Wednesday 19 November, 2008

संवेदनाएं प्रैक्टिकल हो रही हैं...!!

कल एम.ए.-द्वितीय वर्ष की मौखिकी (वाइवा) चल रही थी... एक लडकी आयी। चल नहीं पा रही थी। थोडी देर में अपनी साथी प्राध्यापिकाओं की बातों से समझ में आ गया कि गर्भवती है। ऐसे में मैं हर स्त्री के चेहरे पर ‘कामायनी’ के श्रद्धा वाले वर्णन का सच जाँचने लगता हूँ...। उसका ‘केतकी गर्भ-सा पीला मुख’ तो था, पर ‘आँखों में आलस भरा स्नेह’ नदारद था। इसी तरह ‘कुछ कृशता नयी लजीली-सी’ की जगह ‘अति दुबली दुख की प्रतिमा-सी’ बनी पडी थी...हाँ, ‘कम्पित लतिका-सी लिए देह’ अवश्य साकार दिखी...। मुझसे रहा न गया। पूछ बैठा- ससुराल के घर से आ रही हो? उसने ‘ना’ में सिर भर हिलाया। तो कब आयीं माँ के घर? – मैंने पूछा। पाँच-छह दिन हुए... के उत्तर के बाद मैं अचानक विनोद के स्वर में पूछ बैठा –‘अच्छा, मायके और ससुराल के जीवन के अंतर पर कुछ बोलो...’ और वह फफक कर रो पडी...। टेबल पर सर टिका कर आँसू पोंछते हुए उसकी सिसकती आवाज निकली- ‘पिताजी लाने गये थे। बहुत झगडा हुआ...। वाइवा तक के लिए आयी हूँ। परसों वापस पहुंचाना है...’। अब दोनो जीवन का क्या अंतर जानना बचा था !! विषय पर कुछ बातचीत के बाद वह जाने को उठी। दरवाजे तक गयी कि अचानक मैंने उसे बुलाया और पूछा- ‘यदि कल का वाइवा एक सप्ताह के लिए आगे बढा दिया जाये, तो तुम इतने दिन और मायके रह पाओगी?’ वह एक मिनट खडी सोचती रही और बोली – ‘नहीं सर, जाने दीजिए...। वो लोग ज्यादा ही झगडा करेंगे...। फिर आखिर तो रहना वहीं है – ऐसा कितने दिन करेंगे...?’ स्वीकृति में सर हिलाने के अलावा मेरे पास कोई चारा न था..। वह तो चली गयी...। पर मुझे वह घटना याद दिला गयी, जहाँ मेरे पास चारा था। पिछले महीने की दीवाली के एक दिन पहले की घटी अपने भाई की बेटी की घटना...। बेटी को हमने बडे लाड से पाला। एम.ए. तक पढाया। बडे रज-गज से शादी की। लडका अपने ही जिले के शहर में अच्छी नौकरी में है। उम्मीद थी कि शहर में बेटी भी कुछ करेगी। अच्छा जीवन होगा। लेकिन चार भाइयों व पिता के सम्मिलित परिवार का दबाव ऐसा कि बच्ची को पडोसी के घर तक जाने की इजाज़त नहीं। थोडी ही दूर पर उसके साथ 14 सालों तक पढी सहेली की ससुराल है, पर वहाँ जाने या उसे अपने घर बुलाने की मनाही । दो कमरों में दो बच्चों को लेकर सडने पर विवश। कभी कहीं घूमने-फिरने जाने की कोई सूरत नहीं। एक चम्मच तक खरीद नहीं सकते अपनी मर्जी से – फ़िल्म आदि देखने की तो बात ही क्या? घर से पूछना पडता है सबकुछ...। हर शनिवार की शाम 15 किमी. पर स्थित गाँव जाना ही पडता है – बाइक पर दोनो बच्चों को लेकर। फिर सोम की सुबह वैसे ही आना...। बस, इसके अलावा कहीं कुछ नहीं। हमारे यहाँ तक आने देने में हजार बहाने-बन्दिशें। इस-उस कारण से तीन-तीन, चार-चार साल तक बिदाई नहीं। बेटी पस्त्। आकुल। भाई भी बेकल, पर झगडे और बेटी के पिसने के डर से चुप । मेरे उबाल पर भी भाई के संकोच का ढक्कन। और इस दीवाली के एक सप्ताह पहले किसी तरह बिदाई हुई थी। दीवाली मनाकर वापस जाने की बात थी। संयोग से मैं भी पहुंच गया था। बेटी से बातें करते और दोनो नातियों के साथ खेलते हुए बडा मज़ा आ रहा था... कि दीवाली के दो दिन पहले समधी आ गये। और शाम को अचानक बिदाई पर ज़ोर देने लगे। कहा कि दीवाली की पूजा है, पूरे परिवार का साथ रहना जरूरी है। मैं बिफर पडा – ‘यह बात बिदाई के पहले क्यों नही की ?’ ... भइया घर पे नहीं थे। और पिछ्ली सारी बातों का असर रहा होगा। कई सालों का बन्द ढक्क्न ऐसा खुला कि मैंने एकदम ‘ना’ कह दिया। और मन ही मन तैयार हो गया- सारे झगडे के लिए। सोच लिया कि कोर्ट-कचहरी भले हो जाये, पर इस साँसत से निकलना ही होगा- सम्बन्ध रहे, चाहे टूटे...। इस सडाँध को झेलने से टूट जाना ही बेहतर। बस, इसी रौ में उनके सारे रहन-सहन, सोच-सलूक पर एकदम साफ-साफ, काफी कुछ कह भी दिया – बेशक़ शांत लहज़े और सुथरी भाषा में...। समधी तो चले गये, पर दूसरे दिन दामाद आ गया- शायद पिता ने मेरे कहने को नमक –मिर्च लगाकर बताया होगा। शहर से अपने घर न जाकर सीधे मेरे घर आया। शाम को घर में सिर्फ औरतें व बच्चे थे। एकाध घंटे ही रहा और हमें तो किसी ने बताया नहीं, पर पता लगा कि लगातार कुछ कहता-धमकाता रहा। छह साल के नाती ने जरूर कहा- ‘नाना, आप नहीं थे, तो पापा आये थे। मम्मी से कह रहे थे- ‘पत्नी के लिए सबसे बडा होता है पति। भगवान से भी बडा..। क्या पति भगवान से भी बडा होता है..’। मैं क्या बताता ! मुझे चुप देखकर फिर बोला- ‘बताओ न नाना, पापा आज ऐसा क्यों कह रहे थे? रोज़ तो भगवान को सबसे बडा बताते हैं’। मैं हतप्रभ... ! पर अब बच्चे के मानस-पटल पर दरार न पडने देने के लिए कुछ तो बताना ही पडेगा..., सोचते हुए मेरे मुँह से निकला – ‘मेरे लिए तो सबसे बडा है – मेरा ये नन्हा-सा नाती। भगवान से भी बडा...’ कह्ते हुए उसे गोद में लेकर उछाल दिया...और हँसते हुए ‘और उछालो, और उछालो’ कहने में वह अपना सवाल भूल भी गया। लेकिन कुछ ही देर बाद समधीजी बाइक पर नमूँदार हुए अपने बडे बेटे के साथ। गडबड का पूरा अन्देशा हो गया...। गाँव को जवाब देने का ख्याल सबसे पहले आया... नयी नताई ! कल ही गये हैं समधी... आज फिर क्यों आ गये इतनी रात को !! शाम को दामाद आया था...। याने गाँव सोच रहा होगा कि क्या हो रहा है। ख़ैर, चाय-पानी हुआ। खाना-वाना खाकर सोया गया। सुबह नाश्ता करते हुए शुरू हुए समधी महोदय– ‘जरा ध्यान से सुनिए प्रोफेसर साहब, आप तो पढे-लिखे हैं। बात को समझिए... कल शाम को मेरे मना करने के बावजूद मेरा बेटा यहाँ आया था। बडा जिद्दी है। मानेगा नहीं। आप बहू को विदा कर दें। मैं उसे लेकर जाऊँ और सब बात खतम हो जायेगी’। सुनकर तो मेरे बदन में आग ही लग गयी, पर अपने घर का लिहाज रखते हुए मैंने भरसक पूरी नरमी से ही कहा – ‘देखिये, कल मैंने इतनी बातें कीं...और आज आप बेटे को समझाने के बदले यहाँ चले आये लिवांने... यह तो उसे शह देना है। और मेरी बात वही है कि चार साल बाद बिटिया आयी है। अभी 8 दिन हुए... परसों दीवाली है। उसकी बहन आयी है, कल बुआ आ रही है। मैं आ गया हूँ। इतना सब संयोग बन गया है, तो इस बार हमें साथ में दीवाली मना लेने दीजिए...जिन्दगी भर तो आपके यहाँ रहना ही है। चार साल बाद कम से कम दस दिन मायके में रहने का संतोष भी हो जायेगा’। परंतु वे मेरी बात को जैसे अनसुनी करते हुए बोले- ‘आप मेरी स्थिति को समझिये... बच्चे के दिमाँग की सोचिये..। और् बिदाई कर दीजिए। बस, मैं इतना ही कहूँगा’। ‘और मैं कहूँगा कि आप मेरी बात को समझिए, पर आप तो सुनना तक नहीं चाह रहे हैं। अब बेटे को आप तीन दिन कैसे सँभालेंगे, आप सोचिए’- शब्दों पर दबाव बढ गया। ‘तो मतलब कि बिदाई नहीं होगी...?’- ढिठाई थी पूछने में....। ‘बिदाई होगी- दीवाली बाद। उसी दिन, जो कल तय हुआ’- उतनी ही ढिठाई आवाज में। ‘तो ठीक है, तब तक हम भी यहीं रहेंगे, उसी दिन जायेंगे लिवाकर ही...’। बस, अब तो मेरा पारा सातवें आसमान पर ‘तो तुम धरना दोगे हमारे दरवाजे पर ? और हम देने देंगे? अब तो आप को जाना ही होगा’। वो थोडा हँसे- ‘तो क्या आप भगा देंगे? मैं तो यहीं ओरी की नीचे निखरह्री खाट पर भी सो लूँगा- जमीन पर सो लूँगा, पर जाऊँगा बहू को लेकर ही...’। मेरे हाथ उठे ही थे –‘निकल जाओ’- कहने के लिए कि अचानक मैंने अपने हाथ को बेटी के हाथों में थमा पाया । भर सिर को आँचल से ढँके वह अपने ससुर और मेरे बीच खडी हो थी। मुझे विश्वास तो अब नहीं हो रहा, पर सुनी मैंने अपने ही कानों से अपनी ही पाली बेटी की आवाज... वह अपने ससुर से मुखातिब थी - ‘मैं चलूँगी पापा, आप अभी लेकर चलिए...’ और फिर मेरी तरफ़ मुडी। शब्द निकलने के पहले ही मैंने उसके होंठों पर हाथ रख दिया। और बोला- ‘ठीक है बेटा, अब मुझे कुछ नहीं सुनना है। मैं गाडी मँगाता हूँ अभी। और तुम लोग चले जाओ... अब तुम वहीं रहोगी। बस, सब खत्म..’। और मैं चल पडा गाडी वाले को फोन करने...। लेकिन फिर बेटी के जाने तक घर वापस न आ सका। बगल वाले भाई के दरवाजे पर पडी एक खाट पर पड गया। पडे-पडे ख्याल आया अपनी बडी बहन का...। तब मैं नवीं में पढ रहा था। बहन किसी झगडे के कारण ससुराल से अपने आप चली आयी थी। दो-तीन दिन बाद उसके ससुर लेने आये थे। मैंने बचपनी आक्रोश में मना कर दिया था- अब मेरी बहन उस घर में नहीं जायेगी। घर के किसी ने मेरी बात का विरोध नहीं किया था। उसके ससुरजी नाराज होकर चले गये थे। जाते हुए कह भी गये थे – आज तक कोई अपनी बहन-बेटी को जिन्दगी भर रख नहीं पाया है बेटा...। और मैंने उसी जुनून में कह दिया था – मैं वही करके दिखा दूँगा...। चार साल रही बहन अपने दो बच्चों के साथ, कभी चूँ तक नहीं किया । और उसी ससुर के मरने के बाद मैंने ही पहुँचाया था, तब गयी थी। उस दिन लगा कि मेरी बहन बेवकूफ़ थी- और मैं तो आज भी हूँ। उसे भी चले जाना चाहिए था। किस बिसात पर मैंने उसे रोका था और किस उम्मीद पर वह रुकी थी !! अब तो मेरे पास बिसात है। नियम-कानून हैं। पर बेटी चली गयी...। जवाब दिया आज इस छात्रा ने...। और अचानक मन में कौंधा– संवेदनाएं अब काफ़ी प्रैक्टिकल हो रही हैं और मैं आउट ऑफ़ डेट...। ** ** ** सम्पर्क- नीलकण्ठ, एन एस रोड न.-5, विलेपार्ले-पश्चिम, मुम्बई – 400056, मो-

