Sunday 4 May, 2008

‘यू’ और ‘मी’... कैसे बनते हैं ‘हम’...!!

‘यू’ और ‘मी’... कैसे बनते हैं ‘हम’...!! नीरज जी ने बहुत पहले एक कविता लिखी थी- ‘प्यार अग़र थामता न जग में उंगली इस बीमार उमर की, हर पीडा वेश्या बन जाती, हर आंसू आवारा होता...’ पिया (काजोल) को सब कुछ भूलने की बीमारी (अनज़ाइना) हो जाती है। वह रह-रह कर अपना घर-बार भूल जाती है.. यहां तक कि पति अजय (देवगन) को भी नहीं पहचानती..। छोटे-से बेटे को स्नानघर में डूबते हुए भूल जाने के दिल हिला देने वाले दृश्य के बाद उसे अस्पताल में छोडने का दृश्य कलेजा काढ लेता है। यदि पिया को वहीं छोड दिया जाता, तो उसकी पीडा लावारिस (वेश्या) व उसके आंसू आवारा ही होते..। पर तभी अजय को याद आता है कि उसने पिया को वहां उसके लिए नहीं, अपने आराम, स्वार्थ, सुविधा के लिए छोडा है। ‘अपने बेटे’ को ‘उस औरत’ के पास कैसे छोड दूँ....याने ‘वह’ और ‘मै’ हो गये !! इस अपनी अमानवीयता पर उसे कोफ़्त होती है। अपना प्रेम, अपने वायदे याद आते हैं। और अजय जाकर पिया को घर ले आता है - डॉक्टर के लाख मना करने के बावजूद । इस तरह ‘मी’-‘यू’ मिलकर ‘हम’ बनते हैं, जो ‘मैं’-‘तुम’ और ‘हम’ भी हो सकता था..। यही है फ़िल्म। और यह सब फ़िल्म का उत्तरार्ध भर है, जिसे देखने के बाद किसी को पूर्वार्ध वाला भाग ‘समय की बर्बादी’ भी लग सकता है। लेकिन वह फिल्म की स्टाइल से बावस्ता है। बेटे की चुनौती पर एक औरत को पटाते और उसी दौरान पूरी कहानी सुनाने की स्टाइल। अंत में पता लगता है कि यही है वह औरत, जो रोज़ पति को भूल जाती है। पति रोज़ पटाता है- पटाना फ़ितरत बन गया है। और आज उनकी शादी की सिलवर जुबली है। वे उसी शिप (क्रुइज़) पर हैं, जहां दोनो मिले थे। पटाने में स्टाइल तब भी था। अजय अकेला था। उसके दो मित्र थे- जोडे में। एक खुशहाल अविवाहित जोडा और दूसरा दुखी विवाहित । जब पिया को अजय घर ले आता है, तब पहला शादी करने और दूसरा साथ रहने का फ़ैसला करते हैं..और यह भी ‘मैं’- ‘तुम’ और ‘हम’ का स्टाइल बन जाता है। चरित्रों की पहचान बनाने, रिश्तों के लुत्फ़ लेने, हास्य-विनोद के आस्वाद पाने व यथार्थ के दंश झेलने के ऐसे कई आयोजन इसमें भरे पडे है, जो मज़ेदार व अर्थभरे संवादों, सटीक दृश्य-विधानों तथा नैन-सुख देने के साथ तकनीकी नक्काशी पिरोते चित्रांकनों (फ़ोटोग्रैफ़ी) से सजे हैं। सभी के सही अभिनयों से सँवरे हैं। काजोल वहीं से शुरू हो गयी है, जहां छोडकर गयी थी। अजय ने खुद से वह सब एक साथ करा लिया है, जो तमाम निर्देशक मिलकर उससे अलग-अलग कराते रहे हैं। इन सबसे लगता नहीं कि बतौर निर्देशक यह अजय की पहली फ़िल्म है...। कहानी भी अजय ने ही तैयार की है, जो भले किसी या किन्हीं फ़िल्मों की प्रेरणा से हुई हो, पर उसमें बेहतर कथा-संयोजन का गुर है। कैंसर आदि को लेकर ‘अँखियों के झरोखों से’ व ‘मिली’ आदि कई फ़िल्मों में त्याग भरे प्रेम सम्बन्धों की अच्छी परख हुई है- ‘आनन्द’ में मानवीयता का अच्छा पहलू एक दर्शन के साथ आता है, पर सबमें सम्बन्धों की प्रेम व करुणामय विदाइयां हैं, जबकि इसमें उन सम्बन्धों की पडताल है, जिसे तिल-तिल जलकर सहना है। यहां बात उन संबन्धों के पुनरुज्जीवन तक जाती है, जो आज अनायास टूट रहे हैं...। यह प्रासंगिकता बडी ज़हीन व ज़रूरी है। इसी से मन में सहज इच्छा जगती है कि पूछा जाये- अजय, अगली फिल्म कब व क्या होगी? और बताया जाये कि वह जो भी हो, जब भी हो, उसका सम्पादन ज़रा तटस्थ होकर करना....। - सत्यदेव त्रिपाठी

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