तो होगा ही, पर सायकल तो कतई नहीं...। लेकिन तीसरी व सबसे मार्के की बात यह कि आज की नायिका मेंहदी लगाने के लिए पिया से कहने क्यों जायेगी? ब्यूटी पॉर्लर नहीं चली जायेगी? मेंहदी वाली को अपने घर नहीं बुला लेगी? और इसके आगे के जमाने की बात यह कि पता नहीं वह किसके लिए मेंहदी लगाना या पॉरलर जाना चाह रही होगी- नौकरी पर जाने के लिए, इंटर्व्यू देने के लिए या मीडिया के लिए ऑडीशन देने के लिए?...आदि । तो फिर पिया से क्यों कहेगी? या मुआफ़ किया जाये, तो एक विकल्प और कहूँ - पिया के अलावा अपने किसी प्रेमी के लिए पॉर्लर जा रही हो, तो... ? जी हाँ, इस उत्तर आधुनिक ग्लोबल समाज ने हमें यह दिया है। जब पुरुष बाहर निकलता था, उसके विवाहेतर सम्बन्ध बनते थे। उसकी परिणीता प्रेयसी घर में बैठी इंतज़ार करती थी। इससे बिरह के ढेरों लोकगीत बनते थे...।‘बिरहा’जैसा गायन इसी बिरह से ही निकला था, जो आगे चलकर विविधरूपी विकास कर सका। पूरा समाज रस ले-लेकर उसका गान-पान करता था। एक बानग़ी देखें, जो इधर बहुत लोकप्रिय हुआ है... रेलिया बैरन पिया के लिये जाय रे...’। फिर वो अपने पिया को ले जाने वाले गाडी, टिकट, बुकिंग क्लर्क तथा उस शहर तक के नष्ट हो जाने की कामना करती है, जहाँ वह रहेगा...। और सबके अंत में – ‘जवने सवतिया पे पिया मोर आसिक, बिजुरी गिरइ सवति मरि जाय रे...रेलिया बैरनि...’ याने मानी हुई बात थी कि वो किसी के इश्क़ में पडेगा। उत्तरप्रदेश-बिहार वालों का कलकत्ता जाना प्राय: होता था – छ-छह पैसा, चल कलकत्ता...। वहाँ एक परदेसी यदि बस गया, तो साल भर न आने वाले हर परदेसी को जादूगरनी बंगालिनों ने भेंडा बनाकर रख लिया है... जैसी तमाम भ्रांतियों पर लोकगीतों के ख़ज़ानें भरे हैं। लेकिन जैसे बिजली आ जाने के बाद कविताओं में शर्मीली नायिकाओं के हाथ दीपक बुझाने से जलने बन्द हो गये, ये सब बन्द हो जाने चाहिए। अब विज्ञान के आने के बाद न भेंडा बनने का भ्रम रह गया, और शहरीकरण, यातायात व स्त्री-शिक्षा से न बिरह की वैसी स्थिति रह गयी...। आज जब स्त्रियां भी बाहर की जिन्दगी में उतनी ही सक्रिय हैं, अब पुरुष के लिए भी बिरह की स्थिति आयी है। कभी राम को बिरह में रोते-बिलखते तुलसी ने दिखाया था। आज की हमारी फिल्मों ने इन मर्मों को समझा-अपनाया है- बेशक़ व्यवसाय के चलते ही, लेकिन हमारे लोकगीतों में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो। याने वे अपडेट नहीं हो रहे हैं। परंतु यह सब तो रुकने वाला नहीं है। और बढेगा। फिल्मों के साथ कमोबेश साहित्य ने भी स्वीकार लिया है। लोकगीतों को भी ऐसा करके ही मुख्य धारा में लाया जा सकता है, जिसके प्रति कोई सजग नहीं। कहने का लुब्बो-लुबाब यह कि ऐसे-ऐसे नये विकास जीवन में आ गये हैं, जिन पर गीत