Wednesday 13 May, 2020

लेख इतने समय से आया है कि अपने मकसद को स्वत: पूरा कर देता है।
इसके लिए अरुण देव, समालोचक व लेखक बधाई के हकदार हैं।
और इससे वे तमाम पाठक लाभान्वित होंगे, जो स्व. नवलजी को कम
जानते होंगे...ज्यादा की अपेक्षा आने वाले समय में पूरी होती चलेगी...

Friday 15 July, 2011

पर्यावरण और रंगमंच्

पर्यावरण और नाटक.... - सत्यदेव त्रिपाठी


पर्यावरण पर आयोजित सेमिनार में ‘नाटकों में पर्यावरण’ पर मुझे बोलना है, जानकर सोचना शुरू करते ही मेरी ज़ेहन में उभरी- नृत्य-नाटिका ‘प्रकृति’, जिसका शो मुम्बई में मैरीन लाइंस के समुद्र-तट पर स्थित भव्य ‘टाटा थियेटर’ में हुआ था और प्रकृति की भूमिका की थी नामचीन फिल्मनेत्री व कुशल नृत्यांगना आयशा ज़ुल्का ने। उन्हीं का निर्देशन भी था और उन्हीं की कथा-संकल्पना भी। लेकिन दिमाँग पर बहुत ज़ोर डालने के बावजूद उसमें आज के प्रचलित पर्यावरण – याने पर्यावरण-प्रदूषण या पर्यावरण-रक्षण - जैसा कुछ याद न आया। वह तो एक अनाथ लडकी के नृत्यांगना बनने की कथा थी। बस, प्रकृति की मनोरम छ्टायें अवश्य थीं मंच पर, जिसमें ‘प्रकृति’ नाम को सार्थक करती पली-बढी थी वह लडकी। याने ‘प्रकृति’ नाम भर से ही उसकी याद आ गयी थी...।

और फिर बहुतेरे नाटकों के बारे में सोचा, लेकिन कुछ भी पर्यावरण-प्रदूषण-रक्षण...जैसा याद न आया। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि नाटकों में ऐसा होगा ही नहीं, पर मेरे संज्ञान में नहीं आया- सिवाय कुछ पथ-नाट्यों के, जिनमें बतौर सूचना, प्रचार कोई सन्देश होता है - सुधार की सीख या नसीहत जैसा... और जिसके विषय होते हैं - सूखा-बाढ, पानी की बर्बादी, पेडों-जंगलों का कटना, नदियों-तालाबों का पटना, सफाई के अभाव में गन्दगी से फैली बीमारी व उससे बनती-बढती बर्बादी... आदि। लेकिन ये पथ-नाट्य नाटक-विधा के प्रमुख आयाम नहीं हैं। निर्मिति-प्रस्तुति व प्रसार-प्रभाव... याने प्राय: उनका सबकुछ फौरी हुआ करता है, जिससे बाद में कुछ भी याद नहीं रह जाता।

फिर नाटक के अलावा उपन्यासादि विधाओं पर भी नज़र दौडायी और वहाँ भी ऐसा ही पाया। इसका अर्थ यह कि पर्यावरण उस रूप में साहित्य में आ ही नहीं सका है, जैसा कि ‘एनजीओज़’ द्वारा लिये गये प्रकल्पों व मीडिया के बरक्स जीवन में तो नहीं, फ़िज़ाँ – वही पर्यावरण में - आज छा गया है, जिसका एक रूप यह सेमिनारी आयोजन भी है। तब मन में बात उठी कि न सही पर्यावरण; ऐसा क्या है, जो साहित्य में उसी रूप में आता है? दर्शन तक को भी साहित्य शुद्ध दर्शन की तरह कहाँ लेता है? याने साहित्य सबकुछ को अपनी तरह लेता है।

और इससे भी बडा सच यह है कि जो कुछ भी दुनिया और जीवन में है, वह सब किसी न किसी रूप में साहित्य में प्रतिबिम्बित होता ही है। तो पर्यावरण भी हुआ ही होगा। तो किस रूप में हुआ? फिर साहित्य के मूर्त्त रूप नाटक की तो एक अपनी ही दुनिया होती है – नेपथ्य की भी और मंच की भी। तो पर्यावरण इस दुनिया में भी आया ही होगा – वही कि किस रूप मे...?

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इसी पर सोचते हुए ‘अभिज्ञान शाकुंतल’ की याद हो आयी, जिसमें शकुंतला भी उक्त प्रकृति की तरह ही प्रकृति के बीच पली-बढी, उसी से समरस हुई, प्रकृति के फूल-पत्तों के गहने पहने दिखी और सुनायी पडा कि उसे पति-गृह के लिए विदा करते हुए पिता ऋषि कण्व उसी प्रकृति से कह रहे हैं- “पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्माष्व पीतेषु या, ना दत्ते प्रिय मण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम्।

आद्ये व: कुसुम-प्रसूति समये यस्या: भवत्युत्सव:, सोइयं शकुंतला पति-गृहं याति सर्वैरनुज्ञायताम्”।

याने उस समय वनप्रांतर में प्रकृति के साथ ऐसी समरसता !! पौधों को पानी पिलाये बिना शकुंतला स्वयं पानी नहीं पीती, अपने शृंगार के लिए प्रिय होने के बावजूद स्नेह के कारण उनके पल्लवों को नहीं तोडती, उनका कुसुम-प्रसव ही शकुंतला का उत्सव होता, तो फिर इतने प्रियतों को बताये बिना उस बेटी को ऋषिवर कैसे विदा कर देते? ऐसी समरसता, ऐसा स्नेह तो आज भरे जीवन में मनुष्य-मनुष्य के बीच भी नहीं रहा। मनुष्य जिस तरह प्रकृति को काट रहा है, उसी तरह अपनों को भी। क्या पर्यावरण की समस्या इसी वृत्ति के कारण तो नहीं आ रही है। फिर उनके लिए प्रोजेक्ट ले-लेकर

कमाने के लिए जो कुछ हो रहा है, क्या उससे कोई समस्या हल होने वाली है? ऐसी शकुंतला को कम से कम पढा तो जाये, तो कुछ मानसिकता तो बने- पर्यावरण बनने की बात तो दूर...!

चलिए कालिदास से थोडा और पीछे चलें भास की तरफ... शकुंतला तो ख़ैर वन में ही पली-बढी थी- वनहित कोल-किरात किसोरी’ जैसी, लेकिन ‘प्रतिमा नाटकम्’ की सीता तो महलों से वन में गयी थी। लेकिन कितनी समरस हो गयी? कवि कहता है-

“योsस्या: कर: श्राम्यति दर्पणेपि, स नैति खेदं कलशं वहंत्या:।

कष्टं वनं स्त्रीजन सौकुमार्यम्, समं लताभि: कठिनी करोति”॥

ऐसी महिमा प्रकृति की कि लताओं की तरह ही स्त्री-सौकुमार्य को भी कठिन बना देती है, जिससे वह सीता भी भरा कलश ढोने लगती है, जो महलों में कभी दर्पण उठाने में भी थक जाती थी। क्या आज का एनजीओ मालिक वहाँ जाकर ऐसी समरसता, ऐसी शक्ति पाना चाहता है? फिर एसी में बैठकर दूर से पर्यावरण की समस्या कैसे हल होगी?

