Thursday 8 May, 2008

माँ इसे ‘देवी’ कहती... !!

माँ इसे ‘देवी’ कहती... !! - सत्यदेव त्रिपाठी पहली किस्त- अचानक चाल में जोरों का झगडा शुरू हुआ....और अपनी आदत के मुताबिक देवी वहाँ पहुंच गयी। मैं अकेला रह गया कमरे में...। आजकल यूं भी देवी कम ही मिलती है घर पर। सहित्य- कला आदि के तमाम कामों में बिज़ी हो गयी है। हमें अच्छा लगता है...। इसलिए अभी थोडा-सा वक्त मिला था, तो उसे भी छोडकर उसका चले जाना कहीं खल गया। मेरी इकलौती बहन है - देवी। मुझसे तीन साल बडी । और मैं भी उसका इकलौता भाई , पर व्यवहार में वह माँ जैसी मेरी केयर करती है। मुझ पर आयी हर मुसीबत को अपने ऊपर ओढ लेना चाहती है... इन्हीं सब ख्यालों में उतरा ही रहा था कि बगल में पडे देवी के झोले में मोबाइल बज उठा... । निकालने चला, तो एक-एक करके चार मोबाइल हाथ आ गये। याद आया कि उसकी सहेली सविता ने एक मोबाइल भेंट किया था...पर दो की जगह ये चार-चार...!!! आश्चर्य के साथ बजने वाला ऑन किया और बिना हेल्लो किये ही सामने से जो सुन पडा...कि ओफ़ ..! हाथ-पैर सुन्न हो गये। गुस्से से सारा बदन जलने लगा। .. वहीं बिस्तर पर पड गया। सामने चार-चार मोबाइल ..जैसे चार-चार साँप - फ़न उटाये ...। बस, देवी का गला ही दिख रहा था मुझे। पंजे कुलबुलाने लगे थे... पर हाय रे लोक-लाज ...और इस वक्त वह लोक के बीच थी !! झगडने वाली दोनो पार्टियों को उपदेश पिला रही होगी - ‘देवी’ जो ठहरी... ! और उसी झोंक में झोला-मोबाइल भूल गयी.. वरना आजकल एक मिनट के लिए भी झोला नहीं छोडती - भेद अब समझा..। वाह री देवी...धन्य है..! हारकर थसमसाया पडा रहा। एक - एक करके दृश्य उभरने लगे... ...असल में ‘देवी’ नाम इसे पिताजी ने दिया था। तब यह 10-12 साल की रही होगी, जब पहली बार इसका कहा सबके ध्यान में आया - ‘आज सपने में मैंने देखा कि गोलू फेल हो गया है’..। और पिताजी ने ‘चुप-चुप, चूप...ऐसा नहीं बोलते। किसी और से मत कहना...’ कहकर चुप करा दिया था। आख़िर गोलू गाँव के सबसे बडे ठाकुर का इकलौता बेटा था। लेकिन रिज़ल्ट आया, तो गोलू सचमुच फ़ेल हो गया। बस, अपनी बेटी में पिताजी की आस्था जमने लगी। उन्हें इस बात का ख्याल भी नहीं आया कि मुम्बई में रहता उनका दामाद भी फ़ेल हो गया है, जिससे बचपन में ही ब्याही गयी थी देवी। फिर पिताजी की ग़वाही में देवी की कई-कई बातें सच होने लगीं। मसलन - सपना देखा कि फ़ला आज मुंबई से आ गये हैं...फलनियां ससुराल से भाग आयी है.. वग़ैरह..। बस, पिताजी कहते सुने गये - इसकी जिह्वा पर तो कोई देवी बैठी हैं। और धीरे-धीरे उसका नाम ही पड गया - ‘देवी’... पिताजी की ‘देवी बिटिया’, माँ की ‘देवी रानी’... और कभी गुस्से में ‘देविया’..। उन्हीं दिनों चाचाजी के साथ बँटवारा हुआ और मुम्बई की एक दुकान पिताजी को मिली। बस, हम मुम्बई आ गये । दुकान ठीकठाक चलने लगी और हम पढने लगे। लेकिन इतने में साल भीतर ही देवी के गवने का समय आ गया और अपनी पढाई के छूटने का मलाल लिये वह ससुराल चली गयी । परंतु चार दिन भी नहीं बीते कि पिताजी को बुलवाकर वापस भी आ गयी। आते ही घोषणा कर दी - ‘अब मैं ससुराल कभी नहीं जाऊंगी...आगे पढाई करूँगी..’। और पिताजी ने देवी के प्रति अपनी आस्था की रौ में इसे भी ‘दैवी विधान’ मानकर मंजूरी दे दी। पूछा तक नहीं कि आख़िर वहाँ हुआ क्या ...। देवी देखने में सुन्दर है। व्यवहार में कुशल है। करने-धरने का गुन-सऊर भी है। सो, इसे लेकर तो कुछ नहीं ही हुआ होगा...। परंतु कोई आज तक न जान सका कि देवी ने ऐसा किया क्यों ? कोई कुछ कह भी न सका - पिताजी का देवी में अखंड विश्वास !! ...धीरे-धीरे यह तय हो गया और सबने मन ही मन मान भी लिया कि देवी अब विवाह नहीं करेगी..। उसने अपनी पढाई जारी कर ली...। दुर्भाग्य से कुछ ही दिनों बाद पिताजी कैंसर की भयावह बीमारी से ग्रस्त पाये गये। पूरा घर बेहाल हो गया। पर देवी खडी हो गयी - चट्टान की तरह...। एक वक्त तो ऐसा ही आया कि उसने इलाज़ के लिए लोगों से घूम-घूमकर पैसे माँगने में भी संकोच नहीं किया। फिर भी हम सब पिताजी को बचा न सके। लेकिन इस दौरान देवी के प्रति वैसा ही भाव माँ के मन में भी उमड आया - जैसा पिता में था। इस दौरान दुकान एकदम बैठ गयी। हम दोनो की पढाई भी छूट गयी। मुझे तो पिता के न रहने पर पढाई छोडकर दुकान सँभालनी ही थी, पर देवी ने भी अपनी पढाई को किनारे करके दुकान को लाइन पर लाने में अपनी जान लडा दी। उतना सब कर पाना अकेले मेरे बस का न था। और दुकान जब ठीकठाक चलने लगी, तो देवी ने फिर से पढाई शुरू की। देवी के इस काम ने मुझे भी उसका गहरा विश्वासु बना दिया, पर माँ-पिता जैसा अन्धविश्वासु नहीं। मैं उसे दीदी ही कह्ता रहा - ‘देवी दीदी’ कभी न कह सका। ....अगली किस्त कल...

1 comment:

Anonymous said...

अद्भुत कथा है देवी की । प्रतीक्षा रहेगी ,अगली कड़ी की।क्या आप जान पाए कि वह ससुराल में क्यों न रह सकीं ?
अनीता जी का पुन: आभार एक कथाकार को चिट्ठालोक से परिचित कराने के लिए।