Saturday 20 June, 2009

हबीब तनवीर को एक श्रद्धांजलि भारतीय रंगकर्म से भारतीयता का जाना ... - सत्यदेव त्रिपाठी - हबीब तनवीर का जाना अनपेक्षित न था, पर 8जून, 2009 को यह ख़बर एक आघात की तरह लगी। मन से उठी ‘हाय’ शब्दों में यूँ निकली – ‘आज भारतीय रंगकर्म से भारतीयता चली गयी...’। जी हाँ, उनके हर नाटक को देखते हुए इस बात का गहरा अहसास होता था कि हम सच्चे अर्थों में एक भारतीय नाटक देख रहे हैं। इसका एक बडा कारण यह है कि हिन्दी के बाकियों में यह अहसास प्राय: नहीं होता या कभी-कभार होता है। मराठी-बँगला आदि में प्राय़: होता है – बहुत कुछ भाषा के कारण भी। किंतु हबीब साहब में हर क्षण महसूस होता है कि ‘ये है भारतीय नाटक...’। वे संस्कृत के क्लासिक (मृच्छकटिकम, मुद्राराक्षस, वेणीसंहार) करें या शेक्सपीयर (मिड समर नाइट ड्रीम- कामदेव का अपना, वसंत ऋतु का सपना) करें, आप को नहीं बताया जाये या आपने वह न पढा हो, तो कतई नहीं जान पायेंगे। क्योंकि हबीब साहब के नाटक शैली-शिल्प, विधान-वितान, भाव-भाषा, तमीज़-अन्दाज़, गीत-संगीत... हर कुछ में याने सर से पाँव तक इस कदर खाँटी भारतीय होते हैं कि भारतीयता को परिभाषित करते हैं। उसे देखकर भारतीयता के निकष निर्धारित किये जा सकते हैं। और हबीब साहब ने यह भारतीय रसायन तब अपनाया, जब इप्टा से लेकर बाल नाट्य, रायपुर-अलीगढ से लेकर मुम्बई-दिल्ली और रेडियो-फिल्म से लेकर राडा (रॉयल अकैडेमी ऑफ़ ड्रैमेटिक आर्ट) के प्रशिक्षण तथा योरप के तमाम स्थलों के थियेटर व कला का अनुभव-अर्जन कर चुके थे। इस सबके बाद हुआ यूँ कि वे रायपुर गये थे अपनों से मिलने-जुलने और वहीं अपने बचपन के स्कूल में ‘नाचा’ की एक प्रस्तुति देखने का मौका मिल गया। विदेश में थियेटर के अनुभव के बाद जब उन्होंने उन कलाकारों की सहज-प्राकृतिक कला देखी और तो इलहाम की तरह पाया कि यही असली रंगमंच है। तय किया कि इन्हीं के साथ अपनी शैली में थियेटर करना है। वहीं से छह कलाकारों को लेकर गये। यह फैसला मामूली न था। पर बात अंतस से निकली थी। ऐसे ही उन्होंने राडा के प्रशिक्षण में भी किया था। जहाँ जाने के लिए सब लोग तरसते हैं, उसे उन्होंने उस प्रतिष्ठित संस्थान व छात्रवृत्ति देने वाले भारतीय दूतावास आदि सबकी नाराज़गी के बावजूद एक साल बाद छोड दिया था। क्यों? उन्हीं के शब्दों में सुनिए – ‘यदि मैं यहाँ और अधिक रुकता हूँ, तो एक अभिनेता के रूप में आडम्बरपूर्ण और अस्वाभाविक हो जाऊँगा। मैं अंग्रेजी में नहीं, वरन अपनी भाषा में अपनी रंग सक्रियता को जारी रखने के लिए वापस जाऊँगा। यहाँ प्रयुक्त होने वाले नियम और सिद्धांत मेरी भाषा में और मेरे देश में काम नहीं आयेंगे’। यही बात ब्रेख़्त को लेकर भी है। ब्रेख़्त इन्हें पसन्द हैं। प्रवास के दौरान उन्हें ख़ास तौर पर समझने गये थे। उनसे प्रभावित हैं। पर वही कि अन्धानुकरण पूर्वक नहीं, ब्रेख़्त को अपने देश-काल की तरह भारतीय मुहावरे में ढालकर लेने के हामी हैं। और ऐसा हुआ भी, वरना