Friday 18 July, 2008

अकेलेदम आतंकवाद को खत्म करने का ‘कॉंट्रैक्ट’ ... रामगोपाल वर्मा का नया हीरो आतंकवाद को खत्म करने का ‘कॉंट्रैक्ट’ लेता है और यह फिल्म का ही कमाल है कि वो ऐसा कर देता है - दो गैंगों का सफ़ाया...वरना तो इस बात में कोई माल नहीं है, यह रागोव को भी मालूम है। तो क्या कर रहे हैं वे ? सफ़ाया आतंकवाद का या जनता की जेब का...? हाँ, हीरोगीरी के सारे सरंजाम के बावजूद आध्विक महाजन काफ़ी सहज संतुलित व सही लगा। ‘अंडरवर्ल्ड का आतंकवाद से मेल’ का नारा - एक और फिल्मी फ़ण्डा ! दो में से एक गैंग का इस्तेमाल आतंकवादी सरगना कर रहा है, तो क्या फ़र्क़ पड जा रहा है? हाँ, कुछ बात वहाँ है, जहाँ दूसरी गैंग का इस्तेमाल खुली व्यवस्था के तहत सरकारी तरह से हो रहा है। कहना चाहिए- ‘सरकार का अंडरवर्ल्ड से मेल’। क्या कर रही है सरकार व सेंसर ? और नया क्या है इसके सिवा इस ‘कॉंट्रैक्ट’ में कि एक पुलिस शूटर को सडकों पर नंगे दौडाता है हीरो। वरना तो पुलिस द्वारा अपराधियों की गैग में मुखबिर भेजना ‘डॉन’ जैसी स्टंट से लेकर ‘द्रोहकाल’ जैसी सार्थक फिल्मों तक में कितनी ही बार हुआ है..! फिर दोनो का मिक्स्चर ...मुखबिर बनाकर भेजने वाले का खात्मा व गैंग की लडकी से प्यार होता है डॉन जैसा, तो भेजने वाले अफसर को सामने मरते देखना व उसके पदचिन्हों पर चलना तथा सबसे बडे अफसर (यहाँ गृहमंत्री) का आतंकवादी से मिला होना है ‘द्रोहकाल’ जैसा..। बस, इस बार मुखबिर बना हीरो अमान भुक्तभोगी है - बमब्लास्ट में बेटी व पत्नी को खो चुका है। वरना उसे मालूम ही न पडता कि आम आदमी की पीडा क्या होती है ? वह तो आतंकवादी सरगना के फ़लसफ़े - “तुम भी शूटर ही हो। किसी के कहने पर लोगों को मारते हो। तुम्हारा कोई अपना वजूद ही नहीं” - का कायल होक्रर फौज की नौकरी छोड चुका है। और 99% दिमाँग वाले ऑफ़िसर को फ़तह के कग़ार पर पहुंचने के बाद भी नहीं पता कि मुखबिर-योजना का अंत कैसे होगा...! ये ही हैं फिल्म के विचारप्रधान होने के दावे के ढहे हुए आधार !! सारी कडाई के बावजूद वह मोबाइल नहीं पकडा जाता, जिस पर हीरो की ऑफिसर से इतनी लबी बातें होती हैं कि हमारा दिल धडकने लगता है और सारे रुटीन के बावजूद यह दिल धडकाना ही इस फिल्म का उल्लेख्य पहलू है, जो कला का न होकर तकनीक का है। बस, संवाद खासे तगडे हैं, जिसमें ‘सिक्रेट’ आदि के प्रसंगों के बनाव उल्लेख्य हैं। यदि उससे आधी दम भी कहानी व बात में होती, तो रामगोपाल वर्मा जैसा कुछ होता...। शेष बहुत सारा तो अलग व खास करने के चक्कर का शिकार हो गया है। किशोर कदम, अमृता सुभाष तो कॉर्टून हुए ही हैं, छोटे राजन जैसा पात्र करने वाला उपेन्द्र लिमये सबसे बडा कार्टून बन गया है। प्रसाद पुरन्दरे की बोलने की अदा ही उन्हें ख़ास बनाती है, पर पोशीदा गुफ़्तगू के लिए वह एकदम बेमेल है। यही हाल ज़ाकिर हुसेन का भी हुआ है। दाऊद की छबि को साकार करते आर.डी. (सुमित) का कोई काम ही नहीं...। बिना दिखाये ही दृश्यं व चरित्र को मशहूर करने की अदा है रागोव की, जो यहाँ भी फलीफूली है...। प्रेम का उत्सर्ग वाला रूप भी अच्छा बना है और इसे निभाती साक्षी गुलाटी भी संतोष जनक हो पायी है। सब कुछ पुराना है, पर बासी नहीं...के थ्रिल का मज़ा लेना हो, तो फुर्सती समय में देख लेने लायक भर ही बन सका है - फिल्म का दर्शकों से ‘कॉंट्रैक्ट’ ...। - सत्यदेव त्रिपाठी