Saturday 9 August, 2008

सिंग इज़ किंग...नाम में क्या नहीं है...! अनीस बज़्मी को अंग्रेजी नामों का खासा मोह है। ‘नो एंट्री’, ‘वेलकम’ को तो हिन्दी में कह सकते थे, पर ‘सिग इज़ किंग’ को तो हिन्दी में ढालना भी कठिन है, पर है इतना सरल कि अंग्रेजी लगता नहीं। तभी तो सिगों की कुछ ट्रकों के पीछे भी दिख जाता है...। क्या जाने वहीं से ले लिया हो..! लेकिन फिल्म का नाम बनने के बाद इसका जल्वा देखकर आज होते, तो शेक्स्पीयर भी ‘नाम में क्या रखा है’ को बदलकर कर देते- ‘नाम में क्या नहीं है?’। ऐसा हिट हुआ कि कहाँ-कहाँ फ़िट होने लगा ! ख़बरों-एसएमएसों आदि में सिंग लोग किंगमय होने लगे। विश्वास पाकर मनमोहन सिंह, छह विकेट लेकर हरभजन सिंह किंग हो गये। अमर सिह भी नहीं बचे। नाम ही नारा हो गया। प्रचार भी भीषण हुआ। और इसी के चलते कुछ न करने वाले सिंग लोग नाम को देखकर ही तूफ़ान मचाने चल उठे...। लेकिन फिल्म देखकर लगा कि तूफ़ान मचाने जैसा तो प्याला भी नहीं है और यह नाम अपने काम में भी कुछ ऐसा ‘किंग साइज़’ नहीं है। हैपी सिंग बना अक्षय कुमार बेचारा गाँव का भोलाभाला लडका है। सबकी मदद करता है। ईमानदार है। भावुक है। सो, चढाने पर कुछ भी करने को चढ जाता है - मुर्गी पकडने से लेकर ऑस्ट्रेलिया में डॉन बन बैठे अपने गाँव के दोस्त लकी सिंग (सोनू सूद) को वापस लाने तक का...। मुर्गी पकडने में पूरे गाँव के सामान तहस-नहस करता हैं, तो लकी सिंग को विरोधी गैंग वालों से बचाने में उसी के सर-पैर तोड डालता है। इन सबमें गँवईंपने को बेहद बढा-चढा कर दिखाने से फ़ार्स वाला हास्य बनता तो है, पर हँसी लाने तक खींचने में दृश्यों का कीमा भी बन जाता है। साथ में ओमपुरी हैं, जो ‘मेरे बाप पहले आप’ स्टाइल में बर्बाद होने के लिए टाइप्ड होते जा रहे हैं। लेकिन हैपी सिग की तो यही सब पहचान बन जाता है, जिसे निभाने के मास्टर हो चले हैं अक्षय - नमस्ते लंडन व भूलभुलैया आदि से..। फिर ऐसे कारनामे खोज-खोज कर शामिल किये गये हैं, जिनके चलते बडी कुशलता से कहानी भी बनती जाती है। ऑस्ट्रेलिया जाने में इजिप्ट पहुंच जाना गँवरपन के चलते है, पर वहाँ सोनिया (कैटरीना कैफ़) का पर्स लेकर भागने वाले को मुर्गी के अन्दाज में पकडना ऐक्शन है। उसे दिल दे बैठना फिल्मी है। फिर ऑस्ट्रेलिया में उसी की माँ (किरन खेर) के यहाँ रहना और उसी के चलते लकी सिंग की गैंग में पैठना, लकी का बीमार व हैपी का सरगना बन जाना...आदि सब असम्भव के आकस्मिक जोड का मसाला भी है, पर कथाकला का सबब भी। कैटरीना आती है अपने ब्वायफ्रेंड (रनवीर शौरी) के साथ, पर हिन्दी फिल्म का दर्शक जानता है कि वो मिलेगी हीरो को ही। सो, लकी की गैंग ढेरों मेलोड्रामा रचती है, जो खासे मनोरंजक बन पडे हैं - बस, आप दिमाँग को पूर्ण विश्राम देकर उनका विशुद्ध मजा लेने का मन बना लें। हैपी पूरी गैंग को हिंसक से अच्छा इंसान बनाता है, जो फिल्म का शुभ पक्ष है और इस प्रयत्न में सभी चरित्रों व कलाकारों - नेहा धूपिया, यशपाल शर्मा, मनोज पाहवा, कमल चोपडा, सुधांशु पाण्डेय आदि कलाकारों की पहचान बन जाना अच्छी कला का नमूना है। लेकिन हीरो के लिए सबके रोल का कटना छिपता नहीं। ऐसे में नामवाले जावेद जाफ़री के रोल का विस्तार भी खुल जाता है। किरन खेर की सदाबहार आवाज व अदा मोहक है, तो कैटरीना की सुन्दरता को अभिनय की दरकार नहीं। विरासती पुट के साथ नयेपन को मिलाकर संवाद फिल्म के किंगपने को सार्थक करते हैं - ‘मैं कहता हूँ सच, अच्छा तो अपने आप लगने लगता है’। गीत कई हैं, पर शीर्षक गीत के सिवा सभी औसत हैं और औसत संगीत से मिलकर औसत मनोरंजन दे जाते हैं। और लगता है कि औसत के स्तर से ऊपर उठना आज की हिन्दी फिल्मों को भूल-सा गया है। - सत्यदेव त्रिपाठी

Saturday 2 August, 2008

99 तमाचे और एक चुम्बन की ‘अगली और पगली’ ... सचिन खोत की फ़न्नी, पर अच्छा ‘टाइमपास’ फिल्म ‘अगली और पगली’ के अंत में पर्दे पर लिखा पाया जाता है - ‘99 स्लैप्स ऐण्ड वन किस’। पूरी फिल्म हम देखते रहे थे कि बात बात पर या बिना बात बात की बात पर हिरोइन मल्लिका शेरावत ज़ोरदार थप्पड मारती रही है हीरो रनवीर शौरी को। सो, हमने 99 मान लिया। और अपने जन्म दिन पर होटेल में झटके, पर धडल्ले से गालों पर चूमते देखा था, सो हिसाब बराबर समझ कर उठने ही चले कि दिखायी पडा- मल्लिका-रनवीर का होंठों में गाढे चुम्बन का दृश्य... और ख्याल आया कि ओह, हम भी कहाँ के दाना ठहरे कि ‘ख़्वाहिश-ए-मल्लिका’ को रुसवा करने चले थे- भला गालों पर ‘पुच्च’ कर देना भी कोई मलिका-ए-चुम्बन का चूमना हुआ...। ग़रज़ ये कि इज्जत रख ली खोत ने। दर्शकों का भी कुछ पैसा वसूल हुआ। चुम्बन चुलबुलाते निकले...। और काफ़ी पैसा वसूल हुआ मल्लिका के ‘आइटम नाच-गान’ में - दृश्यांकन (कैमरा व नियोजन) तो पूरी फिल्म का ही अच्छा है। फिर मल्लिका का भरपूर इस्तेमाल भी और भावन नैंनसुख भी। यूँ अभिनय भी कम नहीं। पगली की ख़िताब को अगली ने बनावटी गम्भीरता से अच्छा साकार किया - इसे अंग्रेजी का ‘अगली’ (जो सोचकर हम भी गये थे) कतई न समझें। और जब पगली है ही वह, तो प्रेमी को पेटीकोट पहनाकर बिना सीट की सायकल पर शहर में घुमाने जैसा सनक तथा ख़ुद भी अंतर्वस्त्रों को कपडों के ऊपर पहनकर कॉलेज जाने जैसा बोल्ड...क्या-क्या सब कराती-करती है कि हँसें भी और सर भी पीटें । पर इसी सबकी तो फिल्म है, जिसे आप जाके ही देखें कि खुद को मालिक व प्रेमी को गुलाम बनाकर कैसे रखती है ! फिर हीरो प्रेमी कबीर कैसे उसे सहर्ष निभाता है और दिखाता है कि मज़बूरन कर रहा है। इसी दोराहे के बीच उभरता है रनवीर के अभिनय का गुर कि बन और जम जाती है हीरो जैसी भरपूर साख़...। लेकिन इसी पागलपन व गुलामी के बीच बनता है वह विचित्र प्रेम भी, जिसके लिए चचा ग़ालिब ने कहा था- ‘यही है आज़माना, तो सताना किसको कहते हैं ; अदू के हो लिये जब तुम, तो मेरा इम्तहाँ क्यों हो’। बस, यहाँ आज़माने-सताने के इम्तहान में प्रेमी पास भी होता है और कोई अदू (दुश्मन) भी नहीं है। था तो पूर्व प्रेमी, पर मर चुका है और उसी ग़म में शराब पीने व रेल से कटकर मरने के लिए तैयार कुकहू टकराती है कबीर से...। याने मुख़्तसर से फ़ुटेज में पूरी मनोवैज्ञानिकता भी समा उठी है। निर्देशक की मज़बूत मनभावन पकड ऐसी कि सब होने में मज़ेदार नाटकीयता भी और हास्य में शालीन होती मनमानियाँ भी...। फिल्म शुरू होने के साथ हीरो निकला था जिस आँटी से मिलने, उससे मिल पाता है फिल्म के समाप्त होने के समय और यह नाटकीय यात्रा भी बन जाती है लाजवाब फ़न का सिला । बस, आँटी में ज़ीनत अमान ज़ाया होती हैं और बिना बताये लडकी के रात-रात भर ग़ायब होने को शराब पी-पीकर गिरने-सहने में बाप बने टीनू आनन्द भी...। पर कुछ अच्छा बनने के लिए किसी को तो बलि होना ही पडता है...। -सत्यदेव त्रिपाठी

Saturday 26 July, 2008

इस्तानबुल का मिशन टाँय-टाँय फ़िस्स अपूर्व लखिया को लगा कि ‘शूट आउट’ को मिशन और ‘लोखंड्वाला’ को ‘इस्तानबुल’ कर देंगे, तो एक और हिट बन जायेगी; पर भूल गये कि वह एक वारदात थी, जिसके निशानात लोगों की जेहन में थे। सो, लोग गये देखने। और जैसा कि हर घटना के पीछे एक कहानी होती है, वह कहानी भा गयी। फिल्म चल गयी। लेकिन यहाँ ओसामा व अलक़ायदा की छाप के साथ अमेरिकन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का छौंक भी काम न आया...। क्योंकि जो कहानी बनी, वह पिटी-पिटायी फिल्मी साबित हुई । ब्लॉस्ट में पत्नी-बच्ची को खोने के बाद बने स्वयंभू हीरो विवेक ओबेरॉय(रिज़वान) को इतने संसाधन व इतनी सूचनाएं कहाँ से मिलती हैं, लखिया ही लख सकते हैं। साथ में है नये हीरो बने ज़ायेद ख़ान, जिसका किरदार (विवेक साग़र) इतनी कम उम्र में आर्मी से निकलकर ‘आज तक’ का विश्वप्रसिद्ध रिपोर्टर बन गया है और किसी पद व जिम्मेदारी के बिना भी खासे बडे-बडे कारनामे करके आतंकवादी गैंग का खात्मा कर देता है। विवेक को हँसमुख व ज़ायेद को गम्भीर बनाने का बानक चरित्रांकन का सही जोड है, पर दोनो के ठीक करने के बावजूद फिल्म का कोई सही तोड नहीं बन पाता। इनके साथ मिशन में जुडती है श्वेता बजाज, जिसे ध्यान में आने लायक अदाकारी का मौका तो नहीं मिला है, लेकिन उसका चरित्र (लिज़ालोबो) अवश्य काफी रोचक है। ‘डॉन’ की ज़ीनत अमान की याद दिला देता है। और फिर तो आतंकवादियों की रोबोट जैसी गैंग से लडते हुए अमित-प्रान-ज़ीनत की तिकडी भी दिखती है और लाल डायरी के बदले कम्पुटर से उतारी सीडी है। बस, हॉय विवेक से प्यार न कराकर श्वेता को नाहक मरवा डाला !! लेकिन यहाँ पुलिस नहीं आती, क्योंकि जाँबाज़ लडाकू रिपोर्टर काफी हैं। पर दूसरा क्योंकि यह कि यहाँ सिर्फ़ गैंग लड रही होती है। दोनो सरगनों से दोनो हीरोज की आख़िरी, रुटीन और फिल्मी, लडाई अंत में होती है। निकेतनधीर (गज़्नी) की बलिष्ठ देह (बॉडी बिल्डर) काम नहीं आती और इतनी बडी आतंकवादी गैंग के सरगना का इतनी मोटी बुद्धिवाला होने पर पूरी फिल्म के दौरान विश्वास नहीं होता। पहले के खल पात्र स्मगलिंग का धन्धा करते थे और ऊपर से समाजसेवी बने रहते थे। अब धन्धा आतंकवाद का करते हैं और ऊपर से श्रेष्ठ मीडिया कर्मी बने हुए हैं। तभी तो पूरा टर्की उसकी घोषणा पर दोनो हीरो के पीछे पड जाता है...। नये हीरो की नयी हिरोइन श्रिया सरन का अभिनय भी बेजान है और उसका पूरा अंजलि-मामला भी ठूँसा हुआ है, जिसके न होने से कहानी पर कोई फ़र्क़ न पडता । अंत के सस्ते भावुक ड्रामा से भी दर्शक बच जाता और एक रस्मी गीत से भी। यूँ सभी गीत ऐसे ही हैं। अभिषेक बच्चन वाला ‘आइटम नाच-गान’ है, जो फिल्म की तो छोडिए, अभिषेक की पोल एक बार फिर खोल देता है। दूसरी अतिथि भूमिका स्वरूप सुनील शेट्टी तो गोया मरने के लिए ही आये थे..। मज़े का दृश्य जॉर्ज बुश वाला है, जहाँ वे म-न मो-ह-न कहना सीख रहे हैं और हॉल में जाते हुए एक दर्शक ‘मिशन इस्तानबुल’ कहना सीख रहा था... ‘मिशन काबुल’ व ‘मिशन इस्तकबाल’ कहे जा रहा था। जॉर्ज यह भी कह रहे थे कि ‘डोंट टच इंडियंस’ और बाहर निकलते हुए दूसरा दर्शक कहते सुना गया- डोंट सी दिस मिशन यार,...वैसे कहाँ है यह ‘इस्तानबुल’? -सत्यदेव त्रिपाठी

