Sunday 22 June, 2008

दे ताली

ताल ठोंकते-ठोंकते... हो गयी ‘दे ताली’... एक लडकी मम्मो (आयशा टाकिया) और दो लडके - पगलू (रीतेश देशमुख) व अभि (आफ़्ताब शिवदासानी)...लेकिन ‘एक फूल दो माली’ नहीं.. वैसे साँचे अब नहीं रहे - न जीवन में, न फिल्म में। आफ़्ताब तो हर दिन एक लडकी को दिल दे बैठता है - 31 का आँकडा है फ़िल्म में। सो, हम आयशा-रीतेश को फूल-माली समझने लगते हैं कि तब तक रीतेश को आयशा से कहते पाते हैं - यार, तू उससे (आफ़ताब) प्यार करती है। इसमें आफ़्ताब के अमीर बाप (अनुपम खेर) का भी बडा मनोरम योगदान है। वह भी हमारी तरह पुराना आदमी है। नहीं जानता कि अब के युवाओं में दोस्ती व प्यार के बीच की लाइन बहुत बारीक हो गयी है। ख़ैर, बात संकेतों में आफ़्ताब तक पहुंचा दी गयी है और पापा की पार्टी में वह अपनी प्रिय जीवन संगिनी ( वही स्वीट हॉर्ट लाइफ़ पार्टनर) की घोषणा करने वाला है। आयशा-रीतेश के साथ हम भी दिल थामे बैठे हैं। कोई बेताब दर्शक बोल पडता है- ‘मम्मो को बताने के लिए आईना लेने गया है’, पर तब तक वह एक अदद लडकी लिए आ जाता है- कार्तिका (रीमा सेन)। अब आगे समूची फिल्म की कर्त्ता यही कार्त्तिका हो जाती है... जब कोई खलनायक न हो, तो ग़लतफ़हमी या नियति को ही वह भूमिका निभानी पडती है। मम्मो-पगलू को कार्त्तिका पर शक़ हो जाता है। वे दोस्त को बचाने में जुट जाते हैं। धीरे-धीरे राज़ खुलता हैं...कार्त्तिका की नियति है - गरीब और सनकी माँ-बाप, जिनसे व जिनकी करायी शादी से भागकर वह कई को अपने रूप-जाल में फँसाकर काम निकलने के बाद शराब में ग़र्क़ कर आयी है और अब अंजलि से कार्त्तिका बनकर पूरी पहचान ही बदलकर अमीरज़ादे अभि को फाँस रही है। पर कुचक्र ऐसा मजबूत रचती है कि अभि अपने 14 साल के दोस्तों को फटकार देता है। हारकर ये दोनो शादी के पहले कार्त्तिका का अपहरण कर लेते हैं। कार्त्तिका-वियोग से उबारने के दौरान मम्मो कामयाब हो जाती है- अभि को अपने में अनुरक्त करने में। और इधर आधी फिल्म भर पगलू के घर में बँधी कार्त्तिका से ताल ठोंकते-ठोंकते कब दोनो ‘दे ताली’ कर लेते हैं, का पता उन्हें भले देर से चला हो...विज्ञापन बता चुके हैं हमें हॉल में आने के पहले ही। रही-सही कसर साज-सँभार के दृश्य पूरी कर देते हैं। एक संवाद का सवाल था - कार्त्तिका की पहली शादी का तलाक भी हो जाता है...याने सब सुखी। नियति के खेल से बने राज़ के बनने-खुलने व रक़ीबों की होड और दोस्त के प्रति वफ़ादारी के साथ मौज-मस्ती के बीच अच्छा टाइमपास भी हुआ। इस बीच यह हास्य फिल्म रही कि नहीं, देखकर ही जानें...। और सुनें मौजूँ व मनभावन गीत-संगीत। कारग़र व मज़ेदार संवाद- पगलू के कहे विशेषण खास रोचक । पटकथा अवश्य ढीली-बिखरी-सी, पर ई निवास के निर्देशन की पकड एकदम फ़िट- दृश्यों के कट व जोड तो ग़ज़ब के। कुछ दृश्य तो बडे ही जानदार । पर इसी मोह में फिल्म लम्बा भी गयी। बहुत छोटे में अनुपम खेर व पगलू के मकान-मालिक के रूप में सौरभ शुक्ला का बेहतरीन उपयोग। मुख्य भूमिका में चारो ही सही...अभिनय में सटीक, पर पगलू के किरदार में काफी विविधता, जिसे अच्छा निभा पाने में अलग से उभरी - रीतेश की क्षमता...। - सत्यदेव त्रिपाठी