आने चाहिए। लोकगीतों को आधुनिक जीवन की तब्दीलियों, जटिलताओं से रू-ब-रू होना होगा। इन्हें समोना होगा। जो लोग लिख रहे हैं, उन्हें इन जटिल जीवन-वास्तवों को गीतों में ढालना होगा, जिससे नयी पीढी के नौनिहाल निहाल हों...। वरना उन पुरानी पिटी-पिटायी थीम पर लिखे गीत आज के नये समाज द्वारा स्वीकारे न जा सकेंगे। वे सीडीज़ में ही बन्द होकर रह जायेंगे...। हमारा लोकगायक आशु कवि भी हुआ करता था। गाते हुए जो कुछ वहाँ चल रहा होता था या देश में जो हिट-हॉट घटित हुआ रहता था, उसे भी अपने उसी गीत में मिलाकर उसी शैली में उसी सुन्दरता से रचता जाता था - ‘इम्प्रोवाइजेशन’जैसा। लेकिन आज के लोकप्रिय गायक महज फ़ूहड हाव-भाव व सस्ते संवादों के ठेकों, जिसमें आयोजक की चापलूसी सबसे ‘चीप’सिद्ध होती है, के अलावा कुछ नहीं कर सकते। और संपर्कों (पब्लिक रिलेशनशिप) का सिला ही है कि ऐसे गायकों के गीतों को ही हम असली लोकगीत समझ बैठने को विवश हो गये हैं। यदि वस्तु के स्तर पर उक्त किस्म के बदलाव हों, तो जो धुन, लय, सुर, टेक, राग, ...आदि हैं, वे प्रासंगिक तो क्या, कालजयी महत्त्व के हैं। मतलब न जानने के बावजूद लोग थिरक उठते हैं। गुजरात, महाराष्ट्र, म,प्र. व राजस्थान के लोग जुटे थे। हम महाराष्ट्र की ओर से गये थे। और हमारा साथी बी.एम. सिंह जब गायन के अवसर पर पिहिक के उठाया था – ‘ छलकल गगरिया मोर निरमोहिया, छलकल गगरिया मोर.. महुआ के कुचवा मदन रस टपके, बहे पुरवइयाझकझोर निरमोहिया कि छलकल गगरिया मोओओ...र... तो गुजरात के सोनी सर इतना चहक उठे कि दौडकर मंच पर रखी ढोलक का ताल मिलाने लगे और न मिला पाने पर मंच पे ही चित्र-लिखित जैसे खडे रह गये थे... ऐसा असर होता है। हिरणी वाला प्रसिद्ध गीत किसी भी युग, भाषा... आदि का मोहताज नहीं...। और ऐसे बहुतेरे हैं। यही लोक्गीतों की प्रकृति है, शक्ति है, जो रहेगी...। युगीन बदलावों की अनिवार्य चर्चा यहाँ न होती, तो इसी सब पक्ष को विस्तार से बताकर प्रासंगिकता की इतिश्री की जा सकती थी। और बिरह, मिलन, प्रतीक्षा, इसरार, इनकार, मान-मनौवल..आदि भावों की सनातनता के आधार पर प्रासंगिकता क्या, इनके अमरत्व की गैरंटी दी जा सकती थी...। और कहना होगा कि यह है भी। लोकगीत अपने इन्हीं गुणों से अमर हैं और रहेंगे...। इनमें इतना अपनापा भरा होता है कि ये सहज ही हमारे गहन क्षणों के साथी बन जाते हैं। हमारे लोकगीतों में संस्कार व संस्कृति तो होती ही है ; एक आदर्श, एक मूल्य भी निहित होता है, जो बताया-कहा नहीं जाता। पूरे विधान में रच-बसा होता है। उसमें एक सहजता-सरलता व निष्कलुषता होती है, जो मोहती है। तभी तो महाराष्ट्र की कीर्त्तन शैली से बना ‘घाशीराम कोतवाल’ का आलोक विदेशों में भी सराहा गया। छत्तीसगढी के लोक में