Friday 18 July, 2008

अकेलेदम आतंकवाद को खत्म करने का ‘कॉंट्रैक्ट’ ... रामगोपाल वर्मा का नया हीरो आतंकवाद को खत्म करने का ‘कॉंट्रैक्ट’ लेता है और यह फिल्म का ही कमाल है कि वो ऐसा कर देता है - दो गैंगों का सफ़ाया...वरना तो इस बात में कोई माल नहीं है, यह रागोव को भी मालूम है। तो क्या कर रहे हैं वे ? सफ़ाया आतंकवाद का या जनता की जेब का...? हाँ, हीरोगीरी के सारे सरंजाम के बावजूद आध्विक महाजन काफ़ी सहज संतुलित व सही लगा। ‘अंडरवर्ल्ड का आतंकवाद से मेल’ का नारा - एक और फिल्मी फ़ण्डा ! दो में से एक गैंग का इस्तेमाल आतंकवादी सरगना कर रहा है, तो क्या फ़र्क़ पड जा रहा है? हाँ, कुछ बात वहाँ है, जहाँ दूसरी गैंग का इस्तेमाल खुली व्यवस्था के तहत सरकारी तरह से हो रहा है। कहना चाहिए- ‘सरकार का अंडरवर्ल्ड से मेल’। क्या कर रही है सरकार व सेंसर ? और नया क्या है इसके सिवा इस ‘कॉंट्रैक्ट’ में कि एक पुलिस शूटर को सडकों पर नंगे दौडाता है हीरो। वरना तो पुलिस द्वारा अपराधियों की गैग में मुखबिर भेजना ‘डॉन’ जैसी स्टंट से लेकर ‘द्रोहकाल’ जैसी सार्थक फिल्मों तक में कितनी ही बार हुआ है..! फिर दोनो का मिक्स्चर ...मुखबिर बनाकर भेजने वाले का खात्मा व गैंग की लडकी से प्यार होता है डॉन जैसा, तो भेजने वाले अफसर को सामने मरते देखना व उसके पदचिन्हों पर चलना तथा सबसे बडे अफसर (यहाँ गृहमंत्री) का आतंकवादी से मिला होना है ‘द्रोहकाल’ जैसा..। बस, इस बार मुखबिर बना हीरो अमान भुक्तभोगी है - बमब्लास्ट में बेटी व पत्नी को खो चुका है। वरना उसे मालूम ही न पडता कि आम आदमी की पीडा क्या होती है ? वह तो आतंकवादी सरगना के फ़लसफ़े - “तुम भी शूटर ही हो। किसी के कहने पर लोगों को मारते हो। तुम्हारा कोई अपना वजूद ही नहीं” - का कायल होक्रर फौज की नौकरी छोड चुका है। और 99% दिमाँग वाले ऑफ़िसर को फ़तह के कग़ार पर पहुंचने के बाद भी नहीं पता कि मुखबिर-योजना का अंत कैसे होगा...! ये ही हैं फिल्म के विचारप्रधान होने के दावे के ढहे हुए आधार !! सारी कडाई के बावजूद वह मोबाइल नहीं पकडा जाता, जिस पर हीरो की ऑफिसर से इतनी लबी बातें होती हैं कि हमारा दिल धडकने लगता है और सारे रुटीन के बावजूद यह दिल धडकाना ही इस फिल्म का उल्लेख्य पहलू है, जो कला का न होकर तकनीक का है। बस, संवाद खासे तगडे हैं, जिसमें ‘सिक्रेट’ आदि के प्रसंगों के बनाव उल्लेख्य हैं। यदि उससे आधी दम भी कहानी व बात में होती, तो रामगोपाल वर्मा जैसा कुछ होता...। शेष बहुत सारा तो अलग व खास करने के चक्कर का शिकार हो गया है। किशोर कदम, अमृता सुभाष तो कॉर्टून हुए ही हैं, छोटे राजन जैसा पात्र करने वाला उपेन्द्र लिमये सबसे बडा कार्टून बन गया है। प्रसाद पुरन्दरे की बोलने की अदा ही उन्हें ख़ास बनाती है, पर पोशीदा गुफ़्तगू के लिए वह एकदम बेमेल है। यही हाल ज़ाकिर हुसेन का भी हुआ है। दाऊद की छबि को साकार करते आर.डी. (सुमित) का कोई काम ही नहीं...। बिना दिखाये ही दृश्यं व चरित्र को मशहूर करने की अदा है रागोव की, जो यहाँ भी फलीफूली है...। प्रेम का उत्सर्ग वाला रूप भी अच्छा बना है और इसे निभाती साक्षी गुलाटी भी संतोष जनक हो पायी है। सब कुछ पुराना है, पर बासी नहीं...के थ्रिल का मज़ा लेना हो, तो फुर्सती समय में देख लेने लायक भर ही बन सका है - फिल्म का दर्शकों से ‘कॉंट्रैक्ट’ ...। - सत्यदेव त्रिपाठी

Sunday 13 July, 2008

पुराने फॉर्मूलों को खींचतानकर बनी ‘महबूबा’ का क्या हो...? सफ़ाई देखिए कि करन (अजय देवगन) सपने में लडकी को देखता है और उसे पेंटिग्स में हू-ब-हू उतार लेता है !! स्टुडियो (सॉरी, बैठक है) भर रखा है.। फिर कमाल देखिए कि वह लडकी उसी शहर में है। तब मह्बूबा-महबूबा (फिल्म के नाम को साकार करते हुए) गाते-गाते पीछा करता है, जिसे देखकर लडकी कहती है - ‘नाटकबाज़ी का यह फ़ॉर्मूला बहुत पुराना हो गया है’। निर्देशक अफ़ज़ल खान यह संवाद सुन लेते, तो समझ जाते कि पूरी फिल्लम ही ऐसा बासी फ़ॉर्मूला है- एक फूल दो माली याने प्रेम त्रिकोण का.. बस, दो बातें फ़ॉर्मूले से अलग हैं...1- पहला माली श्रवण धारीवाल (संजय दत्त) प्रेमी नहीं, ‘हर रात इक नया हो बदन’ का व्यापारी है और मानता है कि हर औरत बिकाऊ होती है- चाहे पैसों की कीमत से या वादे की और इसी रौ में पैसे से हार जाने के बाद वादे से फाँसता है और मँगनी के बाद ही भावुक बनाकर रात बिताकर उसके तमाचों का जवाब देकर निकाल देता है...। 2- दोनो माली सगे भाई हैं, जिसका पता दर्शकों को तब लगता है, जब करन अपनी महबूबा को राजी करके शादी कराने अपने घर जाता है, जहाँ ‘हम आपके हैं कौन’ का पूरा बडजात्या-परिवार - रीमा लागू, बिन्दु, हिमानी शिवपुरी..आदि के साथ - तैयार है, जिनके बीच पहला माली ग़म ग़लत करते हुए शराब में ग़र्क हुआ पडा है - ज़ाहिर है उसी फूल के लिए पछ्तावा ...। लेकिन फूल एक ही है - मनीषा कोइराला ; इसका पता चेहरा देखने के कारण दर्शकों को है, पर फूल तो वर्षा से पायल हो गयी है,, इसलिए दोनो मालियों को पता नहीं है। जिस कौमार्य (वर्जिनिटी) की कीमत जीवन में रोज़ घटती जा रही है, उसका भाव फिल्मों में इतना बढा कि कौमार्य-भंग के बाद लडकी नाम तक बदल लेती हैं - गोया एक जीवन ही खत्म हो गया हो...? आख़िर हिन्दी फिल्में बालिग़ कब होंगी ? अब आधी फिल्म में यह भर बचा था कि फूल किस माली का होता है ! पलडा भारी है अजय का, पर हिन्दी फिल्मों में पलडे का वजन देखने पर विश्वास होता, तो हम उठकर चले न आते - ‘हमें क्या बुरा था मरना, ग़र ऐतबार होता’ ! और इस बेऐतबारी के चलते इतनी ग़लाज़त सहनी पडी कि उफ़...भाइयों की लँगोटिया यारी, अपनी-अपनी प्रेमिका की सुन्दरता को लेकर बाज़ियाँ, फ़ालतू के दृश्य व पिटे-पिटाये संवाद, चाय व नाच-गान..यानी ढेरों फिल्मी लटके-झटके...। सबसे जिन्दा बचे, तो देखा- प्रेमिका को त्यागने के लिए दोनो भाई तैयार। बक़ौल मनीषा ‘भाइयों का ऐसा प्यार कहीं नहीं देखा’ और फिर वही बात, जो ‘निक़ाह’ में इससे बहुत-बहुत ज़ोरदार ढंग से सलमा आगा कह चुकी है- मेरी जिन्दगी का फैसला और मुझे बिना बताये ? क्योंकि ‘निक़ाह’ को कुछ कहना था और ‘महबूबा’ को कुछ कहने का इल्म तक नहीं...। तमाम फ़ॉर्मूलों को निभाना तक नहीं आया अफ़ज़ल को- 7-8 साल तक न जाने क्या होता रहा..। बस, सुफल यही कि संजय को ज़रा चुस्त देखना भला लगा। मनीषा अपने रूप की तरह ही सधी-सँवरी है। अजय देवगन ने बहुत कोशिश की, पर पानी पीटने से कहीं रास्ता

Saturday 5 July, 2008

लव स्टोरी- 2050 हैरी बावेजा लिखित-निर्देशित फिल्म ‘लवस्टोरी-2050’ में सना (प्रियंका चोपडा) व करन (हरमन बावेजा) को देखते हुए आधी फिल्म तक यही लगा कि 2050 का प्यार भी वही पहली नज़र वाला ही होगा- बिना किसी कारण व तर्क के...। फिर लडकी के पास बडा अच्छा घर होगा, जहाँ वह अकेली रहती होगी...। परंतु वह घर 2050 में भी सिर्फ हॉय व बॉय करने के काम आयेगा…प्रेमी वहाँ सिर्फ फूल देगा और मिलने का समय तय करेगा...बाकी प्यार तो वे सडकों पर, पहाडों पर, बाज़ारों-मॉलों में गाते-नाचते-कूदते ही करेंगे। [इससे अच्छा उपयोग तो वैजयंती माला (के आदिवासी बाप) के घर का ‘मधुमती’ में दिलीपकुमार कर लेते थे।] बेचारे जावेद अख़्तर ही 2050 में भी गाने लिखेंगे...पर वे गद्यगीत होंगे, जिन्हें संगीतकार गवा देगा। हाँ, उसमें अनिवार्य रूप् से उछल-कूद के लिए जावेद जी गैप्स छोडेंगे और संगीतकार उन गैप्स पर अपने ख़म रख सकेगा...ठीक है कि एकाध गीत इसके अपवाद होंगे, जिसे 2050 का समय अवश्य माफ़ नहीं करेगा..। हाँ, 2050 में भी बिछडते हुए दोनो रोयेंगे। मैं यह सब देखकर पहले तो कम्बख़्त 2050 के समय को कोसने लगा...। पर फिर आश्वस्त हुआ कि चलो, बाग-बागीचों-नदियों-वादियों में आधे-पौना घंटे गा-नाच कर प्यार को प्रतिष्ठित करने की देवानन्द-राजकपूर युग की विरासत ज्यों की त्यों सुरक्षित तो है...ठीक है कि वादियां विदेशी (आस्ट्रेलियाई) हैं, क्योंकि देसी वाली बार-बार आकर बासी हो गयीं हैं...। तब के निर्देशक तरसते थे कि काश, अंग्रेजी फिल्मों की तरह छूट होती, तो एक चुम्बन से पाँच सेकेंड्स में यह काम हो जाता...। और आज तो छूट के बावजूद आधी-आधी फिल्म में वही हो रहा है, क्योंकि करें क्या...? तो हुआ न परम्परा-पालन ! इस रौ में लडकी की माँ (अर्चना पूरन सिंह) ज़रूर बडी मॉडर्न होगी कि होटेल में दोनो के लिए ऑर्डर देकर ख़ुद खिसक लेगी, पर वह 2050 में भी कुंडली जरूर मिलवायेगी...परम्परा...! और इसके लिए नायक के चाचा ज्योतिषी-वैज्ञानिक (वोमन ईरानी) मौजूद, पर वे असल में क्या कर रहे हैं, शायद वोमन को ही मालूम हो...। उनकी बनायी टाइम मशीन में बैठकर नायिका ‘2050 मुम्बई’ लिखती है, तब पता चलता है कि यह तो 2008 ही था...। तब तक नायिका एक आइस्क्रीम लिए रोड पार करते हुए मोटर से टकराती है व प्रेमी की बांहों में दम तोड देती है...ठडे-ठंडे होठों से एक किस देने का वायदा धरा का धरा रह जाता है - बेचारा हरमन !... पर किती शालीन है फिल्म !! अब मध्यांतर के बाद जाते हैं - 2050 की मुम्बई में, जहाँ सना का पुंनर्जन्म हो चुका है। वह एक सुपरस्टार डांसर है। शायद 2050 की मुम्बई में जवान ही पैदा होंगे- बच्चा पैदा करके कौन पाले-पोषे ? परिवार रोबोट हैं व आसमान में उडते वाहन हैं। पूरा परिवेश आसमानी रंग का है। शायद तकनीक के बल बनायी यही विज्ञान-कथा है...। लेकिन यहां भी फ़र्जी पहचान पत्र बनते हैं। विलेन होते हैं - नक़ाबपोश रोबोट । लेकिन अकेले करन सबकी ताकतों पर भारी पडता है - आख़िर हीरो है, फिर निर्माता-निर्देशक परिवार का राजकुमार भी...। काया भी हिरोइक और काम में भी दम...। प्रेमिका को खोजता ही नहीं, पहचनवा भी लेता है - डायरी तक ले जाना नहीं भूला था...। और प्रेमिका भी तो हसीन-दिलदार - पहली बार भायी प्रियंका ...। बडा मज़ा आया यह देखकर कि कभी पुराण-काल में पतिव्रता सावित्री अपने मरे पति को यमराज से माँग लायी थी- 2050 की मुम्बई में प्रेमिकाव्रती प्रेमी होंगे, जो दूसरे जनम से खींच लायेंगे प्रेमिका को...। जय हो टाइम मशीन की...जिसमें हिरोइन के घर के छोटे-छोटे बच्चे भी आ गये थे...। बच्चों को बोर करता होगा प्रेम व बडों को बोर करता है कथा विहीन फिल्म का बचकानापन...। इस तथ्य का पता चल गया होता, तो अपनी नयी कल्पना की कथा व कला को सँवार सकते थे हैरी बावेजा... -सत्यदेव त्रिपाठी

