Saturday 26 July, 2008

इस्तानबुल का मिशन टाँय-टाँय फ़िस्स अपूर्व लखिया को लगा कि ‘शूट आउट’ को मिशन और ‘लोखंड्वाला’ को ‘इस्तानबुल’ कर देंगे, तो एक और हिट बन जायेगी; पर भूल गये कि वह एक वारदात थी, जिसके निशानात लोगों की जेहन में थे। सो, लोग गये देखने। और जैसा कि हर घटना के पीछे एक कहानी होती है, वह कहानी भा गयी। फिल्म चल गयी। लेकिन यहाँ ओसामा व अलक़ायदा की छाप के साथ अमेरिकन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का छौंक भी काम न आया...। क्योंकि जो कहानी बनी, वह पिटी-पिटायी फिल्मी साबित हुई । ब्लॉस्ट में पत्नी-बच्ची को खोने के बाद बने स्वयंभू हीरो विवेक ओबेरॉय(रिज़वान) को इतने संसाधन व इतनी सूचनाएं कहाँ से मिलती हैं, लखिया ही लख सकते हैं। साथ में है नये हीरो बने ज़ायेद ख़ान, जिसका किरदार (विवेक साग़र) इतनी कम उम्र में आर्मी से निकलकर ‘आज तक’ का विश्वप्रसिद्ध रिपोर्टर बन गया है और किसी पद व जिम्मेदारी के बिना भी खासे बडे-बडे कारनामे करके आतंकवादी गैंग का खात्मा कर देता है। विवेक को हँसमुख व ज़ायेद को गम्भीर बनाने का बानक चरित्रांकन का सही जोड है, पर दोनो के ठीक करने के बावजूद फिल्म का कोई सही तोड नहीं बन पाता। इनके साथ मिशन में जुडती है श्वेता बजाज, जिसे ध्यान में आने लायक अदाकारी का मौका तो नहीं मिला है, लेकिन उसका चरित्र (लिज़ालोबो) अवश्य काफी रोचक है। ‘डॉन’ की ज़ीनत अमान की याद दिला देता है। और फिर तो आतंकवादियों की रोबोट जैसी गैंग से लडते हुए अमित-प्रान-ज़ीनत की तिकडी भी दिखती है और लाल डायरी के बदले कम्पुटर से उतारी सीडी है। बस, हॉय विवेक से प्यार न कराकर श्वेता को नाहक मरवा डाला !! लेकिन यहाँ पुलिस नहीं आती, क्योंकि जाँबाज़ लडाकू रिपोर्टर काफी हैं। पर दूसरा क्योंकि यह कि यहाँ सिर्फ़ गैंग लड रही होती है। दोनो सरगनों से दोनो हीरोज की आख़िरी, रुटीन और फिल्मी, लडाई अंत में होती है। निकेतनधीर (गज़्नी) की बलिष्ठ देह (बॉडी बिल्डर) काम नहीं आती और इतनी बडी आतंकवादी गैंग के सरगना का इतनी मोटी बुद्धिवाला होने पर पूरी फिल्म के दौरान विश्वास नहीं होता। पहले के खल पात्र स्मगलिंग का धन्धा करते थे और ऊपर से समाजसेवी बने रहते थे। अब धन्धा आतंकवाद का करते हैं और ऊपर से श्रेष्ठ मीडिया कर्मी बने हुए हैं। तभी तो पूरा टर्की उसकी घोषणा पर दोनो हीरो के पीछे पड जाता है...। नये हीरो की नयी हिरोइन श्रिया सरन का अभिनय भी बेजान है और उसका पूरा अंजलि-मामला भी ठूँसा हुआ है, जिसके न होने से कहानी पर कोई फ़र्क़ न पडता । अंत के सस्ते भावुक ड्रामा से भी दर्शक बच जाता और एक रस्मी गीत से भी। यूँ सभी गीत ऐसे ही हैं। अभिषेक बच्चन वाला ‘आइटम नाच-गान’ है, जो फिल्म की तो छोडिए, अभिषेक की पोल एक बार फिर खोल देता है। दूसरी अतिथि भूमिका स्वरूप सुनील शेट्टी तो गोया मरने के लिए ही आये थे..। मज़े का दृश्य जॉर्ज बुश वाला है, जहाँ वे म-न मो-ह-न कहना सीख रहे हैं और हॉल में जाते हुए एक दर्शक ‘मिशन इस्तानबुल’ कहना सीख रहा था... ‘मिशन काबुल’ व ‘मिशन इस्तकबाल’ कहे जा रहा था। जॉर्ज यह भी कह रहे थे कि ‘डोंट टच इंडियंस’ और बाहर निकलते हुए दूसरा दर्शक कहते सुना गया- डोंट सी दिस मिशन यार,...वैसे कहाँ है यह ‘इस्तानबुल’? -सत्यदेव त्रिपाठी

Friday 18 July, 2008

अकेलेदम आतंकवाद को खत्म करने का ‘कॉंट्रैक्ट’ ... रामगोपाल वर्मा का नया हीरो आतंकवाद को खत्म करने का ‘कॉंट्रैक्ट’ लेता है और यह फिल्म का ही कमाल है कि वो ऐसा कर देता है - दो गैंगों का सफ़ाया...वरना तो इस बात में कोई माल नहीं है, यह रागोव को भी मालूम है। तो क्या कर रहे हैं वे ? सफ़ाया आतंकवाद का या जनता की जेब का...? हाँ, हीरोगीरी के सारे सरंजाम के बावजूद आध्विक महाजन काफ़ी सहज संतुलित व सही लगा। ‘अंडरवर्ल्ड का आतंकवाद से मेल’ का नारा - एक और फिल्मी फ़ण्डा ! दो में से एक गैंग का इस्तेमाल आतंकवादी सरगना कर रहा है, तो क्या फ़र्क़ पड जा रहा है? हाँ, कुछ बात वहाँ है, जहाँ दूसरी गैंग का इस्तेमाल खुली व्यवस्था के तहत सरकारी तरह से हो रहा है। कहना चाहिए- ‘सरकार का अंडरवर्ल्ड से मेल’। क्या कर रही है सरकार व सेंसर ? और नया क्या है इसके सिवा इस ‘कॉंट्रैक्ट’ में कि एक पुलिस शूटर को सडकों पर नंगे दौडाता है हीरो। वरना तो पुलिस द्वारा अपराधियों की गैग में मुखबिर भेजना ‘डॉन’ जैसी स्टंट से लेकर ‘द्रोहकाल’ जैसी सार्थक फिल्मों तक में कितनी ही बार हुआ है..! फिर दोनो का मिक्स्चर ...मुखबिर बनाकर भेजने वाले का खात्मा व गैंग की लडकी से प्यार होता है डॉन जैसा, तो भेजने वाले अफसर को सामने मरते देखना व उसके पदचिन्हों पर चलना तथा सबसे बडे अफसर (यहाँ गृहमंत्री) का आतंकवादी से मिला होना है ‘द्रोहकाल’ जैसा..। बस, इस बार मुखबिर बना हीरो अमान भुक्तभोगी है - बमब्लास्ट में बेटी व पत्नी को खो चुका है। वरना उसे मालूम ही न पडता कि आम आदमी की पीडा क्या होती है ? वह तो आतंकवादी सरगना के फ़लसफ़े - “तुम भी शूटर ही हो। किसी के कहने पर लोगों को मारते हो। तुम्हारा कोई अपना वजूद ही नहीं” - का कायल होक्रर फौज की नौकरी छोड चुका है। और 99% दिमाँग वाले ऑफ़िसर को फ़तह के कग़ार पर पहुंचने के बाद भी नहीं पता कि मुखबिर-योजना का अंत कैसे होगा...! ये ही हैं फिल्म के विचारप्रधान होने के दावे के ढहे हुए आधार !! सारी कडाई के बावजूद वह मोबाइल नहीं पकडा जाता, जिस पर हीरो की ऑफिसर से इतनी लबी