मेरे ख्याल से पर्यावरण के लिए कार्य करने वालों को ये नाटक पढने चाहिए।

मुझे लगता है कि कुछ-कुछ स्पष्ट हुआ कि साहित्य किस रूप में लेता है चीज़ों को....और पर्यावरण किस रूप में आया है प्राचीन नाटकों में, जो आज के पर्यावरण के सन्दर्भ में कैसे पढे जा सकते हैं। और आज के पर्यावरण-विदों को बताता भी है कि पर्यावरण को मुक्त करने के लिए शकुंतला की तरह पर्यावरणमय होना पडेगा, सीता की तरह पर्यावरण को अपनाना होगा, क्योंकि –

‘न हम कुछ हँसके सीखे हैं, न हम कुछ रोके सीखे हैं; जो कुछ थोडा-सा सीखे हैं, किसी के होके सीखे हैं’, लेकिन इस प्रक्रिया व सच को भूल चुकी है आज की दुनिया, जो सर काटकर बालों की रक्षा कर रही है!!

• * *

इसी भूलने का परिणाम है कि आज हम प्रकृति का दोहन कर रहे हैं। पर्यावरण को विषाक्त बना रहे हैं। और भोपाल गैस काण्ड से ज्यादा विषाक्त और क्या हुआ होगा, जिसमें भर शहर का जीवन ही दूषित तो क्या, प्राय: नेस्त-नाबूद हो गया। और उसी शहर में बसे महान रंगकर्मी हबीब तनवीर ने उसी काण्ड पर नाटक बनाया- ‘ज़हरीली गैस’। याने पर्यावरण के परिणाम पर नाटक। लेकिन काण्ड के बाद बना और काण्ड के भेदों को खोलने-बचाने के चक्कर में उलझकर रह गया। हबीब साहब अपनी गीत-संगीत की नाट्यवृत्ति को भूले तो क्या होंगे, विषय के साथ न्याय करने के फिराक़ में उसे नज़रअन्दाज़ किया और परिणाम यह हुआ कि ऐसा अक्षम मंच हबीब साहब का कभी न रहा। याने यदि साहित्य या नाटक या कला किसी थीम को व्यक्त करने में अपनी प्रकृति को छोडेगी, तो थीम तो छूटेगी ही, कला भी जाती रहेगी। याने जिस तरह ऊपर उद्धृत नाटकों में पर्यावरण को प्रकृति और उसकी समरसता के रूप में लिया गया है, साहित्य के लिए वही वरेण्य है।

और देखिए जब उसी रूप में हबीब साहब ने शेक्सपीयर के ‘मिड समर नाइट ड्रीम’ पर बने ‘कामदेव का अपना, वसंत ऋतु का सपना’ में प्रकृति को लिया, तो कैसी बात बनी!! संयोग से मुझे वो देखने को भी मिला – प्रकृति की खुली गोद में- ‘हॉरिमन सर्कल गॉर्डेन’ (मुम्बई) के मुक्ताकाशी मैदान में, जहाँ चाँदनी खिली रात थी, पेड-पौधे थे, लताओं के गुल्म थे, झाडियों के झुरमुट थे... और उसी के बीच पेडों से कूदकर, झुरमुटों से निकलकर आते थे हबीब साहेब के लोक कलाकार – फूल-मालाओं में गमकते प्रकृतिमय होते हुए...। वसंत ऋतु के सपने का ऐसा साकार रूप भला और क्या हो सकता है? स्वस्थ-सुन्दर पर्यावरण तथा उसमें खिले ऐसे खुशनुमा जीवन का इससे अच्छा रूप और क्या हो सकता है? लेकिन यहाँ नीयत नाटक की थी और वहाँ नाटक एक ज़रिया बन गया था।

ऐसी ही जीवंत प्रकृति के बीच बडी खुशी से रहते हैं एक नाना (मशहूर कलाकार के.के. रैना) और उनकी नातिन (मशहूर कलाकार इला अरुण की बिटिया इशिता अरुण)। क्या ही उन्मुक्त प्राकृतिक परिवेश है- थीम का भी और मंच पर लगे सेट का भी। उसमें उतना ही उन्मुक्त नाना-नातिन का हँसता-खेलता जीवन। पर इस सहज पर्यावरण में युवा पीढी के लिए प्रलोभन बनकर आती है शहर से भौतिक समृद्धि की दूषित हवा, जो नातिन को उडा ले जाती है शहर। नाना बेबस देखता रहता है, पर चूँकि यह नाटक है, नातिन लौटकर आती है; क्योंकि शहर का नितांत भौतिक पर्यावरण उसे रास नहीं आता। अपना नैसर्गिक पर्यावरण उसे लुभाता है- ‘हंस-सुता की सुन्दर कगरी अरु मधुबन की छाहीं’ की तरह। और अंत में बुला ही लेता है। लेकिन वास्तविक जीवन में ऐसा कहाँ हो पाता है? कोई नहीं लौटता- ‘जो जो गये बहुरि नहिं आये, पठवत नाहिं सँदेस’। इसीलिए तो लौटने की बात करते हैं ये कलारूप- उस खोते जाते जीवन-रूपों का स्मरण दिलाने के लिए।

कालिदास (आषाढ का एक दिन) भी तो लौट आया था। उसे भी क्षिप्रा का किनारा, उज्जयिनी का प्रांतर – पहाडियां, वर्षा और मिट्टी - तथा हिरण व मल्लिका की आँखें भुलाये नहीं भूलीं। बुलाती रहीं। और राजधानी की गन्दी-स्वार्थी राजनीति - बतर्ज़ ‘यह मथुरा काजर की कोठरि’- बहुत सालती रही। पर आकर भी रह नहीं पाया। क्योंकि प्रांतर तो नहीं, मल्लिका की आँखों को मज़बूरन किसी और की तरफ़ झुकना पडा था और कालिदास के मन में प्रांतर से अधिक गहरे धँसी थीं मल्लिका की आँखें। तब साहित्य का एक और आयाम खुलता है कि साहित्य के केन्द्र में है मनुष्य और उसके सम्बन्ध। शेष सब उसका माध्यम होता है। अत: पर्यावरण को केन्द्र में रखकर नाटकों की तलाश उलटा रास्ता है। मनुष्य से कटकर साहित्य में पर्यावरण नहीं आ सकता – अन्य विषयों में भले आये। इसी द्व्न्द्व में ‘ज़हरीली गैस’ बिगडा। इसलिए भी सबकुछ को बनाने-बिगाडने वाला होता है मनुष्य। पर्यावरण को पहले बनाता था मनुष्य ही - प्रकृति तो पूरक भर थी। और अब नष्ट भी कर रहा है वही – प्रकृति को नष्ट करके भी और उससे अधिक प्रकृति से इतर माहौल को भी। तो नाटक उसका होता है - होना चाहिए भी उसी का। एक उदाहरण दूँ...?

