Saturday 17 May, 2008

‘जन्नत’ का रास्ता - ईमाँ या कुफ़्र...?

‘जन्नत’ का रास्ता - ईमाँ या कुफ़्र...? चचा ग़ालिब के ज़माने में शायद यह द्वन्द्व जिन्दा था, जब उन्होंने लिखा था - ‘ईमाँ मुझे रोके है, खैंचे है मुझे क़ुफ़्र...’, लेकिन आज वह बात नहीं रही - क़ुफ़्र का जलजला तारी है... और ईमाँ की बेसिक समझ ही नदारद हो गयी है... लेकिन हमेशा की तरह भट्ट कैम्प ने अपनी नयी फिल्म ‘जन्नत’ में भी इस द्वन्द्व को क्या खूब जिन्दा रखा है...। क़ुफ़्र का सरताज़ है - हीरो अर्जुन (यह नाम हिन्दी फ़िल्मों को इतना प्रिय क्यों है !)। उसकी जन्नत का मतलब स्वर्ग नहीं, ऐशगाह है, जिसे वह जूए के बाद क्रिकेट पर दांव लगाने से होते हुए मैच-फिक्सिंग के ज़रिए झटपट में पा लेना चाहता है। झटपट में वह इतना बडा बूगी और फिर सबसे बडे डॉन का मैच सेटर कैसे बन जाता है, के लिए कहानी ने अर्जुन की छठीं इन्द्रिय (सिक्स्थ सेंस) जाग्रत कर दी है। इस बेवजह की वजह. से वह हर मैच के परिणाम का सही अन्दाज़ लगा लेता है। अब तो फिल्म की सतही समझ वाले इसे क्रिकेट की फिक्सिंग वाली फिल्म कह कर पल्ला झाड लेंगे। और इसे पिछले विश्व कप के वूल्मर-हादसे जैसी तमाम घटनाओं से जोड देंगे..। ख़ैर, इस काम के भरोसे वह अपनी जन्नत के एकदम करीब पहुँच जाता है- क़ुफ़्र का जल्वा...! पर इस भयावह लत तथा सिक्स्थ सेंस के साथ उसकी ‘जन्नत’ का एक अहम हिस्सा है - महबूबा ज़ोया, जिस पर पहली ही नज़र में दीवाना हो जाता है अर्जुन (दीवानगी की अदा के लिए फिल्म देखें) । सचमुच तो उसी के लिए वह डॉन का सेटर भी बनता है । और उस ज़ोया में कहानी ने कूटर्‍-कूट कर भर दिया है - ईमाँ। जूए के ज़माने से ही अर्जुन को सुधारने के पीछे पडा है - उसके मूल्यनिष्ठ पिता का मुरीद पुलिस इनस्पेक्टर ...। फिर तो दोनो (पक्षों) के बीच टक्कर शुरू। ज़ोया अर्जुन को पकडवा देती है। अर्जुन अपने रास्ते से यही समझता है कि पैसों के लिए ज़ोया ने ऐसा किया है, लेकिन डॉन की मदद से छूटकर आने पर पता चलता है कि वह तो अर्जुन की राह देख रही है और फिर से जिन्दगी शुरू करने के लिए क्लबों में नाचकर पैसे जुटा रही है। अब कश्मकश शुरू होती है - ज़ोया कुफ़्र के साथ रह नहीं सकती और अर्जुन ईमान पर चल नहीं सकता। अर्जुनों के बनने के कारण पर भी नज़र है । अर्जुन को याद है कि उसके माँ-पिता खिलौनों वाली सडक से उसे नहीं ले जाते थे..। उसे अपने बच्चे से इस तरह नहीं बचना है...। ऐसे अर्जुन को मारने के बाद इस कारण का जवाब भी देती है फिल्म, जब कम पैसों के कारण माँ ज़ोया को घर के जरूरी सामान लौटाते देखकर उसी अर्जुन का बेटा अपना खिलौना वापस कर देता है। याने जरूरत व विलासिता की समझ ही असली जन्नत बना सकती है। लेकिन वह बनेगी कैसे ? डॉन के रूप में कुफ़्र का सरगना तो जिन्दा है। याने कशमकश जारी है...। अर्जुन बना इमरान हाशमी इस कश्मकश को वैसा निभा नहीं पाता - जैसा कुफ्र को जी पाता है। कुफ़्र को छोडने जैसा जल्वा तो उसकी ज़ोया बनी सोनल चौहान का है भी नहीं। उसकी ईमाँ की ज़िद भी उसी की तरह नाज़ुक रह जाती है...। क्या यह सब भी इसी आज के पतनशील समय के असर का ही संकेत है ? कोई गीत-संगीत तो दिल को नहीं छू पाता, पर डॉन यूँ समझाता है कि क्रिकेट पर दाव लगाना ईमाँ का काम ही लगने लगता है । क्या यह भाषा भी इसी समय की देन है ? ये सब युग-सत्य के चेहरे की भयावह छबियाँ हैं। इनको उतना खुलकर न दिखा पाना एवं दोस्त व इंस्पेक्टर के चरित्र को कठ्पुतली-सा बना देना... क्या निर्देशक कुणाल देशमुख पर भी समय के दबाव के परिणाम हैं या कौशल की कमी...? इंस्पेक्टर के मना करने के बावजूद समर्पण के लिए तैयार अर्जुन को मार गिराने की ज़बर्दस्ती के बाद ज़ोया ठीक ही कहती है - यू बास्टर्स...। तो, यह सब देखने के लिए आँखें खुली रखना हो, तो एक बार इस ‘जन्नत’ में हो आना बुरा नहीं है...। - सत्यदेव त्रिपाठी