Friday 9 May, 2008

माँ इसे देवी कहती... (समापन किस्त...)

माँ इसे देवी कहती... (समापन किस्त...) इस तरह देवी इतना बाहर रहने लगी कि घर के लिए ही पहुनिया हो गयी। कहीं रुकने पर फोन करना भी बन्द हो गया। इसे लेकर कभी किसी बात पर मेरी पत्नी के मुँह से निकल गया - ‘जीजी का इतना बाहर रहना ठीक तो नहीं है...’ और माँ ने डपट दिया - ‘ख़बरदार, देवी है मेरी बेटी। मत भूलो कि उसी की राय से ही तुम इस घर में बहू बनकर आयी हो...’। देवी के कानों तक भी यह बात गयी । उसने कहा तो कुछ नहीं, पर तभी से ज्योति के हाथ का खाना-पीना तक बन्द कर दिया - बात करना तो दूर की बात। उसका ऐसा करना मुझे कुछ ठीक न लगा, पर माँ के लिए यह भी उसके देवी होने का ही प्रमाण बन गया - त्याग, प्रतिज्ञा, साधना,.. जाने क्या-क्या !! और देवी का खाना माँ ख़ुद बनाने लगी - वह जब कभी-कभार घर रहती...। लेकिन बात ज्योति तक ही नहीं रही...। चाल की कोई पडोसन कभी पूछ ही देती - ‘देवी इतने-इतने दिन तक कहाँ रहती है बहनजी...’? और माँ गर्व के साथ बताती - ‘फला लेखक के यहाँ गयी है या अमुक कलाकार ने बुलाया है. या तमुक जगह सेमिनार है..’। बिटिया जाति का इस तरह बाहर रहना ठीक नहीं बहना...’ - पडोसन बडे अपनापे से कहती। ‘मेरी बेटी कोई ऐसी-वैसी नहीं...’- माँ का वही पुराना राग बजता- ‘’देवी है, देवी...’। पर नौकरी के मामले में बडी अनलक्की रही देवी - न उसका देवीत्व काम आता, न सम्पर्क के इतने सारे बडे-बडे लोग...! छोटी-मोटी अस्थायी नौकरियां ही करती रहती...। फिर तो एक दिन ग़ज़ब ही हो गया। वह ऑटो से उतरी और झम्म से मेरे सामने आकर खडी हो गयी - ‘पहचानो, तो जानें...’। और फिर मॉ की ओर मुडी - ‘देखा माई, हमहूँ मॉडर्न हो गइली ...’! इस विनोद भरे प्रदर्शन के बाद ख़ुद ही बताने लगी - “बहुत दिनों से लोग कहते थे - ‘ब्यूटी पॉर्लर जाओ...ब्यूटी पॉर्लर जाओ...। वे लोग ‘लुक’ ऐसा बदल देंगे कि व्यक्तित्त्व निखर आयेगा- आजकल नौकरी के लिए योग्यता के साथ यह सब भी ज़रूरी है’। और आज तो अमिताजी जबर्दस्ती लेकर ब्यूटी पॉर्लर ही चली गयीं। पेमेंट भी उन्होंने ही किया”। ये अमिताजी इधर देवी की नयी मित्र हुई हैं। उम्र पचास के ऊपर.। रहन-सहन टीप-टॉप । पति का करोडों का कारोबार। ख़ुद का एन.जी.ओ.। उन्हें देवी में न जाने क्या दिखता कि महीनों अपने यहाँ से आने नहीं देतीं। वहाँ भी रहने जाने के पहले रिचुअल की तरह मुझे घर दिखाने ले गयी थी देवी - झील किनारे राजा-महाराजा जैसा उनका बँगला...। इधर अमिताजी के रोज़ ही कुछ न कुछ उपहार आने लगे - सोने तक के। और आज ‘लुक’ ही बदल डाला- बालों के स्टाइल से चेहरे तक का काफ़ी कुछ...। शायद मेरे चेहरे पर इस नये अवतार के प्रति उदासीनता दिखी हो...तभी तो देवी ने कहा- ‘मेरे भैया को तो यह सब फ़ूहड लग रहा होगा, क्योंकि अपनी बहन कराके आयी है। दूसरी औरत कराके आये तो...’