विख्यात रंगकर्मी दिनेश ठाकुर ने खेला- ‘जिया जाये ना’ – नील साइमन के ‘प्रिज़्नर ऑफ़ सेकोना एवेन्यू’ का हिन्दी रूपांतर। उस मूल का शहर न्यूयार्क या कुछ रहा होगा, लेकिन ‘जिया जाये ना’ तो मुम्बई नगरिया का सच है, जहाँ मनुष्य ने माहौल की ऐसी बर्बादी की है कि पाँचवीं मंजिल तक भरता कचरा भरा है। किसी भी समय बिजली-पानी का कट है। नीचे कुत्तों का शोर है। बगल में वेश्यावृत्ति का धन्धा है। कभी भी नौकरी जाने का डर है...। ऐसे में अच्छा-भला आदमी पागल हो जाता है। क्या यह पर्यावरण-प्रदूषण नहीं है? लेकिन आज के ‘पर्यावरण’ की अवधारणा में यह नहीं आता, क्योंकि इसमें पेड-पौधे, फूल-पत्तों वाला जंगल नहीं है। यह तो आदमी का जंगल है और वह आज के ‘पर्यावरण’ की ज़द से बाहर है।

पहले जब पर्यावरण नहीं, वातावरण हुआ करता था, तो उसमें यह सब समाहित था। तब साहित्य में ‘देश-काल या वातावरण’ नाम से सबको पढा जाता था। लेकिन अब विशेषीकरण (स्पेशलाइज़ेशन) का ज़माना है। साहित्य में अब ‘देशकाल एवं वातावरण’ के बदले अच्छा शब्द आया है- परिवेश। इसमें भी सब समाहित है। प्रकृति का अलग से विवेचन भी होता था-‘छायावाद में प्रकृति-चित्रण’। और तब सारे प्वाइंट तो जीवन व शास्त्रानुसार होते थे, बस एक होता था- ‘स्वतंत्र रूप में प्रकृति’, जो आज कुछ तकनीकी जोड के साथ पर्यावरण हो गया है। लेकिन व्यापक स्तर पर सामाजिकता के समावेश के चलते स्वतंत्र रूप में प्रकृति का चित्रण अब साहित्य में कम हो गया है। परिवेश का मामला बहुत व्यापक हो गया है। कथा-चरित्र-भाषा... सब परिवेश से संचालित होने लगा है। और ‘जिया जाये ना’ इसी परिवेश का नाटक है।

सभी नाटक क्या, सारा साहित्य इसी परिवेश की मार का सृजन है। सचमुच जिन्दगी के प्रदूषण का यही कारक और कारण है। इसी रूप में वह साहित्य का श्रेय-प्रेय बनता है। वरना विज्ञान, समाज-विज्ञान जैसी ज्ञान-शाख़ाओं की तरह निखालिस पर्यावरण आ जाये. तो साहित्य स्थूल हो जायेगा। साहित्य के अंतर्गत इस सच को समझना होगा। वरना कान लिए जाते कौए के पीछे भागने जैसा मामला बन रहा है...। आइए, इस बातचीत के अंतिम पडाव पर एक विरल व अभिनव रूप में प्रकृति के कारकत्त्व की चर्चा करें। मैं आपको शंकर शेष के ‘अरे मायावी सरोवर’ में ले चलता हूँ...। अपने स्त्री-जनित दायित्त्वों व नारी-प्रकृति की माँगों के चलते राजा के सभी आमोद-प्रमोद में रानी शरीक नहीं हो पाती। राजा इस बात को समझ ही नहीं पाता और रानी की पसन्द पर तान कसता है। और एक दिन ज्ंगल में सुदूर पहुँचकर एक मनोरम तालाब में स्नान करते ही वह स्त्री हो जाता है। यही मायावी सरोवर की माया है। तब वह भी रानी की तरह बहुतेरे आमोद-प्रमोद से दूर रहते हुए स्त्रियोचित जीवन जीने लगता है- याने रानी के सच को समझ पाता है। है न यह सारा मामला पर्यावरण का ?

लेकिन मकसद पर्यावरण की ताकत बताना नहीं है। इतना भर कहना है कि स्त्री-जीवन को समझने के लिए स्त्री होना पडेगा- नारी विमर्श के रहबर मुलाहिज़ा फ़रमायें – क्या वे इसे नारी-विमर्श का नाटक मानेंगे? यह तो न नारी द्वारा लिखा गया है, न नारी इसके केन्द्र में है।

क्या पर्यावरण है केन्द्र में?

तो मित्रो, इन सबका उचित सन्धान व समझ ही साहित्य व जीवन का नियामक होगा।

यदि पर्यावरण पर मैं आपकी अपेक्षाओं जैसी बात न कर सका होऊँ, तो क्षमा कर दीजिएगा और धन्यवाद तो स्वीकार कर ही लीजिए कि आपने एक और कोण से नाटकों को देखने का अवसर दिया। --------------------------------------------------------------------------

सम्पर्क- ‘मातरम’, 26-गोकुल नगर, कंचनपुर, डी.एल.डब्ल्यू., वाराणसी-221004/ मोबा.094535519830/

satyadev tripathi: Preview "अरबिन्द के आलोक में जीवन का उद्देश्य..."

satyadev tripathi: Preview "अरबिन्द के आलोक में जीवन का उद्देश्य..."

Thursday 22 April, 2010

किसके लिए जीते हैं...