बातें होती हैं कि हमारा दिल धडकने लगता है और सारे रुटीन के बावजूद यह दिल धडकाना ही इस फिल्म का उल्लेख्य पहलू है, जो कला का न होकर तकनीक का है। बस, संवाद खासे तगडे हैं, जिसमें ‘सिक्रेट’ आदि के प्रसंगों के बनाव उल्लेख्य हैं। यदि उससे आधी दम भी कहानी व बात में होती, तो रामगोपाल वर्मा जैसा कुछ होता...। शेष बहुत सारा तो अलग व खास करने के चक्कर का शिकार हो गया है। किशोर कदम, अमृता सुभाष तो कॉर्टून हुए ही हैं, छोटे राजन जैसा पात्र करने वाला उपेन्द्र लिमये सबसे बडा कार्टून बन गया है। प्रसाद पुरन्दरे की बोलने की अदा ही उन्हें ख़ास बनाती है, पर पोशीदा गुफ़्तगू के लिए वह एकदम बेमेल है। यही हाल ज़ाकिर हुसेन का भी हुआ है। दाऊद की छबि को साकार करते आर.डी. (सुमित) का कोई काम ही नहीं...। बिना दिखाये ही दृश्यं व चरित्र को मशहूर करने की अदा है रागोव की, जो यहाँ भी फलीफूली है...। प्रेम का उत्सर्ग वाला रूप भी अच्छा बना है और इसे निभाती साक्षी गुलाटी भी संतोष जनक हो पायी है। सब कुछ पुराना है, पर बासी नहीं...के थ्रिल का मज़ा लेना हो, तो फुर्सती समय में देख लेने लायक भर ही बन सका है - फिल्म का दर्शकों से ‘कॉंट्रैक्ट’ ...। - सत्यदेव त्रिपाठी

Sunday 13 July, 2008

पुराने फॉर्मूलों को खींचतानकर बनी ‘महबूबा’ का क्या हो...? सफ़ाई देखिए कि करन (अजय देवगन) सपने में लडकी को देखता है और उसे पेंटिग्स में हू-ब-हू उतार लेता है !! स्टुडियो (सॉरी, बैठक है) भर रखा है.। फिर कमाल देखिए कि वह लडकी उसी शहर में है। तब मह्बूबा-महबूबा (फिल्म के नाम को साकार करते हुए) गाते-गाते पीछा करता है, जिसे देखकर लडकी कहती है - ‘नाटकबाज़ी का यह फ़ॉर्मूला बहुत पुराना हो गया है’। निर्देशक अफ़ज़ल खान यह संवाद सुन लेते, तो समझ जाते कि पूरी फिल्लम ही ऐसा बासी फ़ॉर्मूला है- एक फूल दो माली याने प्रेम त्रिकोण का.. बस, दो बातें फ़ॉर्मूले से अलग हैं...1- पहला माली श्रवण धारीवाल (संजय दत्त) प्रेमी नहीं, ‘हर रात इक नया हो बदन’ का व्यापारी है और मानता है कि हर औरत बिकाऊ होती है- चाहे पैसों की कीमत से या वादे की और इसी रौ में पैसे से हार जाने के बाद वादे से फाँसता है और मँगनी के बाद ही भावुक बनाकर रात बिताकर उसके तमाचों का जवाब देकर निकाल देता है...। 2- दोनो माली सगे भाई हैं, जिसका पता दर्शकों को तब लगता है, जब करन अपनी महबूबा को राजी करके शादी कराने अपने घर जाता है, जहाँ ‘हम आपके हैं कौन’ का पूरा बडजात्या-परिवार - रीमा लागू, बिन्दु, हिमानी शिवपुरी..