एडिनबरा नाट्योत्सव में ‘चरनदासचोर’ देखकर कोई समीक्षक कैसे कहता – ‘लोकनृत्य और गीतों से सजी इस प्रस्तुति में संस्कृत परम्परा और ब्रेख़्त का अद्भुत समन्वय है’। याने भारतीयता का यह जज़्बा शुरू से ही सवार था, जिसने ऐसा फैसला कराया। इस निश्चय के साथ उन्होंने ‘नया थियेटर’ की स्थापना की। और बस, वही खाँटी माटी उनकी पहचान बनी, ख़ासियत बनी। उन्हीं ठेंठ गँवईं कलाकारों के साथ वे आजीवन काम करते रहे। अपनी भाषा को उन्होंने जड से उठाया - हिन्दी नहीं, छत्तीसगढी। सूरदास ने ब्रज भाषा को राष्ट्रीय भाषा बना दिया था और कहना अत्योक्ति न होगी कि हबीब तनवीर ने छत्तीससगढी को रंगमंच की राष्ट्रीय भाषा तो बनाया ही, अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी उसका लोहा मनवाया। जब हिन्दी तक न बोल सकने वाले कलाकारों व एक अंचल की भाषा में बने नाटकों – चरनदासचोर, माटी की गाडी, मिर्ज़ा शोहरत, बहादुर कलारिन आदि...- को लेकर राडा की उसी धरती पर गये, तो जो कह कर राडा को छोडा था, मानो वह सिद्ध ही कर दिखाया। फ़रमाइश कर-करके ‘चरनदास चोर’ के शोज़ वहाँ कराये गये। छठें दशक से शुरू हुए उनके विशुद्ध भारतीय रंगकर्म ने भूमंडलीकरण व बाज़ारवाद के दौर भी देखे और वैसे ही पसन्द किये जाते रहे – बल्कि बढते रहे। और इन नये विकास से लुभाये, इसकी आड में अपनी भारतीयता व अपने लोक को भुलाकर भागने वाले आज के युग को मानो हबीब साहब बता गये हों कि भाई, सही अर्थों में लोकल हुए बिना ग्लोबल नहीं हुआ जा सकता। इसे लोग ‘लोक नाट्यकर्म’ कहते हैं, पर हबीब साहब इसे लोक के आगे का रंगकर्म मानते हैं। हालाँकि इस पॉप्युलर टर्म (लोक) के सामने उनका यह कहना माना नहीं जा सका - चलन में नहीं आया। यह हस्र साहित्य की उसी आँचलिकता वाला ही है, जो आज़ादी मिलने के बाद ‘गाँवों की ओर चलो’ की समझ के साथ आयी थी। वे लोग तो कहते रहे कि इसके दृश्य आँचलिक भले हों, दृष्टि आँचलिक नहीं है, पर वह माना कहाँ गया। हबीब साहब की रंगदृष्टि व प्रयोग-सृष्टि को ऐसे संकीर्ण दायरे में नहीं डाला जा सका, तो यह श्रेय उनके रंगकर्म की व्यापकता को है और सुपरिणाम थियेटर जगत की सही समझ का - नाट्य-समीक्षा के अभाव के बावजूद। किंतु हबीब साहब के इस लोक की ओर आने को उसी युग-प्रवाह के साथ जोडकर ही देखा जाना चाहिए। नाम भी वही उस दौर वाला है – ‘नयी कविता, नयी कहानी’ और ‘नया थियेटर’। लोक के आगे की बात यथार्थ और प्रतिबद्धता की है। ‘लोक’ उनका माध्यम है - शैली-शिल्प है। पर इतना पुरज़ोर व इसीलिए इतना पुरअसर है कि लोग उसी में उलझकर रह जाते हैं। उसी को उनके नाटकों का मक़्सद मान लेते हैं। हबीब साहब का ‘इससे आगे जाकर असली मक़सद तक पहुँचने’ का आह्वान इसी यथार्थ व प्रतिबद्धता को समझने का है। पर लोग भी क्या करें ? यह विधान बना ही ऐसा सटीक, मौलिक व मौजूँ है कि आदमी का उलझ कर रह जाना लाज़मी है – ‘दिया है दिल अग़र उसको, बशर है, क्या कहिए ’ ! लेकिन जो अध्येता उससे आगे जाते हैं, वे