मेरी बडी बिटिया जब नन्हीं-सी थी, कोई भी सामान लाते, तो छोटी बहन व भाइयों को दे देती थी। हम कहीं जाते, तो उन दोनो को एक मिनट भी न छोडती - माँ जैसी ‘केयर’ करती। आज वो बडे पद पर काम करती है। आठ-नौ लाख का सालाना पैकेज पाती है। 10-12 लाख का पैकेज दामाद पाता है। पिछले दिनो वह गर्भ से थी। मैंने पूछा था- ‘छुट्टी कब से ले रही हो’ ? ‘वही दो-ढाई महीने पहले से’ ... उसने कहा था। सारी योजना सही बनी है, का विश्वास था ही। जब दो-ढाई महीने रह गये, तो पूछने पर बताया - सोचती हूँ, इधर ज्यादा काम कर लूँ, ताकि बाद में बच्चे के साथ ज्यादा रह सकूँ...। मुझे तब और अच्छा लगा था…। लेकिन यह क्या... वो तो काम करती ही गयी। मेरे पूछने पर बता देती – ‘सब ठीक तो है। डॉक्टर भी ऑफिस जाने में कुछ हर्ज नहीं बता रहे है’। जब प्रसूति को चन्द दिन ही रह गये और वह ऑफिस जाती... मैं पूरे दिन बेहद परेशान रहता। कैसे-कैसे ख्याल मन में आते...कभी फोन या एसएमएस करके हालचाल लेते रहता, पर क्या कहता इतने पढे-लिखे-कमाते बच्चों से ! फिर, कोई विचार भी तो नहीं होता अपने पास - सिवाय आशंका, चिंता के...। अन्त में जिस शुक्रवार को आखिरी दिन काम करके वह आयी - शनि-रवि-सोम को छुट्टी थी। और मंगल को मैं एक सुन्दर से नाती का नाना बन गया। उस खुशी में भूल ही गया और जब बाद में याद आया, तो फूले न समाया कि बिटिया ने एक भी दिन छुट्टी नहीं ली...। नर्सिंग होम से घर आने पर खुशियों का मौसम था...। ऐसी बहार पहली बार घर में थी... समझ में आया कि बेटे-बेटी से ज्यादा खुशी पोते-नाती के पैदा होने पर होती है। मैं कुछ अतिरिक्त ही खुशी में रहा होऊंगा, जब उस दिन संयोग से सभी बच्चे जुटे थे और मैंने पूछा था - बेटा, अब क्या प्रोग्रैम है आगे का …? बिटिया ने बताया - ‘मैं तो रेस्ट करूंगी छुट्टी भर - कोई पाँच महीने...। पर प्रभु को दो ऑफ़र हैं - एक तो यू.एस. का है और दूसरा बंगलोर का...। देखो, कौन सा ज्वाइन करता है...’। ‘तो यह बाहर रहेगा ? तुम बच्चे को लेकर अकेली रहोगी’? आश्चर्य छिप न सका होगा मेरा ! तभी उसने आगे कहा ...‘पॉप, इसमें इतना क्यों सरप्राइज़ लग रहा है आप को ? क्या मैं नहीं सँभाल सकती...! उसे जाना तो होगा ही... इतना अच्छा मौका इतनी जल्दी नहीं मिलता...’। फिर शायद मेरे चेहरे पर उदासी आ गयी हो, जिसे भाँपकर ही जैसे सांत्वना देती हुई बोली - ‘ज्यादा करके बंगलोर ही ज्वाइन करेगा और बीच-बीच में आ जाया करेगा...’। इस योजना में कोई ‘बदलाव नहीं होगा’, को जानते तथा ‘नहीं होना चाहिए’, को किसी हद तक मानते हुए भी मेरे मुँह से जाने कैसे निकल गया -“बेटा, ऑफ़र तो शायद फिर मिल जाये, पर यह बच्चा फिर नहीं होगा - दो महीने का , चार, छह, आठ व दस महीनों का...। क्या इसे लेकर तुम लोगों का मन उस तरह नहीं होता, जैसे तुम लोगों को लेकर हमारा हुआ करता था - कि उसके हर भाव, हर बदलाव, हर विकास, हर हुलास... को देखें, सँजोयें...अपनी निधि बना लें...” ....‘पॉप, आप भी क्या...मैं हूँ ना...’ - बीच में ही बोल पडी बिटिया - ‘लाइव कैमरा ले लेंगे... रोज़-रोज़ के फ़ोटोज़ मेल करते रहेंगे... अब वो ज़माना थोडे न रहा पॉप कि सामने रहने...’ और भी बहुत कुछ कहती रही वह - बडी शालीनता से, बडी समझदारी से.... चाहता तो था कि कुछ कहूँ - समझाऊँ – “दोनो मिलकर डेढ-पौने दो लाख महीने का कमा ही रहे हो...। क्या कम है तीन प्राणियों के लिए...! अब इस ऑफर से दो-ढाई लाख कमाने लगोगे...फिर अगला ऑफर आयेगा... फिर आयेगा... आता ही रहेगा...। फिर जीयोगे कब...? पर हिम्मत न पडी सब कहने की...। उसके ‘पॉप’ का बोध सर पे तारी हो रहा था...। सो, बुदबुदाहट यूँ निकली -‘किसके लिए जीते हैं, किसके लिए ‘खपते’ हैं.... बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया..’। ...और इसे सुननेवाला भी मैं अकेला ही रहा.... ....क्योंकि तब तक मौका पाकर बिटिया भी खिसक चुकी थी...बाकी सब तो पहले ही कमरे से निकल चले थे...। --- --- ---