Sunday 29 June, 2008

समा गया थोडे-से प्यार में ज्यादा-सा जादू

‘थोडा मैजिक थोडा प्यार’ यूँ तो बच्चों की फिल्म है और बच्चों के लिए काफ़ी मज़ेदार भी है, पर उसकी शुरुआत होती है- फ़िल्म के नायक, बडे नामी बिजनेसमैन रनवीर तलवार (सैफ़ अली ख़ान) के गुस्से (न जाने क्यों?) व उसकी कार के हादसे से, जिसमें एक दम्पति की मृत्यु हो जाती है...। वैसे तो पूरा शहर, लेकिन ख़ास तौर पर पूरा मीडिया घोर शंका से आतुर है कि इस अमीरज़ादे को छोड देगा जज। पर वह तो अद्भुत फ़ैसला देता है- मृत दम्पति के चारो बच्चों को अपने घर में साथ रखकर श्री तलवार लालन-पालन करें...। और अब बच्चे तो बच्चे - वो भी फिल्म के बच्चे !! फिल्मी न होते, तो ऐसे दुखद समय में केस के दौरान अपने घर देखभाल के लिए आयी मौंसी-चाची-बुआ आदि को तूफ़ान-मस्ती करके भगा न देते... फ़िर माँ-बाप की मृत्यु के जिम्मेदार रनवीर के साथ क्या नहीं करेंगे...? उसे तंग करने की सारी बदमाशियों का नेतृत्व बडा बच्चा वशिष्ठ (अक्षत चोपडा) करता है...जिसमें इरादा तो बदले का है, पर तरीका बच्चा दर्शक वर्ग के मनोरंजन का ...। लेकिन यहाँ तक की तिहाई फिल्म में तो न प्यार है, न जादू...। वो आता है- भगवान (ऋषि कपूर) द्वारा इनमें मेल कराने के लिए गीता (रानी मुखर्जी) नाम से भेजी गयी परी के साथ...। सो, आगे की फिल्म परी-कथा है। सबकुछ जादू से होता है, जिसमें बच्चों के मुताबिक बहुत कुछ शामिल है...। इन तरीकों के परिणाम का तो पता था ही - सबकी दोस्ती व रानी से सैफ़ का प्यार...। सो, हुआ । और अंत के थोडे-से प्यार में समा गया - फिल्म के 55% हिस्से का यह जादू, 25 प्रतिशत शरारतें और थोडा-सा रोना-धोना भी...। इस प्यार पर कुर्बान होकर भगवान भी परी को धरती पर छोड देते हैं...सब खुश...। लेकिन इस बीच बच्चों के साथ आने वाले बडों के लिए कुछ है। सैफ़ की प्रेमिका के रूप में अमीषा पटेल रखी गयी है, जिसका अमीरी से बना गधापन (स्टुपिडिटी शालीन होता !) तो बच्चों का है, पर फिल्मकारों ने उसे महज कटि-वक्ष पर दो कसमसाते टुकडे (वही ‘टाइट टू पीस’) के साथ दर्शनीय बनाया है बडों के लिए। ज्यादा रसिकों के लिए उस पर नंगानाच (वही आइटम सांग) भी। दिल्ली-आधारित कहानी फिल्माने में विदेश हैं, और एक बार कहानी भी ‘लॉस एंजिल्स’ जाती है, जब सैफ़ के सौदे के बहाने बच्चों के साथ उसकी पूरी दोस्ती होती है। इनमें सधे कैमरे से कैद की गयीं ख़ूबसूरत दृश्यावलियां भी बडों को रुचेंगी। दो गीत तो ज़रूर सबको भायेंगे, पर असल में लुभायेगी बंगाली बाला रानी मुखर्जी ही - सैफ़ तो झींकते लगे इसमें मुझे। और सच का मज़ा तो बच्चों के सहज अभिनय का ही है - एक से बढकर एक। सब अपने काम व चरित्र की माँग पर सटीक...। और सब पर निर्देशक कुणाल कोहली की मनचाही पकड एकदम सही । किसी को राजेश खन्ना अभिनीत ‘दुश्मन’ की याद आ जाये, तो ताज्जुब न होगा... बच्चों के लिए तो उपहार है ही, बडे भी उनके साथ बोर न होंगे, वरन् फिल्म के आदर्शों-नसीहतों को समझाने के लिए उपयोगी ही होंगे... - सत्यदेव त्रिपाठी

Sunday 22 June, 2008

दे ताली

ताल ठोंकते-ठोंकते... हो गयी ‘दे ताली’... एक लडकी मम्मो (आयशा टाकिया) और दो लडके - पगलू (रीतेश देशमुख) व अभि (आफ़्ताब शिवदासानी)...लेकिन ‘एक फूल दो माली’ नहीं.. वैसे साँचे अब नहीं रहे - न जीवन में, न फिल्म में। आफ़्ताब तो हर दिन एक लडकी को दिल दे बैठता है - 31 का आँकडा है फ़िल्म में। सो, हम आयशा-रीतेश को फूल-माली समझने लगते हैं कि तब तक रीतेश को आयशा से कहते पाते हैं - यार, तू उससे (आफ़ताब) प्यार करती है। इसमें आफ़्ताब के अमीर बाप (अनुपम खेर) का भी बडा मनोरम योगदान है। वह भी हमारी तरह पुराना आदमी है। नहीं जानता कि अब के युवाओं में दोस्ती व प्यार के बीच की लाइन बहुत बारीक हो गयी है। ख़ैर, बात संकेतों में आफ़्ताब तक पहुंचा दी गयी है और पापा की पार्टी में वह अपनी प्रिय जीवन संगिनी ( वही स्वीट हॉर्ट लाइफ़ पार्टनर) की घोषणा करने वाला है। आयशा-रीतेश के साथ हम भी दिल थामे बैठे हैं। कोई बेताब दर्शक बोल पडता है- ‘मम्मो को बताने के लिए आईना लेने गया है’, पर तब तक वह एक अदद लडकी लिए आ जाता है- कार्तिका (रीमा सेन)। अब आगे समूची फिल्म की कर्त्ता यही कार्त्तिका हो जाती है... जब कोई खलनायक न हो, तो ग़लतफ़हमी या नियति को ही वह भूमिका निभानी पडती है। मम्मो-पगलू को कार्त्तिका पर शक़ हो जाता है। वे दोस्त को बचाने में जुट जाते हैं। धीरे-धीरे राज़ खुलता हैं...कार्त्तिका की नियति है - गरीब और सनकी माँ-बाप, जिनसे व जिनकी करायी शादी से भागकर वह कई को अपने रूप-जाल में फँसाकर काम निकलने के बाद शराब में ग़र्क़ कर आयी है और अब अंजलि से कार्त्तिका बनकर पूरी पहचान ही बदलकर अमीरज़ादे अभि को फाँस रही है। पर कुचक्र ऐसा मजबूत रचती है कि अभि अपने 14 साल के दोस्तों को फटकार देता है। हारकर ये दोनो शादी के पहले कार्त्तिका का अपहरण कर लेते हैं। कार्त्तिका-वियोग से उबारने के दौरान मम्मो कामयाब हो जाती है- अभि को अपने में अनुरक्त करने में। और इधर आधी फिल्म भर पगलू के घर में बँधी कार्त्तिका से ताल ठोंकते-ठोंकते कब दोनो ‘दे ताली’ कर लेते हैं, का पता उन्हें भले देर से चला हो...विज्ञापन बता चुके हैं हमें हॉल में आने के पहले ही। रही-सही कसर साज-सँभार के दृश्य पूरी कर देते हैं। एक संवाद का सवाल था - कार्त्तिका की पहली शादी का तलाक भी हो जाता है...याने सब सुखी। नियति के खेल से बने राज़ के बनने-खुलने व रक़ीबों की होड और दोस्त के प्रति वफ़ादारी के साथ मौज-मस्ती के बीच अच्छा टाइमपास भी हुआ। इस बीच यह हास्य फिल्म रही कि नहीं, देखकर ही जानें...। और सुनें मौजूँ व मनभावन गीत-संगीत। कारग़र व मज़ेदार संवाद- पगलू के कहे विशेषण खास रोचक । पटकथा अवश्य ढीली-बिखरी-सी, पर ई निवास के निर्देशन की पकड एकदम फ़िट- दृश्यों के कट व जोड तो ग़ज़ब के। कुछ दृश्य तो बडे ही जानदार । पर इसी मोह में फिल्म लम्बा भी गयी। बहुत छोटे में अनुपम खेर व पगलू के मकान-मालिक के रूप में सौरभ शुक्ला का बेहतरीन उपयोग। मुख्य भूमिका में चारो ही सही...अभिनय में सटीक, पर पगलू के किरदार में काफी विविधता, जिसे अच्छा निभा पाने में अलग से उभरी - रीतेश की क्षमता...। - सत्यदेव त्रिपाठी

Sunday 15 June, 2008

मेरे बाप पहले आप्

हास्य के साथ ‘कुछ और’ की खिचडी - काफ़ी फ़ीकी... यदि सिनेमा हाल में घुसते हुए प्रियदर्शन (लेखक-निर्देशक) मिल जायें, तो आप यही कहके उन्हें आगे कर सकते हैं- पहले आप। फिर दोनो पूरे तीन घंटे (हॉय, सम्पादित क्यों न किया या..र) बैठ पायें, तो निकलते हुए पूछिए कि वे क्या बनाना चाहते थे - कॉमेडी या कुछ और...! कॉमेडी को सस्पेंस में खत्म करने वाली ‘चलती का नाम गाडी’ जैसी बेहतरीन फिल्म का उदाहरण है। और प्रियदर्शन को समापन नहीं आता, इसका प्रमाण उनकी सबसे अच्छी फिल्म ‘हेराफेरी’ भी है- याद कीजिए वो झटके लगांने वाला उबाऊ दृश्य। फिर तो सबमें है...। शायद इसीलिए उन्हें ज़रूरत पडी- ‘कुछ और’ की, जो कॉमेडी पर भारी पडता गया और कथा में उसे बुनने की प्रक्रिया में हास्य (पर ध्यान) कम होता गया, जो उनकी ख़ासियत व मशहूरियत हैं। ठीक ध्यान होता, तो राजपाल के किरदार को एकदम ही फ़ालतू न होने देते...शोभना को ‘शोपीस’ न बनाकर उनकी क्षमता लायक कुछ कराते...। उधर ओमपुरी के किरदार पर ऐसा ध्यान दिया कि पचासे की उम्र में पूरी फिल्म शादी के लिए लडकी खोजने में भटकाते रहे, जो अच्छा हास्य तो शुरू में भी नहीं बना, आगे तो बोरियत की हद तक एकरस (मोनोटोनस) हो गया। इसी ‘कुछ और’ ने परेश रावल के किरदार को गम्भीरता की टोपी पहना दी और दर्शक ठहकेदार हास्य से महरूम रह गया...। हालाँकि जो दिया गया, उसे करने की जीतोड कोशिश दोनो ने की, पर ‘बिगडी बात बने नहीं, लाख करे किन कोय’... और यह सब कर देने वाला वह ‘और कुछ’ कथा के बाहर भी तमामों को काफ़ी नाग़वार गुज़रा है। क्योंकि वह बहुत सही है, बहुत प्यारा है; पर ग़ैर पारम्परिक है। बचपन से एक दूसरे के जानू-अनु (जनार्दन-अनुराधा) रहे परेश रावल-शोभना का साठ साल की उम्र में मिलन व विवाह, जिसे कराते हैं जानू के सुपुत्र गौरव (अक्षय खान्ना) और अनु की पुत्रीवत शिखा (जिनेलिया डिसोज़ा)। फिर ये हीरो-हिरोइन हैं। सो, अपनी शादी के पहले यह शादी कराते हैं। बेटा कहता भी है- ‘मेरे बाप, पहले आप’। पर शीर्षक गीत ‘बाहर’ का पर्दा खुलने के बाद क्यों शुरू होता है? हीरोगीरी तो यहाँ तक है कि प्रेमिका के बाप (नसीरुद्दीन शाह) की खास अदा में शादी तोडने की धमकी के बावजूद अपने प्रेम को कुर्बानी की कीमत पर भी बेटा यह कराता है। इस त्याग भाव पर हिरोइन के (सच्चे फिल्मी) बाप को मानना ही था। बडा बेटा चिराग (मनोज जोशी) भी हिन्दी फिल्मों की रूढिगत कुलटा पत्नी को फिल्मी तमाचा मारकर शादी में शामिल होता है। इसी सब फिल्मी लटकों व हास्य के दोराहे में इस मह्त्त्वपूर्ण ‘और कुछ’ को निखरने नहीं दिया। बेटे की तरह बाप के रख-रखाव के बेहतरीन आइडिया को तो लोग हास्य समझते रहे। फिल्माया भी गया हीरोगीरी के साथ। सो, फिल्मी होकर रह गया। याने ‘कुछ और’ ने ‘हास्य’ को भटकाया -बिखेरा और हास्य ने इसे दबाया, धूमिल किया - ना ख़ुदा ही मिला, ना बिसाले सनम...। हाँ, इस थीम के पहले हीरो-हिरोइन की लॉग-डाँट में लिपटी लुकाछिपी से बनी चौथाई फिल्म में तथा बूढे प्रेमी-प्रेमिका को मिलाने के फोन वाले कल्पनाशील दृश्यों में निर्मल हास्य बना है। अक्षय खन्ना तो नया कुछ नहीं करते, पर नयी आयी जिनेलिया का तो सब नया है ही, थोडी ही देर में वह मुग्ध भी कर लेती है। पूरी फिल्म में लडकियों को छेडने के नाम पर दोनो दोस्तों - परेश व ओमपुरी - को पकडते हुए और ओमपुरी से उठाबैठक कराते हुए पुलिस इंस्पेक्टर बनी अर्चना पूरन सिंह कब ओमपुरी की खोज का नतीजा बन जाती हैं, दर्शकों को जैसे जाते-जाते ही मालूम पडता है, उसी तरह शायद प्रियदर्शन को भी बाद में ही किलका होगा...। सबसे बडी बर्बादी तो पुराने ज़माने के परेश-शोभना के प्यार के नग़मे की उछलकूद वाले नाच के फिल्मांकन में हुई है। भाई प्रियन, कुछ तो प्रिय दर्शन रहने देते... - सत्यदेव त्रिपाठी

Saturday 7 June, 2008

satyadev tripathi: माँ इसे देवी कहती... (समापन किस्त...)

satyadev tripathi: माँ इसे देवी कहती... (समापन किस्त...) प्रियवर बेनामजी, आशीर्वचनों के लिए बारम्बार शुक्रिया...! कहीं बहुत गहरे चुभी होगी देवी, तभी अपनी असलियत के साथ प्रकट हुए आप...। आप को लगी चोट के लिए खेद सहित - स.त्रि.

satyadev tripathi: cinema

satyadev tripathi: cinema अनाम महोदय, सही श्लोक भी लिख ही देते ! ग़लती किससे नहीं होती ? स. त्रि.