। होंठ तो फडके मेरे, पर कह कुछ न सका, लेकिन ताज्जुब हुआ कि माँ भी उस दिन चुप रह गयी - देवी-पुराण शुरू नहीं किया। ..... बस, माँ की उस चुप्पी की याद ने खयालों से निकालकर अचानक माँ के पास पहुंचा दिया - दुकान पर। जाकर उसे अन्दर खींच कर ले गया और सीधे बोलना शुरू किया - “तुम्हें पता है सविता-अमिता के गिफ़्ट के नाम पर तुम्हारी देवी की मोबाइलों की दुकान खुल गयी है। एक की घंटी बजी और झोले में हाथ डाला, तो चार-चार मोबाइल...। मालूम है, उठाने पर क्या सुनना पडा - ‘क्यों मेरी जान, इतनी देर से फोन बजा रहा हूँ। कहाँ हो...”? गुस्से से मेरा मुँह टेढा हो गया था। शब्द चबा-चबा कर निकलने लगे थे - “एक अलहदा फोन देने पर भी यह हाल है कि चांस नहीं मिल रहा है...कहाँ-कहाँ एनगेज़ रहती हो ? ...कल इसी वक्त तुम्हारी बाँहों में था। बडी याद आ रही है...’’ - कहते-कहते रुलाई फूट पडी मेरी... रोते-रोते ही डाँटने पर उतर आया- “अब बोलो, यह मोबाइल की दुकान है या धन्धे का सामान ? और बनाओ देवी..। मेरा माथा तो ब्यूटी पॉर्लर के दिन ही ठनका था- वैक्संग, आईब्रोज़...। ब्लाउज़ के आगे का हिस्सा देखा है आजकल उसका ? पीठ तो आधी कब से खुली रहती थी !! देख लिया ? रात-रात भर बाहर रहकर कौन-सा इंटर्व्यू लेती-देती है ? किस सेमिनार में जाती है ? उसकी सहेलियां हैं कि दलालों की गैंग ? बहनजी रोज़ लाती थीं - उपहाSर. ! हुंह..सब बकवास..। कीमत मिलती थी - कीमत । गिफ़्ट के नाम पर हमें उल्लू बनाया जाता था। सब अय्याशी है। आने दो आज तुम्हारी ‘देएएवी’ को, गला न दबा दिया, तो...” ”नाहीं-नाहीं बचवा...अइसा ना करना” - माँ के झर-झर आंसू बह रहे थे - “वो खुदै जाने वाली है। हम तो कब से जानि गयी हूँ। एक बार फोन पर की बात सुन ली थी। तब से केतना दफा आड-आड से सुनी। अपनी लाज... केसे कहैं ? आज तुमहूं जानि गये, तो बताय देत हैं..। होटल-फोटल के धन्धा करै वाले सविता के घर के मर्दन ने पहले बिगाडा इसको..। सान-सौकत की लत लगाय दिये। ऊ सब हियाँ से तो मिलता नाहीं..। बस, ऐस-आराम के बस में होय के बिगड गयी लडकी..। गल्ती हमरी भी है कि देवी माना। कभी जानने की परवाह नहीं की...। बाकी अब तो अमिता के मरद से इसका परेम चलि रहा है”। ‘’प्रेएएम...!! वो भी धन्धा ही होगा... कालगर्ल कह्ते हैं । बहुत बडा रैकेट चलता है ...” “जो होवे...” - माँ पर जरा भी असर नहीं - ‘’ ऊ रखै वाले हैं इसको। अलग घर देवै की बात चलि रही है। ई सब चरित्तर खुलने के पहिले अइसे ही सही, बन्द होइ जाये, उहै अच्छा...” “माई, क्या कह रही है..? तू तो औरत है। जरा सोच, अमिता आँटी का क्या होगा “? “ई बखत ई सब देखने का नाहीं है” - फिर आँसू पोंछते हुए बोली -“हमन के मुंह कालिख लगने के पहिले ई बलाय हियां से टरि जाय, तबै अच्छा...” ”और अपने से 20 साल बडे शादीशुदा आदमी की रखैल बनने से कालिख नहीं लगेगी क्या” ? “हम सोचि लिये हैं ऊ भी। एक बार गयी, तो फिर इस छिनाल को लात नहीं रखने देंगे हियाँ। सबको कहि देंगे- बहुत बडे लोग हैं। साल में दस-ग्यारह महीना तो बिदेस में रहत हैं। बाद में चाहे कोई जो कहे... इस जैसी बदनामी से तो बचि जायेंगे...”। और मैं इस ‘देवी’ को देखता रह गया था - हैरत से, हसरत से...!! ** ** **