साफ़-साफ़ देख पाते हैं कि हबीब साहब का नाट्यकर्म बामपंथी सोच से संवलित है। इप्टा के साथ उस दौर में रहना भी इसका प्रमाण है। यह इस हद तक भी है कि इनके रंगकर्म को ‘पोलिटिकल थियेटर’ कहने वाले ऐसे लोग भी हैं, जिनकी आस्था मार्क्सवाद-विरोधी है या जो हबीब साहब के नाट्यकर्म के समक्ष बौने होने लगते हैं। परंतु इनकी दृष्टिबेधकता और जैसा कि कहा गया, ग़ज़ब के रंगबोध से बने सृजन से ऐसे कथनों का संहार अपनेआप होता गया...। यह सृजन मुख्य धारा से किनारे कर दिये गये लोगों की पीडा का चितेरा है। जाति-पाँति, धर्म-सम्प्रदाय, धनी-ग़रीब...जैसे भेदों को खत्म करके समानता व स्वतंत्रता की स्थापना पर आधारित मनुष्यता का पक्षधर है। और ये मूल्य किसी लेबल के बिना भी हमारे लोक में मौजूद रहे हैं और हैं। इसी को हबीबजी ने भारतीयता के पर्याय के रूप में अपनाया व साधा है। लोगों तक पहुँचाया है, जो बख़ूबी पहुँचा भी है। यह इनके यहाँ प्राय: शोक या यंत्रणा बनकर नहीं आता, व्यंग्य-विद्रूप-विनोद या विरोध बनकर आता है। ध्यातव्य है कि ये वृत्तियां भी हमारे लोक की हैं। सच्ची भारतीयता हर ज़ोर-जुल्म से विरोध में बसती है। और हबीब साहब की जुझारू वृत्ति किसी से छिपी नहीं। उनकी रंगयात्रा में विरोधों से जूझने के जितने पडाव है, उतने शांति-सुक़ून के नहीं हैं। शायद इसी में उन्हें शांति-सुकून मिला करता था। वरना ‘पोंगा पंडित’ के ख़िलाफ़ जो कुछ हुआ, कोई दूसरा होता, तो टूट भी सकता था। या तो नाटक बन्द कर देता या समझौता कर लेता। लेकिन हबीब साहब अस्सी पार की उम्र में भी और साम्प्रदायिक शक्तियों के सत्ता-काल में भी इससे विचलित हुए बिना इस राह पर चलते रहे। और चुपचाप नहीं, बल्कि हर प्रतिरोध पर रिऐक्ट करते रहे। प्रतिरोधी शक्तियों के पास समझ होती, तो वे देख पाते कि यदि पोंगा पंडित में ब्राह्मणी लालच व कर्मकाण्डी ढ्कोसलों की पोल खोली गयी है (और यह तो तमाम हिन्दू लेखकों ने भी कितनी बार खोली है- मोटेराम की डायरी, प्रायश्चित्त..आदि), तो मुस्लिम कट्टरपंथियों को और अधिक बेनक़ाब करने वाला ‘जिस लाहौर नहिं देख्या’ भी तो उन्होंने खेला है, जिसमें सीधा व सीरियस आक्रमण है - पोंगा पंडित जैसा हास्य-विनोद नहीं। विवाद ज्यादा हुए इसी धार्मिक मामले को लेकर, पर हबीब साहब के यहाँ व्यवस्था पर चोट करने का जज़्बा ज्यादा है, लेकिन इस पर बवाल करने का अब रवाज़ नहीं रहा – शायद अपने बेपर्द होने के डर से व्यवस्थापक ही नहीं होने देते। ‘सडक’ जैसे नाटक इस थीम के सिरमौर हैं, पर मैं यहाँ एक दुर्लभ उदाहरण देना चाहूँगा, जो एक सम्पूर्ण नाट्यकर्मी हबीब साहब के शायर रूप का है। कहने की बात नहीं कि वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता के कार्यकाल में यह मामूली-सी लगने वाली कविता सुनायी थी। आप स्वयं देखें उसकी मार्मिकता...। शीर्षक है- ‘रामनाथ’ – “रामनाथ ने जीवन पाया साठ साल या इकसठ साल रामनाथ ने जीवन में कपडे पहने कुल छह सौ गज पगडी पाँच, जूते