Friday 6 June, 2008

cinema

‘सरकार राज’ की ‘सरकारी’ के सबब.... रामगोपाल वर्मा की ‘सरकार’ में एक व्यापारिक प्रकल्प को रोकने में सुभाष नागरे (अमिताभ बच्चन) घायल होते हैं। बेटा शंकर नागरे (अभिषेक बच्च्न) उन सबको मार डालता है। अब इस ‘सरकार राज’ में एक बिजली उत्पाद योजना को लगाने में बेटा शंकर नागरे मारा जाता है और तब पिता उन सभी को मरवा डालता है। मुख़्तसर में यही थीम है फिल्म की... और यह पैटर्न वही गॉड फादर का है, जिस वजन पर निश्चित कयास हैं कि तीसरा भाग भी बनेगा, जिसमें पोता चीकू (मुझे चीकू चाहिए- सरकार) होगा और सरकार फिर भी जिन्दा रहेंगे। आख़िर, भीष्मों की परम्परा वाला देश है यह । ख़ैर..., इसी तरह की छोटी-छोटी तमाम आवा जाही देखी जा सकती है... मसलन - उसमें बडा बेटा बाग़ी होता है, छोटे भाई के हाथों मारा जाता है; तो इसमें बेटे सरीखा वफ़ादार सेवक पिता सरीख़े मालिक के हाथों...। विरोधियों में व्यापारियों, गुण्डों, स्मगलरों के साथ बडे-बडे ओहदों पर आसीन राजनीतिज्ञों की मिली भगत दोनो में है...और महाराष्ट्र की भक्ति व सच्ची सेवा की मिश्री तो घुली है ही। कुल मिलाकर सिर्फ़ ‘इस कोठी का धन उस कोठी’ करने के अलावा क्या है? फिर भी फिल्म हिट होगी और इंशा अल्लाह तीन साढे तीन स्टार से नवाजी भी जायेगी...। क्योंकि अमिताभ बच्चन हैं...। और बाला साहेब का ‘सरकार राज’ प्रदेश में हो, न हो; फिल्म में अमिताभ का है। फिर व्यक्तित्वों को बनाना तथा उनके हर सही-गलत की पूजा करना हमारे देश की पुरानी परम्परा है - ‘यत्र कृष्णो, ततो धर्म:’ से लेकर ‘इंडिया इज इन्दिरा’ तक के इतिहास को रामगोपाल वर्मा सरीखे लोग जानते हैं। सतत भुना रहे हैं...। सुभाष नागरे इतने लोगों को खुल्लमखुल्ला मरवा देते हैं इस बार कहा भी - ‘राजनीतिज्ञों के वेश में गुण्डे’, पर हिट... । हाँ, दो राय नहीं कि बस अमिताभ ही हो सकते हैं सरकार। तीन चौथाई फिल्म में उन्हें बेटे के पीछे कर दिया गया था। फिर बेटे को मरवाकर वर्मा ने अमिताभ की सरकारी दिखायी। इस सरकारी के होते हुए भी बेटे के मरने के बाद जागते हैं सरकार !! भाई, सरकार हैं, कोई स्टंट फिल्मों के विलेन तो नहीं कि बेटे को बचाने के लिए चीखें...? ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि जो बहू के मरने के बाद दिल के दौरे का शिकार हो जाता है, बेटे की मौत के बाद पहलवान होकर एक-एक को मरवा कैसे सकता है - सरकार जो ठहरा - ‘समरथ के नहिं दोष गुसाईं’ । दो-दो एकालापों में भी सरकारी सर चढकर बोली, पर फिल्म मुँह के बल गिरी- वह सब कुछ तो फिल्म को करके दिखाना चाहिए था...लेकिन सरकार ही तो फिल्म हैं- इन्दिरा इज़ इंडिया। और जब “गॉड फ़ादर’ ही नहीं बताती कि साराकुछ कारनामा होता कैसे है, तो वर्मा क्यों बतायें कि आख़िर किस बल पर शंकर नागरे क्या कुछ करता है, जो बाप से आगे व प्रदेश का भविष्य हो गया है। जैसे अभिषेक की भूमिका प्रायोजित है, वैसे ही अभिनय भी प्रक्षेपित (प्रोजेक्टेड) । और ऐश्वर्या को तो बस, दो लाख करोड वाली परियोजना की फाइल पकडाकर अभिषेक को निहारना भर था, जो अच्छा करती है वह। शालीन लिबास में खिलती भी है। परियोजना में इफ़रात बिजली से महाराष्ट्र का विकास होना है, पर 40 हजार लोगों को उजडना है, जिनके पुंनर्वास पर कुछ नहीं कहती फिल्म...बस, विरोध में प्रांत के अति मानिन्द राव साहेब को अपने बच्चे के लिए खूनी राजनीति का खेल खेलने वाले आज के नेताओं के साथ खडा करके उस ज़माने को भी नाहक दाग़दार बना देती है। परंतु राव साहेब बने दिलीप प्रभावलकर अपनी खास आवाज व निराबानी अदा से अभिनय मूल्यों को अवश्य खूब ऊंचा उठा देते हैं...। पॉवर प्लांट के बहाने पॉवर पॉलिटिक्स का यह खेल ही खेलना था, जिसके लिए सब दोयम दर्जे के विलेन (गोनिन्द नामदेव ...आदि) तो ठीक, पर सभी कैरिकेचर क्यों बन गये है वर्माजी ? क्या स्टाइल मरवाने के चक्कर में ? या आपको सीरियलों का बालाजी बनना है...? -सत्यदेव त्रिपाठी

Thursday 5 June, 2008

अरे, जा रे ज़माना

‘तीसरी कसम’ का गँवई नायक हीरामन बात-बात पर कहता है- ‘अरे जा रे ज़माना’...। आज कदम-कदम पर हमारा भी मन जमाने के लिए यही कहता है... ...अभी चार दिन पहले की बात है- हमारी बगल वाली बिल्डिंग में एक 58 वर्षीय आदमी को दिल का दौरा पडा। वह एक कॉलेज में प्राध्यापक है । शादी नहीं की है और अपनी अविवाहित बहन के साथ बँगले की पहली मंजिल पर रहता है। दौरे के दौरान वह फ़र्श पर गिर गया, उल्टियां होने लगीं..। पास-पडोस में किसी से ताल्लुक नहीं। भाई को उठाने में अकेली बहन असमर्थ...किसको बुलायें? तल मंजिल पर सगा बडा भाई रहता है। सम्पत्ति को लेकर केस चल रहे हैं। बातचीत बन्द है। उसे बुलाया नहीं। दूसरा भाई चार किमी की दूरी पर है। उसे फोन किया। पर आया वह तीन घंटे बाद...। तब एम्बुलेंस आयी। वह अस्पताल गया। नीचे से बडे भाई के परिवार ने देखा, पर घर से बाहर न निकला...। ....और यह सुनकर मेरे मुँह से बेसाख़्ता निकल पडा- अरे, जा रे ज़माना...! न निकलता... पर इसलिए निकला कि मैंने देखा है- दो पट्टीदारों में सम्पत्ति को लेकर पुश्तैनी मुकदमे चल रहे हैं। रात के आठ बजे एक को साँप काटने की चिल्लाहट होती है और सबसे पहले वही पट्टीदार आता है। पाँव में गमछा बाँधता है, ताकि ज़हर का ऊपर चढना रुका रहे। और तुरत अपनी सायकल पर लेकर इलाज़ के लिए चल पडता है - गोया दोनो में कभी अदावत रही ही नहीं...। पहला भी सहर्ष उसकी सेवाएं लेता है, क्योंकि वह भी जानता है कि वक्त पर ऐसा करने से वह भी बाज नहीं आयेगा...। यह तो मेरी जवानी के दिनो की बात है - दस साल पहले की। लेकिन यह सुनकर मुझे अपने बचपन की घटना याद हो आयी थी, जब मेरे बडे बाबूजी के दोस्त, जो पट्टीदार थे, खेत व घर के ज़मीन का मुकदमा लडने जिले की कचहरी जाते थे और आते-जाते रातों को मेरे घर ठहरेते, क्योंकि उनके घर यातायात के साधन से 15 किमी दूर थे, जहाँ से वे चलकर आते थे। दोनो साथ आते-जाते, साथ में बैठकर खाना खाते और यदि केस के खर्च के कारण एक के पास पैसे कम पड जाते, तो दूसरा उसे भाडे-किराये का पैसा भी देता... याद आना स्वाभाविक है महाभारत का भी, जहाँ राज्य के लिए दिन भर हर तरह की मार-काट मची रहती थी, पर सूर्यास्त के बाद सब एक दूसरे के शिविर में आते-जाते ही नहीं, खाते-पीते भी थे। पाण्डवों ने युद्ध के बाद कौरव-भाइयों का भी दाह-संस्कार किया था। इन्हीं संस्कारों से बनी मेरी समझ को ताज्जुब हुआ और निकल पडा- ‘अरे, जा रे जा रे ज़माना’ ...! वो संस्कार कहाँ चले गये ? क्यों मर गये... ? सोचता हूँ - शहर के ये बहुत ज्यादा पढे-लिखे लोग सही हैं.. या गाँव के वे कम पढे लिखे लोग...? इनकी निजता सही है या उनकी सामाजिकता ? दुश्मनी की हद में मनुष्य को जिन्दा रखना सही है या दुश्मनी के नाम पर अहम की ज़द में इतना अ-लगाव ? ये लोग शायद उस व्यवहार को पाखण्ड कहें - कि जब मुकदमा चल रहा है, बातचीत बन्द है, तो मदद करना एक नाटक है...। अब आप भी सोचें कि वह नाटक है या यह अमानवीय ? पर मैंने उस पट्टीदार से पूछा था ...। उसने अकुंठ भाव से बताया था- मुकदमे की बात और है... फैसला होगा, तो जायदाद मिलेगी या नहीं, पर रहना तो साथ ही है। दोनो के दुख-सुख में तो साथ ही है...। भाई, लडने के लिए भी दोनो को रहना है...। लेकिन इनसे तो पूछने की हिम्मत भी नहीं । न जाने क्या कह दें - ‘आपसे मतलब ? हमारी जिन्दगी है... मरें या जियें । जिससे केस है, बात नहीं है, उसकी मदद लेने से बेहतर है- मर जाना’...। पडोसी के नाते मेरा भी बडा मन था कि देखने जायें...। पर अपने घर में काम करने वाली बाई, जो वहाँ भी करती है, ने बताया- वे नहीं चाहते कि कोई देखने आये। सो, हिम्मत नहीं पडी। कहते हैं- इस दुनियादारी का क्या मतलब ? रोमैंटिक आन्दोलन की शुरुआत में ‘द वर्ल्ड इज़ टू मच विद अस’ (दुनिया बहुत-बहुत मेरे साथ है) की वैयक्तिकता भी थी, पर उसका मक़्सद भी मनुष्यमात्र से कटकर अकेले हो जाना तो नहीं रहा होगा...! वे सज्जन बहन से भी कहते हैं - यहाँ तो नर्सेज हैं देखभाल के लिए। तुम क्यों आती हो’? पर बहन जाती है। उसका भी मामूली-सा तर्क है - उसके बिना पूरा घर कैसा तो लगता है ! याने भाव भाई के जीने के प्रति नहीं, अपने होने के लिए है...। और वह भाई, जो छोटे भाई को एम्बुलेंस में जाते देखकर भी घर से न निकला..., जाने क्या कहे... !! दुष्यंतजी को क्या पता थ कि जो शेर वे शहर के लिए लिख रहे हैं, कभी भाई के लिए भी सच हो जायेगा - ‘इस शहर में अब कोई बारात हो या वारदात ; अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिडकियां’ । सोच के दायरे से बाहर वह भाई भी नहीं, जिसने कार से 5 किमी आने में तीन घंटे लगा दिये...! बस, समझ में एक बात आयी कि यदि ऐसे जीना है, तो दिल को इतना मज़बूत होना होगा कि वह भीषण दौरे को भी तीन-चार घंटे सह ले, वरना तो एक मिनट भी सम्भव नहीं होता...। - सत्यदेव त्रिपाठी

