Sunday 1 June, 2008

हँसते हँसते

“हँसते-हँसते’ में बैठना ‘फँसते-फँसते’ बन गया....” ‘हँसते-हँसते’ जैसा नाम...व कलाकारों में राजपाल यादव। हास्य-विनोद का अन्दाज़ हुआ था। और यही सबसे बडे धोखे निकले। न फिल्म में कुछ हँसते-हँसते होता, न एक बार भी हँसी आती। हँसाने के नाम पर बाप-बेटे-चाच की तेहरी भूमिकओं में राजपाल जो कुछ करते हैं, बेहद बचकाना व फ़ालतू है। अभिनय तो कार्टून जैसा करते ही हैं वे, यहाँ चरित्र भी कार्टून ही हैं। सबसे अधिक कार्टून वो मुख्य भूमिका है, जिसमें वे विदेश में पढने गये हैं और हर लडकी से परिचय के दौरान ही चिपक जाते हैं। कूदकर होठों पर ‘पुच’ कर देते हैं। क्या लडकियां वहाँ इतनी बेवक़ूफ़ हैं! बिज़्नेस की गम्भीर बात चल रही है और ज़नाब खुलेआम लटपटाये जा रहे हैं। ऐसे ही खराब काम करते रहे, तो वो नाम मिट्टी में मिल जायेगा, जिसके कारण इतने रोल में आधी फिल्म को अकेले घेरे हुए हैं। उत्सुकता रही टोनी नामक जीव को लेकर भी, जो निर्माता से पहली बार निर्देशक बनकर अवतरित हो रहा था। पर वह बन्दा फिल्म के किसी पहलू को लेकर कुछ भी उल्लेख्य न कर पाया । सबकुछ हो जाने पर जब दर्शक जाने के मूड में हैं, नायक-नायिका के एक दूसरे को ढूँढने में 15 मिनट का फूटेज खाते हैं.. ऐसा ही सब कुछ है..। कहानी तक कुछ नहीं है। बस, विदेश के दृश्य फिल्माये हैं और वे भी बिना किसी कल्पना या संगति के । प्रेम दृश्यों में मिलते ही बस, गरदन पकडकर झूल जाना व गिर जाना भर है - गिरती ही चली जाती है फिल्म भी। जगह-जगह गीत भरे हैं और एक शीर्षक गीत के अलावा एक भी किसी अर्थ का नहीं। मन को छू ले, ऐसा एक भी नहीं । हाँ, जिम्मी शेरगिल के काम की सफाई के साथ नयी अभिनेत्रियों के नाम से जो आस थी, वह ठीक होती, यदि उन्हें कुछ करने-कराने को मिलता। कहानी का नायक होने के बावजूद जिम्मी को नहीं मिलता - राजपाल से इतनी अभिभूत है फिल्म । फिर भी जितना मिला है, अच्छा किया है। उससे सच्चा प्रेम करने में निशा रावल व उस पर अनायास फ़िदा होकर न पाने पर बदला लेने में मोनिष्का को जो करना था, ठीक ही हुआ है। शक्ति कपूर को ज़ाया किया गया है। और बेज़ा तो बहुत कुछ है, जिसे अब दिखाये जाने के बाद फिल्म वालों के लिए भी भूल जाना ही बेहतर है... - सत्यदेव त्रिपाठी