पन्द्रह रामनाथ ने अपने जीवन में कुल सौ मन चावल खाया सब्जी दस मन, फाके किये अनगिनत, शराब पी दो सौ बोतल अजी पूजा की दो हजार बार रामनाथ ने जीवन में धरती नापी कुल जुमला पैंसठ हजार मील सोया पन्द्रह साल। उसके जीवन में आयीं, बीवी के सिवा, कुल पाँच औरतें एक के साथ पचास की उम्र में प्यार किया और प्यार किया नौ साल सत्तर फुट कटवाये बाल और सत्रह फुट नाख़ून रुपया कमाया दस हजार या ग्यारह कुछ रुपया मित्रों को दिया, कुछ मन्दिर को और छोडा कुल आठ रुपये उन्नीस पैसे का कर्ज़... ...बस, यह गिनती रामनाथ का जीवन है इसमें शामिल नहीं चिता की लकडी, तेल, कफ़न, तिरही का भोजन रामनाथ बहुत हँसमुख था उसने पाया एक संतुष्ट-सुखी जीवन चोरी कभी नहीं की- कभी कभार कह दिया अलबत्त बीवी से झूठ एक च्यूँटी भी नहीं मारी – गाली दी दो-तीन महीने में एक आध बच्चे छोडे सात भूल चुके हैं गाँव के सब लोग अब उसकी हर बात रामनाथ ‘नया थियेटर’ है तो लोकाधारित, उसी से निर्मित; लेकिन उसे ‘पेशेवर रंगमंच’ (प्रोफेशनल थियेटर) बनाने की कल्पना की हबीब साहब ने – शायद रंगमंच को पेशेवर बनाने का यह आइडिया हिन्दी थियेटर में पहली बार तभी आया। लोक और पेशा में मूलत: अंतर्विरोध रहा है (मैं आज की बात नहीं कर रहा हूँ, जब सब कुछ ही पेशे तो क्या बाज़ार में तब्दील हो गया है), पर ऐसे अंतर्विरोधों को साधना ही तनवीर साहब को ‘हबीब’ रहा है और उन्होंने इसे भी करके दिखा दिया। तात्पर्य यह नहीं, कि पेशे के रूप में सफल कर गये, बल्कि यह कि अप्रोच पेशेवर हो गयी। उदाहरण के लिए जिस भी नाटक को जब कहिए, प्रस्तुत कर देने के लिए तैयार। इसकी सिद्धि के लिए जो सबसे बडा परिवर्तन किया हबीब साहब ने, वह प्रस्तुति को सेट के तामझाम से मुक्ति का है, जिससे कि जब जहाँ चाहो, खेल दो। इसे तकनीकी भाषा में ‘प्रोसिनियम से निकाल कर जनता के बीच में ला देना भी कहते हैं। वे कहा करते थे कि कहानी को कहने में जितने भी अवरोध आते हैं, उसे बेधडक निकाल दो। दीवारों के बीच न कला पनपती, न कलाकार। लेकिन अब इस चर्चा को यहाँ रोक देना होगा, वरना जिस थ्रियेट्रिकल गैल में जाना पडेगा, उसके लिए यह स्थल नहीं है। हाँ, तो इसी सब के चलते माटी की गाडी, आग़रे बाजार, चरनदास चोर, बहादुर कलारिन, गाँव क नाँव ससुरार मोर नाँव दमाद, ...आदि जाने कितने ही नाटक हमेशा चलते रहे – फिर-फिर बनते रहे...। ‘आगरे बाज़ार’ पहले एक लघु रूपक था। फिर पूर्ण नाटक बन गया। ‘जिस लाहौर नहिं देख्या’ को ‘डब्ल्यू एस एफ, मुम्बई’ में मैंने 45 मिनट का देखा और पूरा देख चुके मुझे भी वह अधूरा या सम्पादित नहीं लगा, तो पहली बार देखने वालों को क्या लगा होगा ! इस नाटक को मैंने समय-समय पर घटी घटनाओं के मुताबिक इम्प्रोवाइज़ करके करते देखा है और मूल संवेदना पर कोई फ़र्क़ नहीं पडता। सो, पेशेवर से मूलत: मेरा मतलब यह था। हाँ, दो-ढाई दर्जन कलाकारों को नौकरी देना तथा समूह के लिए स्थल व संसाधन मुहय्या करा लेना तो है, पर वह मामला ज्यादा सरकारी