Sunday 1 June, 2008

हँसते हँसते

“हँसते-हँसते’ में बैठना ‘फँसते-फँसते’ बन गया....” ‘हँसते-हँसते’ जैसा नाम...व कलाकारों में राजपाल यादव। हास्य-विनोद का अन्दाज़ हुआ था। और यही सबसे बडे धोखे निकले। न फिल्म में कुछ हँसते-हँसते होता, न एक बार भी हँसी आती। हँसाने के नाम पर बाप-बेटे-चाच की तेहरी भूमिकओं में राजपाल जो कुछ करते हैं, बेहद बचकाना व फ़ालतू है। अभिनय तो कार्टून जैसा करते ही हैं वे, यहाँ चरित्र भी कार्टून ही हैं। सबसे अधिक कार्टून वो मुख्य भूमिका है, जिसमें वे विदेश में पढने गये हैं और हर लडकी से परिचय के दौरान ही चिपक जाते हैं। कूदकर होठों पर ‘पुच’ कर देते हैं। क्या लडकियां वहाँ इतनी बेवक़ूफ़ हैं! बिज़्नेस की गम्भीर बात चल रही है और ज़नाब खुलेआम लटपटाये जा रहे हैं। ऐसे ही खराब काम करते रहे, तो वो नाम मिट्टी में मिल जायेगा, जिसके कारण इतने रोल में आधी फिल्म को अकेले घेरे हुए हैं। उत्सुकता रही टोनी नामक जीव को लेकर भी, जो निर्माता से पहली बार निर्देशक बनकर अवतरित हो रहा था। पर वह बन्दा फिल्म के किसी पहलू को लेकर कुछ भी उल्लेख्य न कर पाया । सबकुछ हो जाने पर जब दर्शक जाने के मूड में हैं, नायक-नायिका के एक दूसरे को ढूँढने में 15 मिनट का फूटेज खाते हैं.. ऐसा ही सब कुछ है..। कहानी तक कुछ नहीं है। बस, विदेश के दृश्य फिल्माये हैं और वे भी बिना किसी कल्पना या संगति के । प्रेम दृश्यों में मिलते ही बस, गरदन पकडकर झूल जाना व गिर जाना भर है - गिरती ही चली जाती है फिल्म भी। जगह-जगह गीत भरे हैं और एक शीर्षक गीत के अलावा एक भी किसी अर्थ का नहीं। मन को छू ले, ऐसा एक भी नहीं । हाँ, जिम्मी शेरगिल के काम की सफाई के साथ नयी अभिनेत्रियों के नाम से जो आस थी, वह ठीक होती, यदि उन्हें कुछ करने-कराने को मिलता। कहानी का नायक होने के बावजूद जिम्मी को नहीं मिलता - राजपाल से इतनी अभिभूत है फिल्म । फिर भी जितना मिला है, अच्छा किया है। उससे सच्चा प्रेम करने में निशा रावल व उस पर अनायास फ़िदा होकर न पाने पर बदला लेने में मोनिष्का को जो करना था, ठीक ही हुआ है। शक्ति कपूर को ज़ाया किया गया है। और बेज़ा तो बहुत कुछ है, जिसे अब दिखाये जाने के बाद फिल्म वालों के लिए भी भूल जाना ही बेहतर है... - सत्यदेव त्रिपाठी

Saturday 24 May, 2008

- धूम धडाका

हास्य का अभिनय और अभिनय का हास्य... जो बाबा ने अपने ‘मानस’ के बारे में विनम्रता वश कहा था - ‘भनिति मोर सब गुन रहित, बिस्व बिदित गुन एक’, वही कठोर सत्य है - शशि रंजन लिखित-निर्देशित फिल्म ‘धूम धडाका’ का। बाबा में वह सत्य है -‘ एहि महँ रघुपति नाम उदारा’, और इसमें है -हास्य। और यही इस फिल्म की ख़ासियत है - हास्य के मुताबिक भरा पडा है अभिनय और अभिनय के मुताबिक बनता-निखरता हास्य। कहना होगा कि इस कला का समूचा इसमें समाहित है। ईर्ष्या, होड, प्रेम, दोस्ती, लालच, छल, फ़रेब, साज़िश, गुण्डई, संवेदना, सज़ा, त्याग ...आदि सारे भावों, सभी प्रवृत्तियों को हास्य में ढाला गया है और हास्य-अभिनय के प्राय: सभी प्रकारों-रूपों को साधा गया है, जो बख़ूबी सधे हैं। हास्य अभिनय का शास्त्र बन गयी है फिल्म, जिसकी बारीकियों (जो आम अमझ की नहीं हैं) को न समझने वालों के लिए यह ऊटपटाँग हरकत होगी। यूं तो सभी सातो-आठो कलाकारों ने अच्छा निभाया है, पर अनुपम खेर का कहना ही क्या ! मुंगीलाल के रूप में वही हीरो हैं - हास्य के हीरो जैसे। इस भूमिका में सबसे अधिक विविधता उनकी क्षमता के मुताबिक ही रची गयी होगी। उन्होंने आंगिक (देह के) अभिनय का मानक वाचिकता (बोलने) के सपोर्ट से साधा है, तो सतीश कौशिक ने वाचिक का जादू बिखेरने में आंगिक का सहाय लिया है। दोनो की कला में एनएसडी की ट्रेनिंग का निखार खुलकर बोलता है, जिसके अभाव में इंड्स्ट्री के मशहूर कॉमेडियन सतीश शाह सिमट कर रह गये हैं। क्या तभी दोस्त की मह्त्त्वपूर्ण भूमिका में दबे-दबे रूप में फिट कर दिये गये हैं? गुलशन ग्रोवर का खल पात्र चाह कर भी हास्य ला न सका। भूमिका में सम्भावना थी या नहीं, यह तो अनुपम जैसों को करना होता, तो पता लगता...। हाँ, गुलशन के बेटे बने कलाकार ने हास्य के कैरिकेचर रूप का अच्छा प्रदर्शन किया है। दोनो प्रेमी जोडे भी ठीक ही हैं। गेस्ट जैसी भूमिका में जैकी श्राफ से हास्य तो क्या, कुछ नहीं कराया गया है। परंतु कोफ्त होती है टेलीविज़न की ‘सोनपरी’ दीपशिखा को देखकर, जो फिल्मों में ढिबरी बनकर कारिख ही कारिख फेंक रही हैं। हास्य के अभिनय व अभिनय के हास्य की योजना न होती, तो कहानी तो ऐक्शन-सस्पेंस वाली हिंसक थीम की थी, पर मार-धाड भी इतनी अहिंसक, शालीन व विनोदी हो सकती है, के कायापलट फिल्मायन में शशि रंजन की विरल निर्देशन-कला का कमाल देखा जा सकता है। दृश्य-निर्माण में हास्य खिलता है, ध्वनि-संयोजन में गमकता है। पहनावे व सजावट इसमें चार-चाँद लगाते हैं। याने सबकुछ हास्यानुकूल है। परंतु यह भी उतना ही उल्लेख्य है कि इस सुनियोजित हास्य के इरादे ने कहानी को अजानी गलियों में भटकाया है, गोल-गोल घुमाया है। फिल्मांकन की स्थितियों, स्थलों, घटनाओं को काफ़ी ऊलजलूल बनाया हैं । गाने सब ठूँसे हैं- बस, सारी फालतू दृश्यावली के बावजूद होली वाला गीत पुराने बोल व पारम्परिक धुन (राठौड का इसमें क्या है?)में गाये होली वाले को छोडकर। याने किसी बात में कोई तर्क व वजह खोजना व्यर्थ है। और थोडी देर में ही यह समझ में आ जाता है। जो इस नीयत को समझकर देखेंगे, अभिनय का मज़ा ले सकेंगे, वरना... हाँ, बैठे रह गये, तो जान पायेंगे कि बचपन में ही बम्ब्लास्ट में घायल पिता के बिना इलाज मरने की वेदना से आहत अनुपम खेर ने अलीबाग में एक अस्पताल खोलने का संकल्प सँजोया, जो अंड्ररवर्ल्ड में जाकर कीव गयी सारी करतूतों के बावजूद बना रहा और ऐन समय पर सरगना जैकी ने मंजूरी दी। पैसे के लोभ में जाली वारिस बनकर आये चारो युवा-युवतियों ने भी सच का साथ दिया। याने भौतिकता के सारे लोभ-लाभ व अपराध की दुनिया की हैवानियत के बीच मनुष्यता अभी एकदम मरी नहीं है... का मेसेज... कितना सम्भव, पर प्रयास है, तो सही...। हास्य की फिल्मी बिक्री में संवेदना का यह फ्री गिफ्ट है। सो, फिल्म अपने शौकीनो से ये तवक्को रखती है कि ‘शौक-ए-दीदार अगर है, तो नज़र पैदा कर..’.। -सत्यदेव त्रिपाठी

Saturday 17 May, 2008

‘जन्नत’ का रास्ता - ईमाँ या कुफ़्र...?

‘जन्नत’ का रास्ता - ईमाँ या कुफ़्र...? चचा ग़ालिब के ज़माने में शायद यह द्वन्द्व जिन्दा था, जब उन्होंने लिखा था - ‘ईमाँ मुझे रोके है, खैंचे है मुझे क़ुफ़्र...’, लेकिन आज वह बात नहीं रही - क़ुफ़्र का जलजला तारी है... और ईमाँ की बेसिक समझ ही नदारद हो गयी है... लेकिन हमेशा की तरह भट्ट कैम्प ने अपनी नयी फिल्म ‘जन्नत’ में भी इस द्वन्द्व को क्या खूब जिन्दा रखा है...। क़ुफ़्र का सरताज़ है - हीरो अर्जुन (यह नाम हिन्दी फ़िल्मों को इतना प्रिय क्यों है !)। उसकी जन्नत का मतलब स्वर्ग नहीं, ऐशगाह है, जिसे वह जूए के बाद क्रिकेट पर दांव लगाने से होते हुए मैच-फिक्सिंग के ज़रिए झटपट में पा लेना चाहता है। झटपट में वह इतना बडा बूगी और फिर सबसे बडे डॉन का मैच सेटर कैसे बन जाता है, के लिए कहानी ने अर्जुन की छठीं इन्द्रिय (सिक्स्थ सेंस) जाग्रत कर दी है। इस बेवजह की वजह. से वह हर मैच के परिणाम का सही अन्दाज़ लगा लेता है। अब तो फिल्म की सतही समझ वाले इसे क्रिकेट की फिक्सिंग वाली फिल्म कह कर पल्ला झाड लेंगे। और इसे पिछले विश्व कप के वूल्मर-हादसे जैसी तमाम घटनाओं से जोड देंगे..। ख़ैर, इस काम के भरोसे वह अपनी जन्नत के एकदम करीब पहुँच जाता है- क़ुफ़्र का जल्वा...! पर इस भयावह लत तथा सिक्स्थ सेंस के साथ उसकी ‘जन्नत’ का एक अहम हिस्सा है - महबूबा ज़ोया, जिस पर पहली ही नज़र में दीवाना हो जाता है अर्जुन (दीवानगी की अदा के लिए फिल्म देखें) । सचमुच तो उसी के लिए वह डॉन का सेटर भी बनता है । और उस ज़ोया में कहानी ने कूटर्‍-कूट कर भर दिया है - ईमाँ। जूए के ज़माने से ही अर्जुन को सुधारने के पीछे पडा है - उसके मूल्यनिष्ठ पिता का मुरीद पुलिस इनस्पेक्टर ...। फिर तो दोनो (पक्षों) के बीच टक्कर शुरू। ज़ोया अर्जुन को पकडवा देती है। अर्जुन अपने रास्ते से यही समझता है कि पैसों के लिए ज़ोया ने ऐसा किया है, लेकिन डॉन की मदद से छूटकर आने पर पता चलता है कि वह तो अर्जुन की राह देख रही है और फिर से जिन्दगी शुरू करने के लिए क्लबों में नाचकर पैसे जुटा रही है। अब कश्मकश शुरू होती है - ज़ोया कुफ़्र के साथ रह नहीं सकती और अर्जुन ईमान पर चल नहीं सकता। अर्जुनों के बनने के कारण पर भी नज़र है । अर्जुन को याद है कि उसके माँ-पिता खिलौनों वाली सडक से उसे नहीं ले जाते थे..। उसे अपने बच्चे से इस तरह नहीं बचना है...। ऐसे अर्जुन को मारने के बाद इस कारण का जवाब भी देती है फिल्म, जब कम पैसों के कारण माँ ज़ोया को घर के जरूरी सामान लौटाते देखकर उसी अर्जुन का बेटा अपना खिलौना वापस कर देता है। याने जरूरत व विलासिता की समझ ही असली जन्नत बना सकती है। लेकिन वह बनेगी कैसे ? डॉन के रूप में कुफ़्र का सरगना तो जिन्दा है। याने कशमकश जारी है...। अर्जुन बना इमरान हाशमी इस कश्मकश को वैसा निभा नहीं पाता - जैसा कुफ्र को जी पाता है। कुफ़्र को छोडने जैसा जल्वा तो उसकी ज़ोया बनी सोनल चौहान का है भी नहीं। उसकी ईमाँ की ज़िद भी उसी की तरह नाज़ुक रह जाती है...। क्या यह सब भी इसी आज के पतनशील समय के असर का ही संकेत है ? कोई गीत-संगीत तो दिल को नहीं छू पाता, पर डॉन यूँ समझाता है कि क्रिकेट पर दाव लगाना ईमाँ का काम ही लगने लगता है । क्या यह भाषा भी इसी समय की देन है ? ये सब युग-सत्य के चेहरे की भयावह छबियाँ हैं। इनको उतना खुलकर न दिखा पाना एवं दोस्त व इंस्पेक्टर के चरित्र को कठ्पुतली-सा बना देना... क्या निर्देशक कुणाल देशमुख पर भी समय के दबाव के परिणाम हैं या कौशल की कमी...? इंस्पेक्टर के मना करने के बावजूद समर्पण के लिए तैयार अर्जुन को मार गिराने की ज़बर्दस्ती के बाद ज़ोया ठीक ही कहती है - यू बास्टर्स...। तो, यह सब देखने के लिए आँखें खुली रखना हो, तो एक बार इस ‘जन्नत’ में हो आना बुरा नहीं है...। - सत्यदेव त्रिपाठी