Saturday 18 July, 2009

लोकगीतों की प्रासंगिकता

लोकगीतों की प्रासंगिकता लोकजीवन ही प्रासंगिक न रहा, तो लोकगीत कैसे हों...? -सत्यदेव त्रिपाठी लोकगीतों की प्रासंगिकता की बात करना ऐसा लगता है, गोया दादाजी से घर में रहने की उपयोगिता पूछी जा रही हो और स्थिति की विडम्बना यह है कि दादाजी को बतानी पड रही है...। क्योंकि जिस गाँव में दादाजी जनमे-जीये, वह गाँव उनका अंत समय आते-आते बदल गया है। अब लोक का वह सम्भार जाता रहा है, जिससे लोक गीत-संगीत जनमता-विकसता था। हर दिल-अज़ीज़ बनता था। मसलन... ...मशीनी खेती ने श्रमगीतों को खत्म कर दिया है। ट्रैक्ट्रर की घड्घड में भला हलवाहे व गाडीवान के गीत कैसे गाये-सुने जा सकते हैं? चक्की ने जाँता खत्म कर दिया, ‘जँतसार’ के गीत जाते रहे ... आदि-आदि? ...ऋतु गीत में पहले की तरह न महीनों कजरी गायी जाती, न फाग। न महीनों झूले पडते, न पूरे महीने जोगीडा चलता। याने अब इनके ही प्रति वह उछाह नहीं रहा, तो इन अवसरों के लिए बने लोकगीतों के लिए क्या होगा? बस, नागपंचमी-होली की रस्म-अदाई हो जाती है। ...भक्ति के सामूहिक आयोजन भी अब उस तरह से पूरे गाँव के एक ही साथ नहीं होते। सो‘पचरा’आदि जैसे पारम्परिक गीत भी बहुत कम हो गये हैं। इतने कम कि आज बढती पीढी को ये चीजें उस तरह मालूम भी नहीं हो पा रही हैं कि वे मौका आने पर कुछ सुन-सुना तो क्या, बता भी सकें... ...कुछ अवशेष बचे हैं संस्कार-गीतों के, पर उनमें भी भयंकर ह्रास आया है- भोर जगाने, जनेऊ यज्ञ जैसे अवसरों के गीत किसी को याद नहीं रहे। कुछ बूढियां जिस दिन नहीं होंगी, परिछन, ब्याह, गवना के गीत भी लुप्त हो जायेंगे। सोहर कुछ् दिन शायद बचे रहें...पर किस रूप में...!!1 ...‘गारी’ जैसे खुले रूप को तथाकथित सभ्य समाज ने फूहड व अश्लील करार देकर लगभग बन्द कर दिया है। वरना जो खुलापन रहता था उनमें, वह कई तरह से लाभदायक होता था। ब्याह बैठते ही ‘लाजि के मारे लजाधुरि जे पिय के अगवौं नहिं घूँघट खोलइ’ वाली नवेलियों व बूढी दादियों तथा प्रौढा माँओं के‘दुलहा हौ छिनारि के जनमल, अगुआ हौ ललगँडुआ रे’ जैसे गीत कई-कई तरह से रोमांचित कर जाते थे...। ... उक्त सब के सब टीवी और उस पर आती फिल्मों के सौजन्य से इल्मी-फिल्मी हो चुके हैं...। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राम स्वरूप चतुर्वेदी ने बीस साल पहले ही लिख दिया – ‘दूरदर्शन आधुनिक युग का लोक माध्यम है’। लेकिन यथार्थ को सीधे कहा है अशोक वाजपेयी ने - ‘एक समय था, जब लोकगीत-संगीत से बम्बइया फिल्में धुनें और भाषा उधार लेते थे। अब बारी पलट गयी है। अब फिल्मी धुनें लोकसंगीत को प्रभावित कर रही हैं’। शायद वे कहने में चूक गये या कंजूसी कर गये। हक़ीकत यह है कि सभी रूपों में पूरे के पूरे गीत ही फिल्म के प्रयुक्त हो रहे हैं – ‘पइसा दे दो, जूता ले लो’ जैसे गीतों के लिए तो शादी में स्थिति (सिचुएशन) भी बनायी जाती है। सो ऐसे में 20-30% ही कुछ खाँटी लोकगीत आदि बचे रह गये हैं – वही रस्म-अदाई के तौर पर...। वरना सारे गाँव गन्दी राजनीति व गुटबन्दी, झगडों, मुकदमेबाजियों व लूट-खसोट के अखाडे बन गये हैं। कितना कमा लें, कैसे कमा लें; के अलावा कोई बात नहीं होती। बाबा की बात साकार हो उठी है–‘मातु-पिता बालकन्ह बोलावहिं ; उदर भरइ, सोइ करम सिखावहिं’। इस तरह लोकगीत-संगीत तो क्या, सब कुछ छूट चुका है – ‘भूल गयी सान-सउख, भूलि गयी चौकडी ; तीनि चीज़ याद रही- नून, तेल, लकडी’। इसी की परवान चढ गये हैं – सारे लोकगीत-संगीत...सारी लोक-संस्कृति। यह 20-30% भी कब तक बचे रहेगा, कहना मुश्किल है। आजकल कुछ सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थान इन गीतों को सुरक्षित करने के प्रयत्न में लगे हैं – करोडों के वारे-न्यारे हो रहे हैं, पर सीधी सी बात कोई नहीं समझता कि घर-आगनों, गली-चौबारों से मुहल्लों-गाँवों को गुलज़ार करने वाले ये गीत वातानुकूलित भाण्डारों में दस्तावेज़ की तरह रखे जाकर किस काम के रह जायेंगे? इनकी इससे बडी अप्रासंगिकता और क्या होगी? तो सक्षेप में ये हैं गावों के हालात और उनमें लोकगीत की दशा व दिशा, जिनमें गीत ही लुप्त होते जा रहे हैं, तो उनकी प्रासंगिकता की बात ही क्या? बाँस ही नहीं, तो बाँसुरी की बात क्या...? और अब ज़रा गाँव से अलग हटकर हालात का एक जायज़ा लें, जिसमें लोकगीतों की स्थिति व गति बन-बिगड रही है... आज हम ग्लोबल हो गये हैं। उत्तर आधुनिक हो गये हैं। बाज़ार के युग में जी रहे हैं। भौतिक सुख जीवन का परम लक्ष्य हो गया है। सारी प्रगति और सभ्यता के केन्द्र शहर हो गये हैं। ‘गोदान’ के मेहता-मालती... आदि की तरह हम गाँव में पिकनिक के लिए जाते हैं- छुट्टियों के कुछ दिन बिताने या फिर प्रोजेक्ट आदि...के लिए। इस विलोमी बदलाव से लोकगीत ही नहीं, समूची लोक समृद्धि पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है। मसलन... ...मैग्डोनल व चाइनीज़ के सामने दाल-भात-रोटी-भाजी को बतानी पड रही है अपनी प्रासंगिकता और बेरहिन-बख़ीर, ठोक्वा-गुलगुला, दोहथी-हथुई तो अप्रासंगिक ही क्या, अपना अस्तित्त्व तक खो चुकी हैं। ...बीस साल पहले के कॉंन्वेंटी बच्चों ने सारी पहननेवाली अपनी माँओं से अपेक्षा की थी कि वे जींस-टीशर्ट पहनकर स्कूल से उन्हें लेने आयें। वे बच्चे अब जवान हो गये हैं और माँ के साथ दो पल बिताने के बदले क्लब-होटेल-सिनेमाघरों में जाना पसन्द करते हैं। फिर वे लोकगीत कहाँ सुनेंगे? ...अपनी लोकभाषा पढने, उसमें लिखने का अभ्यास तो हमारा ही नहीं रहा। महानगरों में प्रशासनिक कार्यों के लिए हिन्दी के मुकाबले अंग्रेजी ही सरल लगने लगी है – ‘सविनय निवेदन है कि...’ को भूलकर ‘आई बेग टु स्टेट दैट...’