अभी-अभी दिवंगत हबीब साहेब का ‘चरनदास चोर’ व ‘मिट्टी की गाडी’ भी पाश्चात्य देशों में सबके सिरमौर बने। याने कि बहुत कुछ है, जो कहा जा सकता है। लेकिन यह सब कहा गया है। कहा जाता है। बार-बार, बारम्बार। हम इतिहास का गान करते जा रहे हैं और स्थितियां दिन-ब-दिन बिगडती जा रही हैं। इसलिए कहना तो पडेगा। अब समय आ गया है कि ये सचाइयाँ कही जायें। गुडी-गुडी से काम चलने वाला नहीं। इनमें सुधार व बदलाव की मह्ती आवश्यकता है। सरकार के पास योजनाएँ हैं। संसाधन हैं। सच्चे लोक कलाकारों को हबीब साहब की तरह गावों से उठाकर लाना होगा, उनके सारे नखरे उठाने होंगे। कार्यशाला आदि माध्यमों से उनसे वो चीज़ें निकलवानी होंगी, जो रह जाती हैं। नयी चीजें लिखवानी होंगी, ताकि वो सम्भार लोकगीतों में भी आये, जो जीवन में आ चुका है। फिर उनका ऐसा प्रदर्शन कराना होगा कि नयी पीढी को भी उसमें रुचि जागे। सुरक्षित-आरक्षित के बदले लोक की चीज को लोक तक पहुँचाना होगा। लोकगीत को लोकमय बनाना होगा, तब प्रासंगिकता बतानी नहीं होगी, वह स्वत: सिद्ध होगी...। ** ** ** सम्पर्क- “नीलकण्ठ”, एन, एस. रोड नं.- 5, विलेपार्ले- पश्चिम, मुम्बई- 400056 फोन- 022-26101987/ 26163215. मो. 09869355103 ई मेल- satyadevtripathi@gmail.com 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गडे मुर्दे क्यों उखाडे जायें ‘बालिका वधू’ में... ??

‘हमारा महानगर’ (17 जुलाई, 09) में ‘बालिका वधू’ पर संसद में उठे सवाल को लेकर अलका आश्लेषाजी का आलेख पढने को मिला। धारावाहिक को अलका जी ने ‘सामाजिक जागृति का सकारात्मक रूप’, ‘बाल-विवाह के विरोध में एक सार्थक कोशिश’ ‘इस कुप्रथा की समस्याओं को सुलझाने’ व ‘दर्शकों को शिक्षित करने के उद्देश्य वाला’...जैसे जितने विशेषण हो सकते हैं, से नवाज डाला है। और कार्यक्रम हम देख रहे हैं। खेद है कि हम ऐसा कुछ भी देख नहीं पा रहे हैं। काश, अलकाजी ने कहीं एकाध उदाहरण दे दिया होता कि यह सब किस घटना, किस चरित्र, या इनके किस परिणाम से हो रहा है, तो हम भी शायद समझ पाते ! हम तो देखते हैं कि इसकी बालिकाबधू व बालकवर (आनन्दी-जगिया) परम प्रसन्न एवं सुखी हैं। जितना मान-सम्मान, स्नेह-दुलार उन्हें सीरियल के परिवार-समाज से मिल रहा है तथा उसी के चलते जितनी लोकप्रियता उन्हें आज मिल रही है, उसे देखकर हर बच्ची-बच्चा यदि बालिका बधू - बालक वर बनने का सपना देखने लगे (और देख रहे हैं), तो क्या बेज़ा है? क्या यह एक मृत हो गयी रूढ व्यवस्था को ग्लैमराइज़ करना नहीं है? कौन-सी जागृति इसमें निहित है। हाँ, जागृति के नाम पर आनन्दी के ससुराल में पढने की शुरुआत करायी गयी, जो कुछ कडियों को हिट करके ग़ायब हो गयी। वैसे बाल-विवाह की बात ही गडे मुर्दे उखाडना है और ‘कलर’ चैनल तो प्राय: सभी में यही कर रहा है। ‘लाडो...’ में लडकी की भ्रूण-हत्या का मामला कमिश्नर तक ले जाने वाली लडकी अब अम्मा के घर में नौकरानी बनकर रह रही है- पता नहीं कौन सी योजना लिये है !! कमिश्नर न जाने कहाँ गया? इतने पढे-लिखे जागरूक लोगों के बीच कोई पुलिस, कोई व्यवस्था नहीं आ पाती और अम्मा की निरंकुश तानाशाही सत्ता चल रही है... ऐसा गाँव भारतवर्ष में कहाँ है? अम्मा की दादागीरी के स्टंट के सामने तो मनमोहन देसाई व प्रकाश मेहरा की फिल्में भी पानी भरें ! तो बालिका वधू की पढाई की बात भी मुर्दे को भूत बनाना ही है। राजस्थान व बिहार में यदि कहीं-कहीं ये प्रथाएं हैं, तो ऐसे सीरियल वहाँ के लोकल चैनल पर दिखाये जायें। पूरे देश में इन मुरदा प्रथाओं को क्यों जल्वागीर किया जाये ? फिर दिखायें, तो ऐसे कि इनके प्रति अरुचि-जुगुप्सा पैदा हो, न कि ऐसा ग्लैमर कि वैसा बनने का रश्क़ होने लगे...? आइये आगे बढें... घर के बडे बेटे बसंत की दूसरी शादी भी घर वालों को पैसे देकर कच्ची उम्र की किशोरी से करा दी – क्रूर-जघन्य यथार्थ दिखा, विरोध भी दर्ज़ हुआ। लगा कि कोई सार्थक पहल होगी...। दस-बीस कडियां उसमें भी जम गयीं। यह ग़ैर कानूनी है, पर इस तरफ़ ख्याल क्यों जाये? बच्चा देकर ऋण उतारकर जाने के निश्चय से रुकी थी। बडा अच्छा लगा था...। पर अब वह अच्छी-ख़ासी ‘बींदनी’ बनकर घर-बार सँभाल रही है। घर के दुख-सुख में हँस-रो रही है। याने ये होता रहे, का ही सन्देश बना न ! तो कौन सा जागृति पैदा हुई और कौन-सी शिक्षा मिली ? बस, उन विरोधों के नाटक में कुछ कडियाँ फिर हिट हो गयीं। असल में यह सारा खेल कडियों को हिट करने का ही है। ऐसे मुद्दों को ‘हुक’ कहते हैं, जिसे खोजना सीरियल-लेखन का बडा गुर है। ये हुक दर्शक को फँसाने के लिए होते हैं। फिर उसे भूल जाना ही इस विधा का अनुशासन (डिसिप्लिन) है। इस हुक के मक़्सद और मर्म को आम दर्शक तो नहीं समझता, पर लेखक-विकारक ? हाँ, इस बींदनी के गर्भ के जिस बच्चे को लेकर इतना हंगामा हुआ, वह गया कहाँ? याने कहानी तक से ‘हुक’ का मतलब नहीं। तीसरा मसला दादी की पोती (सुगनी) का है, जो विधवा समस्या से जुडा है। उसकी दूसरी शादी कराना जरूर एक सकारात्मक बात है, पर वह गाँव कहाँ है भारतवर्ष में कि वह पहले पति से गवने के पहले इतना मिलती है (रोमांस भी भुना लिया !) कि गर्भवती हो जाती है। यदि यह सब पुराना है, तो मोबाइल कहाँ था तब ? और नया है, तो इतना सब कहाँ है? दोनो ही अतिवाद है। इसकी ज़रूरत न सच को थी, न कथा को । फिर विधवा हो जाने पर जो यातनाएं दी जाती हैं, वे तो किसी भी दृष्टि से कतई बर्दाश्त के काबिल नहीं। हमारा समाज आज के लिए इस सफेद झूठ व एकदम ग़ैरज़रूरी यातनाओं को देखता है, वही आश्चर्यजनक है। और