है। यहाँ विवेच्य नहीं। हाँ, इसे लेकर प्रवाद भी कम न थे, जिसमें अफ़वाह ही ज्यादा रही, जिसका प्रमाण शायद आगे मिल सकें...। अपनी इन थियेट्रिकल मान्यताओं तथा उसे साधने वाले रंगशिल्प व उसे साकार करने वाले उन ठेंठ कलाकारों को हबीब साहब ने कैसे-कैसे साधा... आदि, पर ढेरों सामग्री मौजूद है– लोगों की लिखी, ख़ुद उनकी लिखी व तमाम साक्षात्कारों मे उनकी कही। जैसे वे जमकर नाटक करते, उसी तरह जमकर लिखते-बतियाते भी। पर मेरा ही दुर्भाग्य रहा कि कई अवसरों के बावजूद कोई बातचीत तैयार न हो पायी। पहले अवसर का जिक्र रोचक होगा... मुझे गोवा (विश्वविद्यालय) में गये कुछ ही दिन हुए थे कि पंजिम के कलाअकादमी में ‘माटी की गाडी’ का शो होने की ख़बर मिली। दिल बल्लियों उछलने लगा... मुम्बई छोडने के कुछ ही दिनों पहले ‘पृथ्वी नाट्योत्सव’ में ‘आग़रे बाज़ार’ देखकर गया था- ख़ुमारी उतरने का नाम नहीं ले रही थी। वहाँ छोटी जगह में ऐसे अवसर यूँ भी कम आते हैं और फुर्सत कुछ ज्यादा रहती है। सो, झटपट एक इंटरव्यू की योजना बना डाली। उनके आते ही जाकर मिला और शो के तुरत बाद का समय भी मिल गया। औपचारिक अभिवादन एवं सदिच्छा-संवाद के अलावा यह मेरी पहली मुलाकात थी। ज़ाहिर है, बेहद उत्साहित था। शो देखकर और ‘चार्ज्ड’ हो गया। हबीब साहब ने ‘राजा का साला’ की भूमिका की थी। मज़ा आ गया था। नेपथ्य में पहुंचा और पाँच मिनट में प्रशंसकों के जाने के बाद हबीब साहब ने बातचीत शुरू करने का इशारा किया और गहन मेकअप को स्वयं उतारते हुए सारे प्रश्न सुनने की इच्छा जाहिर की। मैंने एक-एक सवाल पढना शुरू किया- वे स्वीकार में सिर हिलाते रहे...कि 3-4 सवालों के बाद एक सवाल आ गया, जो मामला थोडे ही दिनों पहले ‘संडेमेल’ में पढने को मिला था – ‘आपके और रामचन्द्र देशमुख के छत्तीसगढी रंगकर्म मे क्या अंतर है और किन मुद्दों पर आप दोनो में मतभेद है’ ? उनका तेवर थोडा-सा बदला, प्रतिप्रश्न आया – तो, आप यह भी लिखने वाले हैं? मैं ज्यादा कुछ भाँप न पाया और उसी रौ में कह गया- आप जो जवाब देंगे, उसे ज़रूर लिखूँगा... बस, वे झटके से यूँ खडे हुए कि मैं डर ही गया। दरवाज़े का रास्ता दिखाते हुए गरजे- ‘निकल जाइए आप। मुझे कोई बात नहीं करनी आप से...’। सबकुछ अचानक बदल गया। मैं चकित, अवाक...मामला समझने की कोशिश कर रहा था और वे न जाने क्या-क्या तडकते जा रहे थे। आवाज सुनकर मोनिकाजी (उनकी पत्नी) आयीं। उन्हें शांत किया। मुझसे पूछा कि मैंने क्या कह दिया...। बताया कि उन्हें हाई बीपी है। फिर पानी आया। शायद चाय भी पी गयी। उनका मेकअप उतरा। हम किसी और केबिन में बैठे। बातें हुईं। पता लगा कि रामचन्द्र देशमुख लोकनाट्य के नाम पर कमाने-खाने का धन्धा करते हैं और अख़बारों वग़ैरह में अपने को हबीब साहब के प्रतिस्पर्धी के रूप में प्रोजेक्ट करते हैं, जो इन्हें बहुत नाग़वार लगता है। कायदे से बात पूरी भी हुई, पर मैं लिख न सका- शायद जिस बेक़ायदे से शुरुआत हुई, उससे मन बिदक गया– इतना बडा