आदि के साथ - तैयार है, जिनके बीच पहला माली ग़म ग़लत करते हुए शराब में ग़र्क हुआ पडा है - ज़ाहिर है उसी फूल के लिए पछ्तावा ...। लेकिन फूल एक ही है - मनीषा कोइराला ; इसका पता चेहरा देखने के कारण दर्शकों को है, पर फूल तो वर्षा से पायल हो गयी है,, इसलिए दोनो मालियों को पता नहीं है। जिस कौमार्य (वर्जिनिटी) की कीमत जीवन में रोज़ घटती जा रही है, उसका भाव फिल्मों में इतना बढा कि कौमार्य-भंग के बाद लडकी नाम तक बदल लेती हैं - गोया एक जीवन ही खत्म हो गया हो...? आख़िर हिन्दी फिल्में बालिग़ कब होंगी ? अब आधी फिल्म में यह भर बचा था कि फूल किस माली का होता है ! पलडा भारी है अजय का, पर हिन्दी फिल्मों में पलडे का वजन देखने पर विश्वास होता, तो हम उठकर चले न आते - ‘हमें क्या बुरा था मरना, ग़र ऐतबार होता’ ! और इस बेऐतबारी के चलते इतनी ग़लाज़त सहनी पडी कि उफ़...भाइयों की लँगोटिया यारी, अपनी-अपनी प्रेमिका की सुन्दरता को लेकर बाज़ियाँ, फ़ालतू के दृश्य व पिटे-पिटाये संवाद, चाय व नाच-गान..यानी ढेरों फिल्मी लटके-झटके...। सबसे जिन्दा बचे, तो देखा- प्रेमिका को त्यागने के लिए दोनो भाई तैयार। बक़ौल मनीषा ‘भाइयों का ऐसा प्यार कहीं नहीं देखा’ और फिर वही बात, जो ‘निक़ाह’ में इससे बहुत-बहुत ज़ोरदार ढंग से सलमा आगा कह चुकी है- मेरी जिन्दगी का फैसला और मुझे बिना बताये ? क्योंकि ‘निक़ाह’ को कुछ कहना था और ‘महबूबा’ को कुछ कहने का इल्म तक नहीं...। तमाम फ़ॉर्मूलों को निभाना तक नहीं आया अफ़ज़ल को- 7-8 साल तक न जाने क्या होता रहा..। बस, सुफल यही कि संजय को ज़रा चुस्त देखना भला लगा। मनीषा अपने रूप की तरह ही सधी-सँवरी है। अजय देवगन ने बहुत कोशिश की, पर पानी पीटने से कहीं रास्ता

Saturday 5 July, 2008

लव स्टोरी- 2050 हैरी बावेजा लिखित-निर्देशित फिल्म ‘लवस्टोरी-2050’ में सना (प्रियंका चोपडा) व करन (हरमन बावेजा) को देखते हुए आधी फिल्म तक यही लगा कि 2050 का प्यार भी वही पहली नज़र वाला ही होगा- बिना किसी कारण व तर्क के...। फिर लडकी के पास बडा अच्छा घर होगा, जहाँ वह अकेली रहती होगी...। परंतु वह घर 2050 में भी सिर्फ हॉय व बॉय करने के काम आयेगा…प्रेमी वहाँ सिर्फ फूल देगा और मिलने का समय तय करेगा...बाकी प्यार तो वे सडकों पर, पहाडों पर, बाज़ारों-मॉलों में गाते-नाचते-कूदते ही करेंगे। [इससे अच्छा उपयोग तो वैजयंती माला (के आदिवासी बाप) के घर का ‘मधुमती’ में दिलीपकुमार कर लेते थे।] बेचारे जावेद अख़्तर ही 2050 में भी गाने लिखेंगे...पर वे गद्यगीत होंगे, जिन्हें संगीतकार गवा देगा। हाँ, उसमें अनिवार्य रूप् से उछल-कूद के लिए जावेद जी गैप्स छोडेंगे और संगीतकार उन गैप्स पर अपने ख़म रख सकेगा...