Thursday 5 June, 2008

अरे, जा रे ज़माना

‘तीसरी कसम’ का गँवई नायक हीरामन बात-बात पर कहता है- ‘अरे जा रे ज़माना’...। आज कदम-कदम पर हमारा भी मन जमाने के लिए यही कहता है... ...अभी चार दिन पहले की बात है- हमारी बगल वाली बिल्डिंग में एक 58 वर्षीय आदमी को दिल का दौरा पडा। वह एक कॉलेज में प्राध्यापक है । शादी नहीं की है और अपनी अविवाहित बहन के साथ बँगले की पहली मंजिल पर रहता है। दौरे के दौरान वह फ़र्श पर गिर गया, उल्टियां होने लगीं..। पास-पडोस में किसी से ताल्लुक नहीं। भाई को उठाने में अकेली बहन असमर्थ...किसको बुलायें? तल मंजिल पर सगा बडा भाई रहता है। सम्पत्ति को लेकर केस चल रहे हैं। बातचीत बन्द है। उसे बुलाया नहीं। दूसरा भाई चार किमी की दूरी पर है। उसे फोन किया। पर आया वह तीन घंटे बाद...। तब एम्बुलेंस आयी। वह अस्पताल गया। नीचे से बडे भाई के परिवार ने देखा, पर घर से बाहर न निकला...। ....और यह सुनकर मेरे मुँह से बेसाख़्ता निकल पडा- अरे, जा रे ज़माना...! न निकलता... पर इसलिए निकला कि मैंने देखा है- दो पट्टीदारों में सम्पत्ति को लेकर पुश्तैनी मुकदमे चल रहे हैं। रात के आठ बजे एक को साँप काटने की चिल्लाहट होती है और सबसे पहले वही पट्टीदार आता है। पाँव में गमछा बाँधता है, ताकि ज़हर का ऊपर चढना रुका रहे। और तुरत अपनी सायकल पर लेकर इलाज़ के लिए चल पडता है - गोया दोनो में कभी अदावत रही ही नहीं...। पहला भी सहर्ष उसकी सेवाएं लेता है, क्योंकि वह भी जानता है कि वक्त पर ऐसा करने से वह भी बाज नहीं आयेगा...। यह तो मेरी जवानी के दिनो की बात है - दस साल पहले की। लेकिन यह सुनकर मुझे अपने बचपन की घटना याद हो आयी थी, जब मेरे बडे बाबूजी के दोस्त, जो पट्टीदार थे, खेत व घर के ज़मीन का मुकदमा लडने जिले की कचहरी जाते थे और आते-जाते रातों को मेरे घर ठहरेते, क्योंकि उनके घर यातायात के साधन से 15 किमी दूर थे, जहाँ से वे चलकर आते थे। दोनो साथ आते-जाते, साथ में बैठकर खाना खाते और यदि केस के खर्च के कारण एक के पास पैसे कम पड जाते, तो दूसरा उसे भाडे-किराये का पैसा भी देता... याद आना स्वाभाविक है महाभारत का भी, जहाँ राज्य के लिए दिन भर हर तरह की मार-काट मची रहती थी, पर सूर्यास्त के बाद सब एक दूसरे के शिविर में आते-जाते ही नहीं, खाते-पीते भी थे। पाण्डवों ने युद्ध के बाद कौरव-भाइयों का भी दाह-संस्कार किया था। इन्हीं संस्कारों से बनी मेरी समझ को ताज्जुब हुआ और निकल पडा- ‘अरे, जा रे जा रे ज़माना’ ...! वो संस्कार कहाँ चले गये ? क्यों मर गये... ? सोचता हूँ - शहर के ये बहुत ज्यादा पढे-लिखे लोग सही हैं.. या गाँव के वे कम पढे लिखे लोग...? इनकी निजता सही है या उनकी सामाजिकता ? दुश्मनी की हद में मनुष्य को जिन्दा रखना सही है या दुश्मनी के नाम पर अहम की ज़द में इतना अ-लगाव ? ये लोग शायद उस व्यवहार को पाखण्ड कहें - कि जब मुकदमा चल रहा है, बातचीत बन्द है, तो मदद करना एक नाटक है...। अब आप भी सोचें कि वह नाटक है या यह अमानवीय ? पर मैंने उस पट्टीदार से पूछा था ...। उसने अकुंठ भाव से बताया था- मुकदमे की बात और है... फैसला होगा, तो जायदाद मिलेगी या नहीं, पर रहना तो साथ ही है। दोनो के दुख-सुख में तो साथ ही है...। भाई, लडने के लिए भी दोनो को रहना है...। लेकिन इनसे तो पूछने की हिम्मत भी नहीं । न जाने क्या कह दें - ‘आपसे मतलब ? हमारी जिन्दगी है... मरें या जियें । जिससे केस है, बात नहीं है, उसकी मदद लेने से बेहतर है- मर जाना’...। पडोसी के नाते मेरा भी बडा मन था कि देखने जायें...। पर अपने घर में काम करने वाली बाई, जो वहाँ भी करती है, ने बताया- वे नहीं चाहते कि कोई देखने आये। सो, हिम्मत नहीं पडी। कहते हैं- इस दुनियादारी का क्या मतलब ? रोमैंटिक आन्दोलन की शुरुआत में ‘द वर्ल्ड इज़ टू मच विद अस’ (दुनिया बहुत-बहुत मेरे साथ है) की वैयक्तिकता भी थी, पर उसका मक़्सद भी मनुष्यमात्र से कटकर अकेले हो जाना तो नहीं रहा होगा...! वे सज्जन बहन से भी कहते हैं - यहाँ तो नर्सेज हैं देखभाल के लिए। तुम क्यों आती हो’? पर बहन जाती है। उसका भी मामूली-सा तर्क है - उसके बिना पूरा घर कैसा तो लगता है ! याने भाव भाई के जीने के प्रति नहीं, अपने होने के लिए है...। और वह भाई, जो छोटे भाई को एम्बुलेंस में जाते देखकर भी घर से न निकला..., जाने क्या कहे... !! दुष्यंतजी को क्या पता थ कि जो शेर वे शहर के लिए लिख रहे हैं, कभी भाई के लिए भी सच हो जायेगा - ‘इस शहर में अब कोई बारात हो या वारदात ; अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिडकियां’ । सोच के दायरे से बाहर वह भाई भी नहीं, जिसने कार से 5 किमी आने में तीन घंटे लगा दिये...! बस, समझ में एक बात आयी कि यदि ऐसे जीना है, तो दिल को इतना मज़बूत होना होगा कि वह भीषण दौरे को भी तीन-चार घंटे सह ले, वरना तो एक मिनट भी सम्भव नहीं होता...। - सत्यदेव त्रिपाठी