अब एक बुद्धिजीवी पत्रकार से इसकी पैरोकारी तो जले पर नमक ही है। लगता है कि कमाऊ मीडिया के कुएं में पडी भाँग का नशा पूरे समुद्र पर तारी है। पूरा घर उस यातना के खिलाफ़ है और एक बूढी माँ सबकुछ किये जा रही है। कहाँ है ऐसी माँ ? और है, तो क्यों है अलकाजी ? वह पुरखों की बनायी व्यवस्था का वास्ता देती रहती है, जो तब भी इतनी क्रूर न थी। इसका सही रूप इतिहास के गवाक्ष से दिखाने वाली ‘राव साहेब’ फिल्म (जयवंत दळ्वी के नाटक ‘बैरिस्टर’ पर आधारित) में देखा जा सकता है। ऐसा सब और-और भी बहुत कुछ है...पर अभी बस इतना ही। अब कुछ विमर्श देखें... सीरियल का आज मतलब कि हर अच्छे-बुरे को इतना बढा-चढा कर दिखाया जाये कि दर्शक गदगद होकर, गलदश्रु होकर, चमत्कृत होकर... याने चाहे जैसे... बस, देखे। उनकी टी.आर.पी. बढे। विज्ञापन मिलें। सब कमायें-खायें। बनाने में तो व्यापारी घुस ही आये हैं मीडिया में, करने वालों को भी मोहजाल में फँसे जमाना हो गया। वरना बालिकाबधू के मुख्य चरित्र एनएसडी के हैं – एक सरोकारपरक संस्थान से प्रशिक्षित । दोनो बेटे तो अपेक्षाकृत नये एनएसडियन हैं, उनसे क्या पूछना, पर आधुनिक हिन्दी रगमंच में अभिनय की वृहत्रयी में शुमार उस जमाने की एनएसडी अभिनेत्री सुरेखा सीकरीजी, जो स्वयं सारी गल्दराजी की शीर्ष् (दादी) बनी मौजूद हैं, से आख़िरी बार पूछने का मन होता है – ‘दाग़ेदिल ग़र नज़र नहीं आता, बू भी क्या चाराग़र नहीं आती...’!! ख़ैर, इनका तो फ़ायदा हो रहा है। तमाम नाटकों के बावजूद इतनी अपार लोकप्रियता सुरेखाजी को कभी नहीं मिली। ‘लाडो...’ की अम्मा बनी मेघना भी एनएसडी की है और फूले न समा रही होगी कि जो मुकाम सुरेखाजी को जीवन के आखिरी पडाव पर मिला, उसे पहले चरण में ही मिल गया। महिमा मीडिया के ज़माने की ! लेकिन अख़बारों में इसकी स्तुति करने वालों को क्या मिल रहा है? मैं नहीं जानता कि सदन मे उस सांसद (शरद यादव – जे.डी.य़ू.) ने क्यों यह सवाल उठाया। क्या राजनीति है इसके पीछे? बकौल अलकाजी इस सीरियल पर और भी कई तरह के संकट आये। विरोध हुए। बन्द करने की कोशिशें हुईं... वो सब उन्हें सुनियोजित साज़िशों के परिणाम लगते हैं। इस अन्दरूनी बात का भी मुझे पता नहीं, लेकिन चाहे जैसे – ग़लती से ही सही, एक सही सवाल उठा तो सही ! अब उस पर कुछ सप्रमाण व तर्कसम्मत न कहकर सदिच्छा या अपनी निहित पसन्द को थोपकर उस सवाल को उलझाने का क्या मतलब है? और यदि सीरियल में से वे बातें निकालकर बतायी जायें, जिससे शिक्षा, सरोकार, सकारात्मक बदलाव... आदि होते हों, तो मैं अवश्य लाभान्वित और उपकृत महसूस करूँगा...। * * * * सम्पर्क- ‘नीलकण्ठ’, एन.एस. रोड नं.-5, विलेपार्ले-पश्चिम, मुम्बई- 400056 फोन- 022-26101987/ 26163215. मो. 09869355103