Saturday 10 May, 2008

भूतनाथ - भूत को देवदूत बनाता है आदमी

सिनेमा- भूतनाथ भूत को देवदूत बनाता है आदमी ... जी हाँ, बी.आर. चोपडा बैनर की फिल्म ‘भूतनाथ’ यही बताती है (इसलिए नाम देखकर इसे डरावनी वग़ैरह वाली फिल्म न समझें)। गोवा के एक भूत बँगले, जिसमें टैक्सी वाले व नौकर-चाकर तक नहीं आते, में रहने आये परिवार की माँ अंजलि शर्मा (जुही चावला) अपने बच्चे बंकू (अमन सिद्दीकी) को बताती है - ‘भूत-वूत कुछ नहीं होते, देवदूत (ऐंजिल) होते हैं’ (सारे माता-पिता, कृपया ध्यान दें)। और रात को जब सचमुच भूतनाथ (अमिताभ बच्चन) बनकर भूत आता है, तो उसे बच्चा देवदूत समझता है - डरता ही नहीं । वरन् ऐसे आदर, प्यार व मज़े से पेश आता है कि उसे सच ही देवदूत बनना पडता है, जो फिल्म में एक बेहतर इंसान सिद्ध होता है। याने फ़र्क़ आदमीयत का है - आदमी ही भूत भी बनता-बनाता है या भूत को देवदूत भी। फिर तो दोनो दोस्त बन जाते हैं और भूतनाथ का जादुई असर बंकू से मिलकर घर व स्कूल में खूब मज़े कराता है । यही मौज-मज़ा ही है तीन-चौथाई फिल्म, जिसके लिए ‘भूतनाथ’ सबसे पहले ‘बच्चों की फिल्म’ है - गर्मी की छुट्टियों की दावत (ट्रीट)। पर कहना होगा कि यह सबकुछ बचकाना भी है और कुछ बासी भी। गीत-संगीत भी महा बेरस.. जावेद अख़्तर तथा विशाल व शेखर ने क्या किया है, वही जानें। हाँ, एक गाने में अमिताभ बच्चन की आवाज उनके पिता बच्चनजी के काव्य-गायन की ख़नक की याद दिलाते हुए श्रवणीय बन पडी है। वरना ज़ाहिर है कि हम ऊबते हैं, लेकिन इस दौरान अमिताभ व उनके समक्ष अमन सिद्दीकी के अभिनय की समक्षता उल्लेखनीय है। दोनो के बडे-छोटे होने का अंतर तो ज़मीन-आसमान का है, पर अभिनय का रसायन (केमिस्ट्री) ऐसा बना है कि ‘को बड छोट कहत अपराधू’। और इसलिए मैं इस फिल्म का नायक तो अमन को ही कहूँगा - बिग बी तो महानायक हैं ही। सो, ‘भूतनाथ’ के असली खाद्य (रोटी-चावल) ये दोनो ही है, पर जुही चावला दाल की तरह सबमें मिली हैं तथा सदा की तरह खिली भी हैं। शाहरुख खान तो शुरू और अंत में शोरबे व मिष्ठान्न (सूप व स्वीट) की तरह हैं। चटनी-अँचार के लिए स्कूल में प्रिंसिपल सतीश शाह व घर में शराबी-पागल राजपाल यादव हैं, पर दोनो ही अपेक्षित स्वाद लाने में नाक़ामयाब हैं। इस सामग्री के साथ यदि आप बैठे रह गये, तो बच्चों की इस फिल्म के अंत के चौथाई भाग में बडों के लिए कुछ बडी बातें भी मिलेंगी - आज के लिए मौजूँ एवं मनोविज्ञान-सम्मत। तब समझ में आयेगा कि यह तत्त्व शुरू से ही पिरोया है, पर माले के धागे की तरह दिखता नहीं। इतने आयामों वाली इस फिल्म में ऐसा कौशल विवेक शर्मा के निर्देशन की खूबी है। कहानी (लॉर्ड ऑफ़ घोस्ट्स) की ताकत है, जिसमें भूतनाथ सचमुच भूतनॉट (भूत नहीं) है। वह तो उस बँगले के मालिक कैलाशनाथ की अतृप्त आत्मा है, जो बँगले में भटक रही है...। पोशाक व पात्रत्त्व में भी भूत का वैसा भान नहीं होता । क्या सोद्देश्य ? उनका बेटा अमेरिका पढने गया था, पर वहीं बस गया। अपनी मरती माँ को देखने तक नहीं आया। और एक बार आकर पिता से पूछे-बताये बिना बडे महँगे दामों वह बँगला बेचने चला। न बेचने लिए जो तर्क देते हैं कैलाशजी, उसे आज की नयी पीढी के हर युवक को सुनना चाहिए - भौतिक यथार्थ के समक्ष भावात्मक यथार्थ का ज़हीन पक्ष। 4-5 साल का पोता दादाजी से लिपट जाता है, पर बटे-बहू खींच कर लिए चल देते हैं - मुडकर देखते तक नहीं कि उन्हें रोकने के आवेग में कैलाशनाथजी गिर जाते हैं- खून से सने लावारिस-से मर जाते हैं। इसी अतृप्ति वश भूत बनकर इस बँगले की रक्षा में किसी को रहने नहीं देते थे, पर बंकू में उसी पोते को पाकर अब इन्हें जाने नहीं देते। अमेरिकन बेटा ग्राहक लाता है, तो तूफ़ान खडा कर देते हैं। यहीं खत्म होना था फिल्म को, पर एक और वर्ग को भुनाने की कोशिश में मन्दिर के पुजारी की सलाह पर कैलाशनाथ की आत्मा की मुक्ति के लिए बंकू के हाथों शाहरुख व जुही श्राद्ध कराते हैं। पहले इनकार के बाद अंत में बेटा विजय भी शामिल हो जाता है और इस भाग में विजय बने प्रियांशु चटर्जी ध्यान भी खींच पाते हैं। भूत से बना देवदूत अब मुक्ति के बाद सितारा देवदूत (स्टार ऐंजिल) बन जाता है और खल पात्र रहा विजय सद्पात्र बन जाता है । फिल्म को बच्चों की नज़र से देखने व बडों की दृष्टि से समझने के लिए सभी को देखनी ही चाहिए, पर धीरज धरे जिग़र के साथ,,,। - सत्यदेव त्रिपाठी

Friday 9 May, 2008

माँ इसे देवी कहती... (समापन किस्त...)

माँ इसे देवी कहती... (समापन किस्त...) इस तरह देवी इतना बाहर रहने लगी कि घर के लिए ही पहुनिया हो गयी। कहीं रुकने पर फोन करना भी बन्द हो गया। इसे लेकर कभी किसी बात पर मेरी पत्नी के मुँह से निकल गया - ‘जीजी का इतना बाहर रहना ठीक तो नहीं है...’ और माँ ने डपट दिया - ‘ख़बरदार, देवी है मेरी बेटी। मत भूलो कि उसी की राय से ही तुम इस घर में बहू बनकर आयी हो...’। देवी के कानों तक भी यह बात गयी । उसने कहा तो कुछ नहीं, पर तभी से ज्योति के हाथ का खाना-पीना तक बन्द कर दिया - बात करना तो दूर की बात। उसका ऐसा करना मुझे कुछ ठीक न लगा, पर माँ के लिए यह भी उसके देवी होने का ही प्रमाण बन गया - त्याग, प्रतिज्ञा, साधना,.. जाने क्या-क्या !! और देवी का खाना माँ ख़ुद बनाने लगी - वह जब कभी-कभार घर रहती...। लेकिन बात ज्योति तक ही नहीं रही...। चाल की कोई पडोसन कभी पूछ ही देती - ‘देवी इतने-इतने दिन तक कहाँ रहती है बहनजी...’? और माँ गर्व के साथ बताती - ‘फला लेखक के यहाँ गयी है या अमुक कलाकार ने बुलाया है. या तमुक जगह सेमिनार है..’। बिटिया जाति का इस तरह बाहर रहना ठीक नहीं बहना...’ - पडोसन बडे अपनापे से कहती। ‘मेरी बेटी कोई ऐसी-वैसी नहीं...’- माँ का वही पुराना राग बजता- ‘’देवी है, देवी...’। पर नौकरी के मामले में बडी अनलक्की रही देवी - न उसका देवीत्व काम आता, न सम्पर्क के इतने सारे बडे-बडे लोग...! छोटी-मोटी अस्थायी नौकरियां ही करती रहती...। फिर तो एक दिन ग़ज़ब ही हो गया। वह ऑटो से उतरी और झम्म से मेरे सामने आकर खडी हो गयी - ‘पहचानो, तो जानें...’। और फिर मॉ की ओर मुडी - ‘देखा माई, हमहूँ मॉडर्न हो गइली ...’! इस विनोद भरे प्रदर्शन के बाद ख़ुद ही बताने लगी - “बहुत दिनों से लोग कहते थे - ‘ब्यूटी पॉर्लर जाओ...ब्यूटी पॉर्लर जाओ...। वे लोग ‘लुक’ ऐसा बदल देंगे कि व्यक्तित्त्व निखर आयेगा- आजकल नौकरी के लिए योग्यता के साथ यह सब भी ज़रूरी है’। और आज तो अमिताजी जबर्दस्ती लेकर ब्यूटी पॉर्लर ही चली गयीं। पेमेंट भी उन्होंने ही किया”। ये अमिताजी इधर देवी की नयी मित्र हुई हैं। उम्र पचास के ऊपर.। रहन-सहन टीप-टॉप । पति का करोडों का कारोबार। ख़ुद का एन.जी.ओ.। उन्हें देवी में न जाने क्या दिखता कि महीनों अपने यहाँ से आने नहीं देतीं। वहाँ भी रहने जाने के पहले रिचुअल की तरह मुझे घर दिखाने ले गयी थी देवी - झील किनारे राजा-महाराजा जैसा उनका बँगला...। इधर अमिताजी के रोज़ ही कुछ न कुछ उपहार आने लगे - सोने तक के। और आज ‘लुक’ ही बदल डाला- बालों के स्टाइल से चेहरे तक का काफ़ी कुछ...। शायद मेरे चेहरे पर इस नये अवतार के प्रति उदासीनता दिखी हो...तभी तो देवी ने कहा- ‘मेरे भैया को तो यह सब फ़ूहड लग रहा होगा, क्योंकि अपनी बहन कराके आयी है। दूसरी औरत कराके आये तो...’। होंठ तो फडके मेरे, पर कह कुछ न सका, लेकिन ताज्जुब हुआ कि माँ भी उस दिन चुप रह गयी - देवी-पुराण शुरू नहीं किया। ..... बस, माँ की उस चुप्पी की याद ने खयालों से निकालकर अचानक माँ के पास पहुंचा दिया - दुकान पर। जाकर उसे अन्दर खींच कर ले गया और सीधे बोलना शुरू किया - “तुम्हें पता है सविता-अमिता के गिफ़्ट के नाम पर तुम्हारी देवी की मोबाइलों की दुकान खुल गयी है। एक की घंटी बजी और झोले में हाथ डाला, तो चार-चार मोबाइल...। मालूम है, उठाने पर क्या सुनना पडा - ‘क्यों मेरी जान, इतनी देर से फोन बजा रहा हूँ। कहाँ हो...”? गुस्से से मेरा मुँह टेढा हो गया था। शब्द चबा-चबा कर निकलने लगे थे - “एक अलहदा फोन देने पर भी यह हाल है कि चांस नहीं मिल रहा है...कहाँ-कहाँ एनगेज़ रहती हो ? ...कल इसी वक्त तुम्हारी बाँहों में था। बडी याद आ रही है...’’ - कहते-कहते रुलाई फूट पडी मेरी... रोते-रोते ही डाँटने पर उतर आया- “अब बोलो, यह मोबाइल की दुकान है या धन्धे का सामान ? और बनाओ देवी..। मेरा माथा तो ब्यूटी पॉर्लर के दिन ही ठनका था- वैक्संग, आईब्रोज़...। ब्लाउज़ के आगे का हिस्सा देखा है आजकल उसका ? पीठ तो आधी कब से खुली रहती थी !! देख लिया ? रात-रात भर बाहर रहकर कौन-सा इंटर्व्यू लेती-देती है ? किस सेमिनार में जाती है ? उसकी सहेलियां हैं कि दलालों की गैंग ? बहनजी रोज़ लाती थीं - उपहाSर. ! हुंह..सब बकवास..। कीमत मिलती थी - कीमत । गिफ़्ट के नाम पर हमें उल्लू बनाया जाता था। सब अय्याशी है। आने दो आज तुम्हारी ‘देएएवी’ को, गला न दबा दिया, तो...” ”नाहीं-नाहीं बचवा...अइसा ना करना” - माँ के झर-झर आंसू बह रहे थे - “वो खुदै जाने वाली है। हम तो कब से जानि गयी हूँ। एक बार फोन पर की बात सुन ली थी। तब से केतना दफा आड-आड से सुनी। अपनी लाज... केसे कहैं ? आज तुमहूं जानि गये, तो बताय देत हैं..। होटल-फोटल के धन्धा करै वाले सविता के घर के मर्दन ने पहले बिगाडा इसको..। सान-सौकत की लत लगाय दिये। ऊ सब हियाँ से तो मिलता नाहीं..। बस, ऐस-आराम के बस में होय के बिगड गयी लडकी..। गल्ती हमरी भी है कि देवी माना। कभी जानने की परवाह नहीं की...। बाकी अब तो अमिता के मरद से इसका परेम चलि रहा है”। ‘’प्रेएएम...!! वो भी धन्धा ही होगा... कालगर्ल कह्ते हैं । बहुत बडा रैकेट चलता है ...” “जो होवे...” - माँ पर जरा भी असर नहीं - ‘’ ऊ रखै वाले हैं इसको। अलग घर देवै की बात चलि रही है। ई सब चरित्तर खुलने के पहिले अइसे ही सही, बन्द होइ जाये, उहै अच्छा...” “माई, क्या कह रही है..? तू तो औरत है। जरा सोच, अमिता आँटी का क्या होगा “? “ई बखत ई सब देखने का नाहीं है” - फिर आँसू पोंछते हुए बोली -“हमन के मुंह कालिख लगने के पहिले ई बलाय हियां से टरि जाय, तबै अच्छा...” ”और अपने से 20 साल बडे शादीशुदा आदमी की रखैल बनने से कालिख नहीं लगेगी क्या” ? “हम सोचि लिये हैं ऊ भी। एक बार गयी, तो फिर इस छिनाल को लात नहीं रखने देंगे हियाँ। सबको कहि देंगे- बहुत बडे लोग हैं। साल में दस-ग्यारह महीना तो बिदेस में रहत हैं। बाद में चाहे कोई जो कहे... इस जैसी बदनामी से तो बचि जायेंगे...”। और मैं इस ‘देवी’ को देखता रह गया था - हैरत से, हसरत से...!! ** ** **