लिखना आसान हो गया है। तो ऐसे में लोकभाषा की अपेक्षा उस बच्चे से करना बेमानी है, जिसे लाखों के पैकेज की कमाई (तथा फिर उसी बुनियाद पर लाखों के दहेज) पाने के लिए लोकजीवन को छुडाकर ये राहें हमने ही पकडाई हैं...। नतीजा यह है कि हमें तो बचपन में मिले उस जीवन के कारण लोकभाषा बोलने-बतियाने, उसमें गाने-बजाने कमोबेश आता है – कम से कम सुनकर प्रसन्न होने लायक तो हैं ही हम। यह दाय अपनी नयी पीढी को नहीं दिया हमने। सो, आने वाले समय में उन्हें अपनी लोकभाषा ही नहीं आयेगी, तो गीत-संगीत भला कैसे आयेगा? हम अंतर्मुख होकर सोचें और अपने आप को ही बतायें कि हमारे जीवन में लोकगीत-संगीत कितना है ! कितने लोकगीत की कितनी पंक्तियां हमें याद हैं? चलिये, कितनी काव्य-पंक्तियां याद हैं, जो हम चलते-फिरते अपने बच्चे को सुना-सिखा सकते हैं? बडे-बडे नेताओं, मंच-वक्ताओं को वही की वही पंक्तियां ही हर मौके पर सुनाते हुए यूँ सुना जा सकता है कि श्रोता पहले ही भुनक पडता है– अब फला पंक्ति सुनायेगा। याने लोकसाहित्य क्या, साहित्य ही नहीं रहा जीवन में, तो अप्रासंगिक होगा ही...। इन्हीं कारणों से लोकगीत गाने वाले दिन-पर-दिन कम होते जा रहे हैं। वरना मुम्बई में एक ही गायिका को हम हर साल वही-वही, वैसे-वैसे ही गाते हुए क्यों सुनते? यूँ लोकगीत का स्वभाव यही रहा कि एक गीत को हर साल गाते हुए कई-कई पीढियां गुजर जाती थीं, पर गाते-सुनते लोग अघाते न थे...। लेकिन तब कार्यक्रम पूर्व-नियोजित या प्रायोजित न होते थे। आज ऐसा होने में हम शिक्षित प्रमोटरों का अज्ञान व आलस्य भी है, जो नयों को जान-खोज नहीं पाता। और हमारे आयोजन जिस तरह के शिष्ट व अभिजात होते हैं, वे स्वयं ही उस सहजता व अनगढता के विरोधी हैं, जो लोकगीतों की बुनियादी प्रवृत्ति है। इसीलिए वे खाँटी गायक ऐसे आयोजनों में नहीं आ पाते, जो असली लोकगायक हैं व जिनसे लोकगीत बनता है – याने ‘दुकानदार तो मेले में लुट गये यारो, तमाशबीन दुकानें लगाके बैठ गये’। और असली लोकगायकों को लूटने वाले ये गायक लोकप्रिय ज़रूर हैं, पर उन्हें लुटवाने वाले तो हम अभिजात आयोजक ही हैं, जो एक-दो नहीं हैं – ‘कहाँ तक नाम गिनवायें सभी ने ‘इनको’ लूटा है...’। लोकगीत गाने वाले हमारे गायक प्राय: कवि हुआ करते थे। वे समय की समस्याओं के गीत लिखा करते थे। उन पर गम्भीर व बेबाक टिप्पणी किया करते थे। आजादी की लडाई के समय जाँते को सम्बोधित करके लिखा गीत तो मशहूर है ही- ‘सुराज धुन गावा हे मोर जाँता’...! लाल रंग गोहुँआ, सफेद रंग पिसना कपट दिल खोला, ए मोर जाँता... लेकिन आज़ादी के बाद जो नज़ारा हमारे अपनों ने दिखाया, जिसे साहित्य में ‘मोहभंग’ के नाम से जाना गया, उसकी सीधी, धारदार; पर उतनी ही लयात्मक अभिव्यक्ति किसी लोकगायक ने ‘कांगरेसिया बिदेसिया समान सजनी’ गाकर की और लोकगीत प्रासंगिक तो क्या, प्रहारक बन गया। यही असली तत्त्व है प्रासंगिकता का, जो तब था... पर अब आ नहीं आ रहा है। गायब हो चुका है लोकगीतों से। आज के सरोकारों वाले लोकगीत इधर लिखे ही नहीं जा रहे हैं। यही सबसे प्रमुख कारण है, लोकगीतों की प्रासंगिकता के कम होने का। आज का युग सब कुछ को उपयोगिता की कसौटी पर कसता है। इसे समझ व अपना कर ही कुछ भी प्रासंगिक हो सकता है आज। सो, जीवन में आज जो बदलाव आ रहे हैं – जिनका एक ट्रेलर-सा इस लेख की शुरुआत में ही दिखाया गया, उन पर गीत लिखे जाकर ही लोकगीतों को प्रासंगिक बनाया जा सकता है। इनके अभाव के नजीतन ये लोकप्रिय गायक पुराने लोकगीत गाये जा रहे हैं, जिनका आज के जीवन से कोई ख़ास सरोकार ही नहीं रहा। गीतों के आउट ऑफ़ डेट होने का एक उदाहरण दें? एक हिट कजरी गीत है – ‘पिया मेंहदी लिया दा मोतीझील से, जाके सायकील से ना...’। अब देखिये कि इसके जीवनगत सरोकार क्या हैं ... मेंहदी के लिए नीलीझील की क्या पहचान है, हमें भी नहीं मालूम। ये लोकल पहचानें हैं। तब गायन लोकल लेवेल पर हुआ करता था। हर अंचल के अपने लोकगीत होते थे। वहाँ वे गाये जाते थे। धुनों और भावों की समानता में उनका राष्ट्रीय स्वरूप आपोआप बनता था, जिसे अनेकता में एकता कहा जाता है। अब लोकगीतों की राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुतियां होने लगी हैं, तो व्यापक पहचानों वाले गीत लिखे जाने चाहिए, जिससे वे सबकी समझ में आयें, सबको आनन्द दें...। दूसरी बात यह कि अब कौन प्रियतम है, जो सायकल से जाकर अपना अपमान करायेगा ? वह कार नहीं, तो बाइक से जरूर जायेगा... कुछ नहीं तो स्कूटर तो होगा ही, पर सायकल तो कतई नहीं...। लेकिन तीसरी व सबसे मार्के की बात यह कि आज की नायिका मेंहदी लगाने के लिए पिया से कहने क्यों जायेगी? ब्यूटी पॉर्लर नहीं चली जायेगी? मेंहदी वाली को अपने घर नहीं बुला लेगी? और इसके आगे के जमाने की बात यह कि पता नहीं वह किसके लिए मेंहदी लगाना या पॉरलर जाना चाह रही होगी- नौकरी पर जाने के लिए, इंटर्व्यू देने के लिए या मीडिया के लिए ऑडीशन देने के लिए?...आदि । तो फिर पिया से क्यों कहेगी? या मुआफ़ किया जाये, तो एक विकल्प और कहूँ - पिया के अलावा अपने किसी प्रेमी के लिए पॉर्लर जा रही हो, तो... ? जी हाँ, इस उत्तर आधुनिक ग्लोबल समाज ने हमें यह दिया है। जब पुरुष बाहर निकलता था, उसके विवाहेतर सम्बन्ध बनते थे। उसकी परिणीता प्रेयसी घर में बैठी इंतज़ार करती थी। इससे बिरह के ढेरों लोकगीत बनते थे...।‘बिरहा’जैसा गायन इसी बिरह से ही निकला था, जो आगे चलकर विविधरूपी विकास कर सका। पूरा समाज रस ले-लेकर उसका गान-पान करता था। एक बानग़ी देखें, जो इधर बहुत लोकप्रिय हुआ है... रेलिया बैरन पिया के लिये जाय रे...’। फिर वो अपने पिया को ले जाने वाले गाडी, टिकट, बुकिंग क्लर्क तथा उस शहर तक के नष्ट हो जाने की कामना करती है, जहाँ वह रहेगा...। और सबके अंत में – ‘जवने सवतिया पे पिया मोर आसिक, बिजुरी गिरइ सवति मरि जाय रे...