ठीक है कि एकाध गीत इसके अपवाद होंगे, जिसे 2050 का समय अवश्य माफ़ नहीं करेगा..। हाँ, 2050 में भी बिछडते हुए दोनो रोयेंगे। मैं यह सब देखकर पहले तो कम्बख़्त 2050 के समय को कोसने लगा...। पर फिर आश्वस्त हुआ कि चलो, बाग-बागीचों-नदियों-वादियों में आधे-पौना घंटे गा-नाच कर प्यार को प्रतिष्ठित करने की देवानन्द-राजकपूर युग की विरासत ज्यों की त्यों सुरक्षित तो है...ठीक है कि वादियां विदेशी (आस्ट्रेलियाई) हैं, क्योंकि देसी वाली बार-बार आकर बासी हो गयीं हैं...। तब के निर्देशक तरसते थे कि काश, अंग्रेजी फिल्मों की तरह छूट होती, तो एक चुम्बन से पाँच सेकेंड्स में यह काम हो जाता...। और आज तो छूट के बावजूद आधी-आधी फिल्म में वही हो रहा है, क्योंकि करें क्या...? तो हुआ न परम्परा-पालन ! इस रौ में लडकी की माँ (अर्चना पूरन सिंह) ज़रूर बडी मॉडर्न होगी कि होटेल में दोनो के लिए ऑर्डर देकर ख़ुद खिसक लेगी, पर वह 2050 में भी कुंडली जरूर मिलवायेगी...परम्परा...! और इसके लिए नायक के चाचा ज्योतिषी-वैज्ञानिक (वोमन ईरानी) मौजूद, पर वे असल में क्या कर रहे हैं, शायद वोमन को ही मालूम हो...। उनकी बनायी टाइम मशीन में बैठकर नायिका ‘2050 मुम्बई’ लिखती है, तब पता चलता है कि यह तो 2008 ही था...। तब तक नायिका एक आइस्क्रीम लिए रोड पार करते हुए मोटर से टकराती है व प्रेमी की बांहों में दम तोड देती है...ठडे-ठंडे होठों से एक किस देने का वायदा धरा का धरा रह जाता है - बेचारा हरमन !... पर किती शालीन है फिल्म !! अब मध्यांतर के बाद जाते हैं - 2050 की मुम्बई में, जहाँ सना का पुंनर्जन्म हो चुका है। वह एक सुपरस्टार डांसर है। शायद 2050 की मुम्बई में जवान ही पैदा होंगे- बच्चा पैदा करके कौन पाले-पोषे ? परिवार रोबोट हैं व आसमान में उडते वाहन हैं। पूरा परिवेश आसमानी रंग का है। शायद तकनीक के बल बनायी यही विज्ञान-कथा है...। लेकिन यहां भी फ़र्जी पहचान पत्र बनते हैं। विलेन होते हैं - नक़ाबपोश रोबोट । लेकिन अकेले करन सबकी ताकतों पर भारी पडता है - आख़िर हीरो है, फिर निर्माता-निर्देशक परिवार का राजकुमार भी...। काया भी हिरोइक और काम में भी दम...। प्रेमिका को खोजता ही नहीं, पहचनवा भी लेता है - डायरी तक ले जाना नहीं भूला था...। और प्रेमिका भी तो हसीन-दिलदार - पहली बार भायी प्रियंका ...। बडा मज़ा आया यह देखकर कि कभी पुराण-काल में पतिव्रता सावित्री अपने मरे पति को यमराज से माँग लायी थी- 2050 की मुम्बई में प्रेमिकाव्रती प्रेमी होंगे, जो दूसरे जनम से खींच लायेंगे प्रेमिका को...। जय हो टाइम मशीन की...जिसमें हिरोइन के घर के छोटे-छोटे बच्चे भी आ गये थे...। बच्चों को बोर करता होगा प्रेम व बडों को बोर करता है कथा विहीन फिल्म का बचकानापन...। इस तथ्य का पता चल गया होता, तो अपनी नयी कल्पना की कथा व कला को सँवार सकते थे हैरी बावेजा... -सत्यदेव त्रिपाठी