कलाकार इतनी-सी बात पर इतना बेक़ाबू कैसे हो सकता है, का दंश सालता रहा। अन्दर से बिदकना ऐसा रहा कि लेंस का कवर खोले बिना ही मैंने फोटोज़ ले डाले थे, जिसका पता घर जाकर लगा। यह 18 साल पहले की बात है, वरना ऐसा न होता...। पर उनके काम इतना मुतासिर रहा कि नाटक देखते रहा। गोवा के बाद मैं पूना चला गया। वहाँ ‘थियेटर अकादमी’ के फेस्टिवल में भेंट हुई। उन्होंने पहचाना नहीं, मैं क्यों बताता? अच्छा ही लगा- कटु स्मृति नहीं रही। याद आता है कि ‘बाल गन्धर्व’ में सुबह खुली बातचीत थी। बंसी कौल भी मंच पर थे- नाटक लेकर आये थे। दोनो से बातचीत शायद महेश एलकुंचवारजी कर रहे थे। कोई गीत गाने की फ़रमाइश हुई। बंसी भाई बगली काट गये, तो हबीब साहब से विनम्रतावश कहा गया कि आप अपने किसी कलाकार से गवा दीजिए। मुझे उनके शब्द याद हैं। खींचकर बोले थे– ‘क्यूँकर? तक़ाज़ा मुझसे हुआ है’। और अपना वो प्रिय ‘पॉप्युलर’ गीत सुनाया था- ‘सास गारी देवे, ननद मुँह लेवे, देवर बाबू मोर...सइंया गारी देवे, परोसी ग़म लेवे...’। और इन तमाम रूपों से समझ में आया ‘प्रतिभाएं जुनूनी हुआ ही करती हैं’ (कबीर के लिए द्विवेदीजी की कही बात)। नये सिरे से बात करने की इच्छा बलवती होती रही...। आख़िरस, भोपाल जाकर बात करने का समय लिया, पर दुर्दैव ने पीछा नहीं छोडा। निश्चित तारीख़ से एक सप्ताह पहले ख़बर आयी - उसी वक्त हबीब साहब को कहीं जाना पड गया और बात रह गयी। भेंट हुई 2003-4 में जाकर इप्टा, रायगढ के नाट्योत्सव में, जो हबीब साहब पर ही केन्द्रित था। मैं ख़ास प्रेक्षक के रूप में आमंत्रित था। छह दिन साथ रहने का मौका मिल रहा था। पहुँच गया। फिर तो उठना-बैठना, खाना-पीना साथ होता। तमाम बातें होतीं। रिहर्सल देखते। बस, रात को सोने भर नज़रों से दूर रहते। उस वक्त वे 80 साल के पार थे और उनकी सक्रियता हैरत में डालने वाली थी। 16-17 घंटे काम करते। स्मृति ग़ज़ब की...! सब कुछ याद। किसी भी विषय पर एकदम अपडेट। ढेरों बातें होती रहीं, पर जानबूझकर छिट-फुट ही। क्योंकि आयोजकों ने विधिवत साक्षात्कार का एक सत्र रखा था; जिसमें तमाम श्रोताओं के बीच मुझे उनसे बात करनी थी। वह समय आया भी, बातें खूब जमकर हुईं। हबीब साहब अपने स्वभाव व सुभाव के मुताबिक खुलकर बोले। याद में बस गये एक उदाहरण का मोह-संवरण नहीं कर पा रहा हूँ...। उनके व्यस्त कार्यक्रम को सुनते-सुनते बीच में चुहल के अन्दाज़ में पूछ बैठा था- इतने कामों के बीच शादी का समय कैसे निकाल पाये? उन्होंने तपाक से कहा - मोनिकाजी के पक्ष वालों का दबाव बढता जा रहा था। मेरे काम कम होने का नाम नहीं ले रहे थे। एक दिन घेराव जैसा कर लिया। बस, मैंने कैलेंडर खोला। बताया कि देखो – ये-ये तारीखें शो की हैं। ये-ये रिहर्सलों की हैं। इस-इस दिन मीटिंग है। ये व्याख्यान है। ये वर्कशॉप है...