रेलिया बैरनि...’ याने मानी हुई बात थी कि वो किसी के इश्क़ में पडेगा। उत्तरप्रदेश-बिहार वालों का कलकत्ता जाना प्राय: होता था – छ-छह पैसा, चल कलकत्ता...। वहाँ एक परदेसी यदि बस गया, तो साल भर न आने वाले हर परदेसी को जादूगरनी बंगालिनों ने भेंडा बनाकर रख लिया है... जैसी तमाम भ्रांतियों पर लोकगीतों के ख़ज़ानें भरे हैं। लेकिन जैसे बिजली आ जाने के बाद कविताओं में शर्मीली नायिकाओं के हाथ दीपक बुझाने से जलने बन्द हो गये, ये सब बन्द हो जाने चाहिए। अब विज्ञान के आने के बाद न भेंडा बनने का भ्रम रह गया, और शहरीकरण, यातायात व स्त्री-शिक्षा से न बिरह की वैसी स्थिति रह गयी...। आज जब स्त्रियां भी बाहर की जिन्दगी में उतनी ही सक्रिय हैं, अब पुरुष के लिए भी बिरह की स्थिति आयी है। कभी राम को बिरह में रोते-बिलखते तुलसी ने दिखाया था। आज की हमारी फिल्मों ने इन मर्मों को समझा-अपनाया है- बेशक़ व्यवसाय के चलते ही, लेकिन हमारे लोकगीतों में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो। याने वे अपडेट नहीं हो रहे हैं। परंतु यह सब तो रुकने वाला नहीं है। और बढेगा। फिल्मों के साथ कमोबेश साहित्य ने भी स्वीकार लिया है। लोकगीतों को भी ऐसा करके ही मुख्य धारा में लाया जा सकता है, जिसके प्रति कोई सजग नहीं। कहने का लुब्बो-लुबाब यह कि ऐसे-ऐसे नये विकास जीवन में आ गये हैं, जिन पर गीत आने चाहिए। लोकगीतों को आधुनिक जीवन की तब्दीलियों, जटिलताओं से रू-ब-रू होना होगा। इन्हें समोना होगा। जो लोग लिख रहे हैं, उन्हें इन जटिल जीवन-वास्तवों को गीतों में ढालना होगा, जिससे नयी पीढी के नौनिहाल निहाल हों...। वरना उन पुरानी पिटी-पिटायी थीम पर लिखे गीत आज के नये समाज द्वारा स्वीकारे न जा सकेंगे। वे सीडीज़ में ही बन्द होकर रह जायेंगे...। हमारा लोकगायक आशु कवि भी हुआ करता था। गाते हुए जो कुछ वहाँ चल रहा होता था या देश में जो हिट-हॉट घटित हुआ रहता था, उसे भी अपने उसी गीत में मिलाकर उसी शैली में उसी सुन्दरता से रचता जाता था - ‘इम्प्रोवाइजेशन’जैसा। लेकिन आज के लोकप्रिय गायक महज फ़ूहड हाव-भाव व सस्ते संवादों के ठेकों, जिसमें आयोजक की चापलूसी सबसे ‘चीप’सिद्ध होती है, के अलावा कुछ नहीं कर सकते। और संपर्कों (पब्लिक रिलेशनशिप) का सिला ही है कि ऐसे गायकों के गीतों को ही हम असली लोकगीत समझ बैठने को विवश हो गये हैं। यदि वस्तु के स्तर पर उक्त किस्म के बदलाव हों, तो जो धुन, लय, सुर, टेक, राग, ...आदि हैं, वे प्रासंगिक तो क्या, कालजयी महत्त्व के हैं। मतलब न जानने के बावजूद लोग थिरक उठते हैं। गुजरात, महाराष्ट्र, म,प्र. व राजस्थान के लोग जुटे थे। हम महाराष्ट्र की ओर से गये थे। और हमारा साथी बी.एम. सिंह जब गायन के अवसर पर पिहिक के उठाया था – ‘ छलकल गगरिया मोर निरमोहिया, छलकल गगरिया मोर.. महुआ के कुचवा मदन रस टपके, बहे पुरवइयाझकझोर निरमोहिया कि छलकल गगरिया मोओओ...र... तो गुजरात के सोनी सर इतना चहक उठे कि दौडकर मंच पर रखी ढोलक का ताल मिलाने लगे और न मिला पाने पर मंच पे ही चित्र-लिखित जैसे खडे रह गये थे... ऐसा असर होता है। हिरणी वाला प्रसिद्ध गीत किसी भी युग, भाषा... आदि का मोहताज नहीं...। और ऐसे बहुतेरे हैं। यही लोक्गीतों की प्रकृति है, शक्ति है, जो रहेगी...। युगीन बदलावों की अनिवार्य चर्चा यहाँ न होती, तो इसी सब पक्ष को विस्तार से बताकर प्रासंगिकता की इतिश्री की जा सकती थी। और बिरह, मिलन, प्रतीक्षा, इसरार, इनकार, मान-मनौवल..आदि भावों की सनातनता के आधार पर प्रासंगिकता क्या, इनके अमरत्व की गैरंटी दी जा सकती थी...। और कहना होगा कि यह है भी। लोकगीत अपने इन्हीं गुणों से अमर हैं और रहेंगे...। इनमें इतना अपनापा भरा होता है कि ये सहज ही हमारे गहन क्षणों के साथी बन जाते हैं। हमारे लोकगीतों में संस्कार व संस्कृति तो होती ही है ; एक आदर्श, एक मूल्य भी निहित होता है, जो बताया-कहा नहीं जाता। पूरे विधान में रच-बसा होता है। उसमें एक सहजता-सरलता व निष्कलुषता होती है, जो मोहती है। तभी तो महाराष्ट्र की कीर्त्तन शैली से बना ‘घाशीराम कोतवाल’ का आलोक विदेशों में भी सराहा गया। छत्तीसगढी के लोक में अभी-अभी दिवंगत हबीब साहेब का ‘चरनदास चोर’ व ‘मिट्टी की गाडी’ भी पाश्चात्य देशों में सबके सिरमौर बने। याने कि बहुत कुछ है, जो कहा जा सकता है। लेकिन यह सब कहा गया है। कहा जाता है। बार-बार, बारम्बार। हम इतिहास का गान करते जा रहे हैं और स्थितियां दिन-ब-दिन बिगडती जा रही हैं। इसलिए कहना तो पडेगा। अब समय आ गया है कि ये सचाइयाँ कही जायें। गुडी-गुडी से काम चलने वाला नहीं। इनमें सुधार व बदलाव की मह्ती आवश्यकता है। सरकार के पास योजनाएँ हैं। संसाधन हैं। सच्चे लोक कलाकारों को हबीब साहब की तरह गावों से उठाकर लाना होगा, उनके सारे नखरे उठाने होंगे। कार्यशाला आदि माध्यमों से उनसे वो चीज़ें निकलवानी होंगी, जो रह जाती हैं। नयी चीजें लिखवानी होंगी, ताकि वो सम्भार लोकगीतों में भी आये, जो जीवन में आ चुका है। फिर उनका ऐसा प्रदर्शन कराना होगा कि नयी पीढी को भी उसमें रुचि जागे। सुरक्षित-आरक्षित के बदले लोक की चीज को लोक तक पहुँचाना होगा। लोकगीत को लोकमय बनाना होगा, तब प्रासंगिकता बतानी नहीं होगी, वह स्वत: सिद्ध होगी...। ** ** ** सम्पर्क- “नीलकण्ठ”, एन, एस. रोड नं.- 5, विलेपार्ले- पश्चिम, मुम्बई- 400056 फोन- 022-26101987/ 26163215. मो. 09869355103 ई मेल- satyadevtripathi@gmail.com 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गडे मुर्दे क्यों उखाडे जायें ‘बालिका वधू’ में... ??