अच्छा लो, ये एक डेट खाली है। उस दिन करना है, तो जहाँ कहो, मैं आ जाऊँ। ये नहीं हो पाया, तो मैं कह नहीं सकता कि कितने दिनों लग जायेंगे कोई खाली दिन पाने में। चुनांचे उसी दिन हो गयी। बस ! मैंने चुहल आगे बढा दी – फिर हनीमून कैसे मना? हबीब साहब उतने ही तपाक से– वो तो आज तक नहीं मना। ...ग़रज़ ये कि ऐसी बहुत-सी बातें हुई थीं। लगभग दो घंटे रेकॉर्डिंग लाइव कैमरॉ में दर्ज़ हुई। हबीब साहब से टुकडों मे हुई ढेरों बातों को मिलाकर सोचा था कि बढिया-सी स्टोरी बनाऊँगा। उनकी कार्य- पद्धति देखी थी। अपनी टीम के साथ उनके सलूक का चश्मदीद हुआ था। बडा सुन रखा था कि शोषण करते हैं। उनसे नौकरों की तरह पेश आते हैं। इसीलिए मैंने लगभग सभी सदस्यों से बातें की थीं। पहले कोई तैयार न हुआ। शायद हबीब साहब के कानों तक बात पहुँची। उन्होंने कुछ कहा होगा। फिर सबने बातें कीं - नगिन (उनकी एकमात्र संतान) ने भी। कुछ ने कम, कुछ ने ज्यादा। पता लगा कि सभी कलाकार ख़ुश हैं। मानते हैं कि ‘साहब’ न होते, तो उन्हें कौन पूछता? हबीब साहब सबकी निजी समस्याओं से भी वाक़िफ़ रहते हैं। उन्हें हल भी करते हैं। हर तरह की बातें उनसे होती हैं। एक मज़ेदार बात मालूम हुई कि रामचरन निर्मल ने एक व्यंग्य-विनोदभरी कविता लिखी है हबीब साहब पर। किसी को न बताने की शर्त पर उसने मुझे सुनायी और मैंने लिख ली। बाद में पता लगा कि सभी जानते हैं। सभी सुन चुके हैं। पता हबीब साहब को भी है- शायद सुनी भी हो। तो क्या निर्मल मुझे बना रहा था या परीक्षा ले रहा था। इस वक़्त मैंने खोजी, तो फाइल में दबी पडी मिल गयी। आप सुनना चाहेंगे? क्या छिपाना, जब सभी जानते हैं ! असली मज़ा आयेगा, उन्हें जानने वालों को। “होकर कौतूहल के बस में/ गया एक दिन मैं सर्कस में भै बिस्मय के काम अनोखे/ देखे बहु व्यायाम अनोखे एक बडा-सा बन्दर आया/उसने झट्पट लैम्प जलाया डट कुर्सी पर पुस्तक खोली/आ तबतक मैना यूँ बोली- हजिर है हुज़ूर का घोडा/चौंक उठाया उसने कोडा आया तब तक एक बछेडा/ चढ बन्दर ने उसको फेरा टेटू ने भी किया सपाटा/टट्टर फाँदी चक्कर काटा फिर बन्दर कुर्सी पर बैठा/ मुँह में चुरुट दबाकर ऐंठा माचिस लेकर उसे जलाया/ और धुआँ भी खूब उडाया ले उसकी अधजली सलाई/ टेटू ने यों तोप चलायी (इसके आगे के संकेत मुझे भी समझ में नहीं आते, पर पढ लें...) एक मनुष्य अंत में आया/ पकडे हुए सिंह को लाया मनुष्य-सिंह की देख लडाई/ की मैंने इस भाँति बडाई किसे साहसी जन डरता है/ नर नाहर को वश करता है मेरा एक मिंत्र तब बोला/भाई, तू भी है बस भोला यह सिंही का जना हुआ है/ किंतु स्यार अब बना हुआ है यह पिंजडे में बन्द रहा है/ नहीं कभी स्वच्छन्द रहा है छोटे से यह पकडा आया/ मार-मार कर गया सिखाया” बता दूँ अपने दुर्भाग्य की बात। जब मुम्बई आने के काफी दिनों बाद तक लाइव कैमरे की रेकॉर्डिग नहीं आयी, उषा व अजय आठले को फोन किया। पता लगा कि वह पूरी रेकॉर्डिग किसी हादसे का शिकार होकर नष्ट हो गयी। मन तडप कर रह गया। यह कह-कहकर संतोष किया कि ‘कुछ इच्छाएँ अधूरी रह जायें, तो जीवन में आस्था बनी रहती है। अब वे यादें ही जिन्दा हैं...। ख़ैर, उनकी टीम में ऐसा हँसी-खुशी, हास्य-विनोद का माहौल देखा। लेकिन अपने जन्मप्रदेश के जनसामान्य में हबीब के प्रति जो सम्मान देखा, वह रोमांचक है। एक शाम ‘मिलनयात्रा’ निकली। यह आयोजन भी भारतीयता की उसी परम्परा का अंग है, जिसके पोषण का हामी हबीबजी का पूरा रंगकर्म है। आगे-आगे हबीबसाहब पैदल ही...। साथ में ग्रुप के कलाकार, रंगोत्सव के आयोजक व हमसब और पीछे बढता हुआ हुजूम। रास्तों के दोनो तरफ लोग फूल-मालाएँ लिए खडे...अपने प्रिय कलाकार को अपने हाथों देने-पहनाने को आतुर। और ये जुटाये हुए लोग नहीं थे. जैसे राजनेताओं के लिए आजकल होते हैं। इनमें सच का प्यार उमड रहा था। होंठ प्रस्फुरित हो रहे थे, आँखें चमक रही थीं…। हर गाँव में छोटा-छोटा मंच सजा था। मंच पर पहुँचते हबीब साहब पर पुष्प-वर्षा होती। गाँव के प्रधान-पंच वग़ैरह स्वागत करते - चन्द शब्द हबीब साहब से सुनना चाहते। वे बोलते भी, पर अपने को व्यक्त करने के हजारों तरीकों से लैस इतने महान कलाकार को अभिव्यक्ति के ऐसे संकट से गुज़रते हुए देखना भी एक अनोखा अनुभव था। दो महाकवियों के शब्दों में – ‘प्रेम न हृदय समात’ और इसीलिए ‘कण्ठ: स्तम्भित वाष्पवृत्ति’ वाला हाल हो गया था। यह किसी भी कलाकार के लिए सबसे बडा गौरव है। यह देखकर मुझे वे टिप्पणियां एकदम बकवास लगीं, जिनमें ‘हबीब अपने क्षेत्र में जा नहीं सकते। उन्होंने वहाँ के लिए कुछ नहीं किया...’ वग़ैरह कहा जाता है। ऐसा कहने वाले लोग ही अब उनके जाने के बाद छत्तीसगढ की सरकार से उनका स्मारक बनाने के लिए प्रच्छन्न ग़ुज़ारिशें कर रहे हैं। वह तो बनेगा ही और उसके भी निहित मक़सद होंगे – ठीक कहने वालों की ही तरह । पर उससे क्या होगा? एक सरकारी खानापूर्त्ति। गान्धीजी तक की तमाम मूर्त्तियाँ गन्दगी से भरी पडी हैं और फाइल से चलायमान सरकार के पास सफाई तक का बजट नहीं है। प्रेमचन्द, ग़ालिब, निराला... सबका यही हाल है। पर ऐसी अज़ीम शख़्सियतों के स्मारक वहीं होते हैं – लोगों के दिलों में। और वह बन चुका है, जो कभी धूमिल तक न होगा। ‘हबीब साहब ने अपने थियेटर की कोई परम्परा नहीं छोडी’, ‘नया थियेटर’ का कोई समर्थ वारिस नहीं’... जैसी आलोचनाओं के जवाब भी इसी सत्य में निहित हैं। ये परम्परायें अवाम की यादों में अक्षुण्ण रह्ती हैं। और कालिदास की परम्परा में दूसरे कालिदास पैदा नहीं होते। वे हर ज़हीन कवि की कविताओं में समाये होते हैं। ग़ालिब में ख़ुशरो कहाँ दिखते हैं? पर उन्होंने ख़ुद कहा है- ‘पीते हैं धोके ख़ुशरु-ए-शीरीं सुख़न के पाँव’। इसी तरह हबीब साहब की परम्परा व ‘नया थियेटर’ के वारिस ढेरों कलाकारों के कलाकर्म में समाये हैं। व्यक्त हो रहे हैं। उन्हें देखने के लिए नज़र चाहिए – शौक़-ए-दीदार अग़र है, तो नज़र पैदा कर’ - हबीब साहब (के नाटक) की तरह ‘देख रहे हैं नैंन’...। * * * सम्पर्क- ‘नीलकण्ठ’, एन.एस. रोड नं.-5, विलेपार्ले (पश्चिम), मुम्बई- 400056 फोन- 022-26101987, मो.- 09819722077/09869355103 ई मेल- satyadevtripathi@gmail.com