‘हमारा महानगर’ (17 जुलाई, 09) में ‘बालिका वधू’ पर संसद में उठे सवाल को लेकर अलका आश्लेषाजी का आलेख पढने को मिला। धारावाहिक को अलका जी ने ‘सामाजिक जागृति का सकारात्मक रूप’, ‘बाल-विवाह के विरोध में एक सार्थक कोशिश’ ‘इस कुप्रथा की समस्याओं को सुलझाने’ व ‘दर्शकों को शिक्षित करने के उद्देश्य वाला’...जैसे जितने विशेषण हो सकते हैं, से नवाज डाला है। और कार्यक्रम हम देख रहे हैं। खेद है कि हम ऐसा कुछ भी देख नहीं पा रहे हैं। काश, अलकाजी ने कहीं एकाध उदाहरण दे दिया होता कि यह सब किस घटना, किस चरित्र, या इनके किस परिणाम से हो रहा है, तो हम भी शायद समझ पाते ! हम तो देखते हैं कि इसकी बालिकाबधू व बालकवर (आनन्दी-जगिया) परम प्रसन्न एवं सुखी हैं। जितना मान-सम्मान, स्नेह-दुलार उन्हें सीरियल के परिवार-समाज से मिल रहा है तथा उसी के चलते जितनी लोकप्रियता उन्हें आज मिल रही है, उसे देखकर हर बच्ची-बच्चा यदि बालिका बधू - बालक वर बनने का सपना देखने लगे (और देख रहे हैं), तो क्या बेज़ा है? क्या यह एक मृत हो गयी रूढ व्यवस्था को ग्लैमराइज़ करना नहीं है? कौन-सी जागृति इसमें निहित है। हाँ, जागृति के नाम पर आनन्दी के ससुराल में पढने की शुरुआत करायी गयी, जो कुछ कडियों को हिट करके ग़ायब हो गयी। वैसे बाल-विवाह की बात ही गडे मुर्दे उखाडना है और ‘कलर’ चैनल तो प्राय: सभी में यही कर रहा है। ‘लाडो...’ में लडकी की भ्रूण-हत्या का मामला कमिश्नर तक ले जाने वाली लडकी अब अम्मा के घर में नौकरानी बनकर रह रही है- पता नहीं कौन सी योजना लिये है !! कमिश्नर न जाने कहाँ गया? इतने पढे-लिखे जागरूक लोगों के बीच कोई पुलिस, कोई व्यवस्था नहीं आ पाती और अम्मा की निरंकुश तानाशाही सत्ता चल रही है... ऐसा गाँव भारतवर्ष में कहाँ है? अम्मा की दादागीरी के स्टंट के सामने तो मनमोहन देसाई व प्रकाश मेहरा की फिल्में भी पानी भरें ! तो बालिका वधू की पढाई की बात भी मुर्दे को भूत बनाना ही है। राजस्थान व बिहार में यदि कहीं-कहीं ये प्रथाएं हैं, तो ऐसे सीरियल वहाँ के लोकल चैनल पर दिखाये जायें। पूरे देश में इन मुरदा प्रथाओं को क्यों जल्वागीर किया जाये ? फिर दिखायें, तो ऐसे कि इनके प्रति अरुचि-जुगुप्सा पैदा हो, न कि ऐसा ग्लैमर कि वैसा बनने का रश्क़ होने लगे...? आइये आगे बढें... घर के बडे बेटे बसंत की दूसरी शादी भी घर वालों को पैसे देकर कच्ची उम्र की किशोरी से करा दी – क्रूर-जघन्य यथार्थ दिखा, विरोध भी दर्ज़ हुआ। लगा कि कोई सार्थक पहल होगी...। दस-बीस कडियां उसमें भी जम गयीं। यह ग़ैर कानूनी है, पर इस तरफ़ ख्याल क्यों जाये? बच्चा देकर ऋण उतारकर जाने के निश्चय से रुकी थी। बडा अच्छा लगा था...। पर अब वह अच्छी-ख़ासी ‘बींदनी’ बनकर घर-बार सँभाल रही है। घर के दुख-सुख में हँस-रो रही है। याने ये होता रहे, का ही सन्देश बना न ! तो कौन सा जागृति पैदा हुई और कौन-सी शिक्षा मिली ? बस, उन विरोधों के नाटक में कुछ कडियाँ फिर हिट हो गयीं। असल में यह सारा खेल कडियों को हिट करने का ही है। ऐसे मुद्दों को ‘हुक’ कहते हैं, जिसे खोजना सीरियल-लेखन का बडा गुर है। ये हुक दर्शक को फँसाने के लिए होते हैं। फिर उसे भूल जाना ही इस विधा का अनुशासन (डिसिप्लिन) है। इस हुक के मक़्सद और मर्म को आम दर्शक तो नहीं समझता, पर लेखक-विकारक ? हाँ, इस बींदनी के गर्भ के जिस बच्चे को लेकर इतना हंगामा हुआ, वह गया कहाँ? याने कहानी तक से ‘हुक’ का मतलब नहीं। तीसरा मसला दादी की पोती (सुगनी) का है, जो विधवा समस्या से जुडा है। उसकी दूसरी शादी कराना जरूर एक सकारात्मक बात है, पर वह गाँव कहाँ है भारतवर्ष में कि वह पहले पति से गवने के पहले इतना मिलती है (रोमांस भी भुना लिया !) कि गर्भवती हो जाती है। यदि यह सब पुराना है, तो मोबाइल कहाँ था तब ? और नया है, तो इतना सब कहाँ है? दोनो ही अतिवाद है। इसकी ज़रूरत न सच को थी, न कथा को । फिर विधवा हो जाने पर जो यातनाएं दी जाती हैं, वे तो किसी भी दृष्टि से कतई बर्दाश्त के काबिल नहीं। हमारा समाज आज के लिए इस सफेद झूठ व एकदम ग़ैरज़रूरी यातनाओं को देखता है, वही आश्चर्यजनक है। और अब एक बुद्धिजीवी पत्रकार से इसकी पैरोकारी तो जले पर नमक ही है। लगता है कि कमाऊ मीडिया के कुएं में पडी भाँग का नशा पूरे समुद्र पर तारी है। पूरा घर उस यातना के खिलाफ़ है और एक बूढी माँ सबकुछ किये जा रही है। कहाँ है ऐसी माँ ? और है, तो क्यों है अलकाजी ? वह पुरखों की बनायी व्यवस्था का वास्ता देती रहती है, जो तब भी इतनी क्रूर न थी। इसका सही रूप इतिहास के गवाक्ष से दिखाने वाली ‘राव साहेब’ फिल्म (जयवंत दळ्वी के नाटक ‘बैरिस्टर’ पर आधारित) में देखा जा सकता है। ऐसा सब और-और भी बहुत कुछ है...पर अभी बस इतना ही। अब कुछ विमर्श देखें... सीरियल का आज मतलब कि हर अच्छे-बुरे को इतना बढा-चढा कर दिखाया जाये कि दर्शक गदगद होकर, गलदश्रु होकर, चमत्कृत होकर... याने चाहे जैसे... बस, देखे। उनकी टी.आर.पी. बढे। विज्ञापन मिलें। सब कमायें-खायें। बनाने में तो व्यापारी घुस ही आये हैं मीडिया में, करने वालों को भी मोहजाल में फँसे जमाना हो गया। वरना बालिकाबधू के मुख्य चरित्र एनएसडी के हैं – एक सरोकारपरक संस्थान से प्रशिक्षित । दोनो बेटे तो अपेक्षाकृत नये एनएसडियन हैं, उनसे क्या पूछना, पर आधुनिक हिन्दी रगमंच में अभिनय की वृहत्रयी में शुमार उस जमाने की एनएसडी अभिनेत्री सुरेखा सीकरीजी, जो स्वयं सारी गल्दराजी की शीर्ष् (दादी) बनी मौजूद हैं, से आख़िरी बार पूछने का मन होता है – ‘दाग़ेदिल ग़र नज़र नहीं आता, बू भी क्या चाराग़र नहीं आती...’!! ख़ैर, इनका तो फ़ायदा हो रहा है। तमाम नाटकों के बावजूद इतनी अपार लोकप्रियता सुरेखाजी को कभी नहीं मिली। ‘लाडो...’ की अम्मा बनी मेघना भी एनएसडी की है और फूले न समा रही होगी कि जो मुकाम सुरेखाजी को जीवन के आखिरी पडाव पर मिला, उसे पहले चरण में ही मिल गया। महिमा मीडिया के ज़माने की ! लेकिन अख़बारों में इसकी स्तुति करने वालों को क्या मिल रहा है? मैं नहीं जानता कि सदन मे उस सांसद (शरद यादव – जे.डी.य़ू.) ने क्यों यह सवाल उठाया। क्या राजनीति है इसके पीछे? बकौल अलकाजी इस सीरियल पर और भी कई तरह के संकट आये। विरोध हुए। बन्द करने की कोशिशें हुईं... वो सब उन्हें सुनियोजित साज़िशों के परिणाम लगते हैं। इस अन्दरूनी बात का भी मुझे पता नहीं, लेकिन चाहे जैसे – ग़लती से ही सही, एक सही सवाल उठा तो सही ! अब उस पर कुछ सप्रमाण व तर्कसम्मत न कहकर सदिच्छा या अपनी निहित पसन्द को थोपकर उस सवाल को उलझाने का क्या मतलब है? और यदि सीरियल में से वे बातें निकालकर बतायी जायें, जिससे शिक्षा, सरोकार, सकारात्मक बदलाव... आदि होते हों, तो मैं अवश्य लाभान्वित और उपकृत महसूस करूँगा...। * * * * सम्पर्क- ‘नीलकण्ठ’, एन.एस. रोड नं.-5, विलेपार्ले-पश्चिम, मुम्बई- 400056 फोन- 022-26101987/ 26163215. मो. 09869355103