Thursday 8 May, 2008

माँ इसे देवी कहती ...! दूसरी किस्त

माँ इसे देवी कहती ...! दूसरी किस्त देवी की पढाई भी रंग लाने लगी। उसने बी. ए. पास किया - युनिवर्सिटी में टॉप करके । अब तो पास-पडोस व नात-हित ने भी मान लिया कि देवी में कुछ तो खास है...। वरना जब से वह ससुराल से लौटी थी, किसी को भी उसके लिए अन्दर से सहानुभूति नहीं रह गयी थी। फिर तो एम.ए. में दाखिला लिया और सभी अध्यापकों की प्रिय हो चली...। उसका एक सर्कल बनने लगा, जिसमें धनी घरों की दो-चार लडकियां देवी की सबसे अच्छी दोस्त बनीं। पर कहना होगा कि चाल के अपने छोटे-से घर व केराना की दुकान जैसे पेशे से कतई शर्मिन्दा नहीं होती देवी..। सबको घर ले आती । आने वाले भी मुतासिर होते कि इतनी असुविधाओं के बीच भी देवी इतना अच्छा पढ लेती है। तथा ऊँची सोसाइटी वालों के साथ भी बाहर उतनी ही सहजता से रह लेती है। बस, मुझे खटकता यही कि पिता की बीमारी व मौत के बाद की अपनी करनी सबको बताती जरूर - टुकडे-टुकडे में, पर पूरी। और अपने को ‘देवी’ मानने की बात का तडका ऐसा लगाती, जो लोगों को विनोद भी लगता, मगर सच भी । परंतु यह मुझे बडा फूहड लगता...। इस सरनाम स्थिति में जब एम.ए. के पहले वर्ष की परीक्षा के दिन आये, तो देवी पहली बार अपनी एक अमीर सहेली अर्पणा के घर रहकर पढाई करने गयी - बेशक़ मुझे वहाँ पहले ले जाकर दिखा देने के बाद ही। परीक्षा के बाद वहाँ से आयी, तो कन्धे पर एक झोला लटकाए हुए । बताया अर्पणा के भाई ने दिया है - ‘शबनम’ कह्ते हैं। तभी से शबनम उसके कन्धे का स्थायी शृंगार बन गया। फिर तो भिन्न-भिन्न रंगों-डिज़ाइनों के कई-कई शबनम भेंट में आने लगे...। फिर उनमें रखे कई तरह के उपहार भी...। कोई किसी सहेली ने दिया, कोई किसी सहेली के भाई ने...फिर कोई और किसी मित्र ने...। न तो देवी बताते अघाती, न ही माँ सुनते...। तमाम सहेलियों-दोस्तों के फोन आने लगे...कुछ घर भी आते। देवी की तारीफ़ों के खूब पुल बाँधते...। और माँ गदगदायमान होकर कहती - ‘देवी तो सच ही देवी है’। ज़ाहिर होता गया कि उसके दोस्तों का सर्कल बढरहा है - बेतरह...। क्या बेतरतीब भी ? झोले में दिखता कि ढेर सारी दुनिया-जहान की चीज़ें भरी हैं...। और आज उसी झोले के सामान ने ही अचानक प्रकट होकर यह सब सोचने पर मज़बूर कर दिया...। पछता भी रहा हूँ कि क्यों उठा लिया मोबाइल...? बजकर बन्द हो जाने क्यों नहीं दिया...? या शुरू में ही क्यों नहीं रोका इस उपहार परम्परा को...? आखिर देवी तो कभी भेंट देती नहीं किसी को...। फिर इस इकतरफ़ा गिफ़्ट का मतलब... ? अजीब तब भी लगा था, जब एम.ए. दूसरे वर्ष की परीक्षा के दिनों वह अर्पणा के यहाँ न जाकर सविता के यहाँ जाने की बात करने लगी - ‘वो मान नहीं रही है। कहती है, इस बार मेरे ही घर आना होगा। दोनो साथ ही पढेंगे..’। सविता के पति का होटेल का करोबार है। देवी वहाँ जाती तो पहले भी थी, पर रहने जाने के पहले वहाँ भी मुझे ले गयी। याद है, मैंने रास्ते में कहा था - ‘दीदी, तुम दोस्तों के मामले में बडी ‘लकी’ हो’। वह मुस्करायी, फिर बोली - ‘अच्छी पढाई की सुविधा मिल जा रही है, तब तक माँग बनाये रखनी है’...। और मैं चौंक पडा था - यह तो बाज़ार की भाषा बोल रही है...। पर बातों की रौ में बात ‘आयी-गयी’ हो गयी। सविता का घर बडा आलीशान । देखकर पहला ख्याल यही मन में आया - यहाँ एकाध महीने रहने के बाद देवी उस चाल वाली अपनी खोली में रह कैसे पायेगी ! पर मानना पडेगा कि वहाँ से लौटने के बाद अपनी खोली में और अधिक मन से ही रहती दिखी...। लेकिन अब धडक खुल गयी और धीरे-धीरे सहेलियों के यहाँ रुकना अक्सर होने लगा। कभी भी बस, फोन घुमा देती - ‘माई, हम फलानी किहाँ हई। आज यहीं रुकि जाब... हाँ ई ना मानति हईं...अच्छा..’ ? लेकिन कई बार मुझे यह भी लगता कि देवी यहाँ-वहाँ जाने का मौका ख़ुद ही निकालती है। हाँ, छाप ऐसी छोडती है कि जाना-रुकना पड रहा है ! इसी तरह एक-एक उपहार किस-किसने दिया, सभी दोस्तों को यूँ बताती कि मुझे लगता - जैसे सामने वाले को उकसा रही है उपहार देने के लिए...। और यह सब दिनो-दिन बढता ही रहा ...। हाँ, रिज़ल्ट आया, तो उसने टॉप किया एम.ए. में भी । बधाइयों-प्रशंसाओं के ढेरों फोन आये., अख़बार में फोटो भी छपा। अब तो हमारी चाल की स्टार ही हो गयी देवी - सभी लड्कियों के लिये उदाहरण, आदर्श । चाल की सभी लडकियाँ ‘देवी दीदी, देवी दीदी’ कहती उसके इर्द-गिर्द घिरी रहने लगीं, जो मुझे बहुत अच्छा लगता...। अब ‘देवी’ नाम सार्थक होने लगा था...। लेकिन जल्दी ही यह भी होने लगा कि लडकियाँ अक्सर इंतज़ार कर-करके थक जातीं और देवी नहीं मिलती...। कभी जब मिल जाती, तो दस-पाँच मिनट भर के लिए ही। और उस दौरान भे यही बताती सुनी जाती कि किस तरह किसी कविगोष्ठी, किसी कहानी-पाठ, किसी सेमिनार...आदि आयोजन में रोक ली गयी...। और माँ यह सब कान पारकर सुनती.. गर्व से भर उठती। पर न जाने क्यों, मुझे इतना बाहर रहना अच्छा न लगता। रोज़-रोज़ इतने आयोजनों पर शंका हो उठती..। मेरे भाव ताड ही गयी होगी , तभी तो एक दिन कहा उसने - ‘सामतवादी पुरुष-परम्परा के मेरे भाई को मेरा यह सब भा नहीं रहा न...! लेकिन परेशान न होओ मेरे भाई, धीरे-धीरे समझ जओगे कि मैं तनिक भी ग़लत नहीं हूँ...’। और आज समझा, तो घिन आ रही है, पर तब तो शरमा ही गया था...। फिर तो देवी बाहर भी जाने लगी - नेशनल आयोजनों में...। कभी हवाई जहाज से भी बुलाया जाता । दो दिन के लिए कहकर जाती और कभी सप्ताह भर भी लगा देती...। वहीं से फोन करती - यहाँ एक बडी ऐतिहासिक जगह है। आयोजक हमें कार से वहाँ पिकनिक कराना चाह रहे हैं। तो, दो-तीन दिन बाद आती हूँ’। और ऐसा ही कुछ अक्सर होता...। सुनकर मैं उदास हो जाता, पर माँ बडे अभिमान भरे उछाह से कहती - ‘का फिकिर करते हो बचवा, तोहरी बहन तो सचमुच की देवी है। किसी बडे पुण्य से पैदा हुई है इस घर में। देखते रहो - केतना आगे जाती है...! तोहरे बाबूजी की बानी - ‘ देवी खान्दान का नाम रोशन करेगी’ - झूठ थोडे न होगी ‘! समापन किस्त.पढिए - कल...

माँ इसे ‘देवी’ कहती... !!

माँ इसे ‘देवी’ कहती... !! - सत्यदेव त्रिपाठी पहली किस्त- अचानक चाल में जोरों का झगडा शुरू हुआ....और अपनी आदत के मुताबिक देवी वहाँ पहुंच गयी। मैं अकेला रह गया कमरे में...। आजकल यूं भी देवी कम ही मिलती है घर पर। सहित्य- कला आदि के तमाम कामों में बिज़ी हो गयी है। हमें अच्छा लगता है...। इसलिए अभी थोडा-सा वक्त मिला था, तो उसे भी छोडकर उसका चले जाना कहीं खल गया। मेरी इकलौती बहन है - देवी। मुझसे तीन साल बडी । और मैं भी उसका इकलौता भाई , पर व्यवहार में वह माँ जैसी मेरी केयर करती है। मुझ पर आयी हर मुसीबत को अपने ऊपर ओढ लेना चाहती है... इन्हीं सब ख्यालों में उतरा ही रहा था कि बगल में पडे देवी के झोले में मोबाइल बज उठा... । निकालने चला, तो एक-एक करके चार मोबाइल हाथ आ गये। याद आया कि उसकी सहेली सविता ने एक मोबाइल भेंट किया था...पर दो की जगह ये चार-चार...!!! आश्चर्य के साथ बजने वाला ऑन किया और बिना हेल्लो किये ही सामने से जो सुन पडा...कि ओफ़ ..! हाथ-पैर सुन्न हो गये। गुस्से से सारा बदन जलने लगा। .. वहीं बिस्तर पर पड गया। सामने चार-चार मोबाइल ..जैसे चार-चार साँप - फ़न उटाये ...। बस, देवी का गला ही दिख रहा था मुझे। पंजे कुलबुलाने लगे थे... पर हाय रे लोक-लाज ...और इस वक्त वह लोक के बीच थी !! झगडने वाली दोनो पार्टियों को उपदेश पिला रही होगी - ‘देवी’ जो ठहरी... ! और उसी झोंक में झोला-मोबाइल भूल गयी.. वरना आजकल एक मिनट के लिए भी झोला नहीं छोडती - भेद अब समझा..। वाह री देवी...धन्य है..! हारकर थसमसाया पडा रहा। एक - एक करके दृश्य उभरने लगे... ...असल में ‘देवी’ नाम इसे पिताजी ने दिया था। तब यह 10-12 साल की रही होगी, जब पहली बार इसका कहा सबके ध्यान में आया - ‘आज सपने में मैंने देखा कि गोलू फेल हो गया है’..। और पिताजी ने ‘चुप-चुप, चूप...ऐसा नहीं बोलते। किसी और से मत कहना...’ कहकर चुप करा दिया था। आख़िर गोलू गाँव के सबसे बडे ठाकुर का इकलौता बेटा था। लेकिन रिज़ल्ट आया, तो गोलू सचमुच फ़ेल हो गया। बस, अपनी बेटी में पिताजी की आस्था जमने लगी। उन्हें इस बात का ख्याल भी नहीं आया कि मुम्बई में रहता उनका दामाद भी फ़ेल हो गया है, जिससे बचपन में ही ब्याही गयी थी देवी। फिर पिताजी की ग़वाही में देवी की कई-कई बातें सच होने लगीं। मसलन - सपना देखा कि फ़ला आज मुंबई से आ गये हैं...फलनियां ससुराल से भाग आयी है.. वग़ैरह..। बस, पिताजी कहते सुने गये - इसकी जिह्वा पर तो कोई देवी बैठी हैं। और धीरे-धीरे उसका नाम ही पड गया - ‘देवी’... पिताजी की ‘देवी बिटिया’, माँ की ‘देवी रानी’... और कभी गुस्से में ‘देविया’..। उन्हीं दिनों चाचाजी के साथ बँटवारा हुआ और मुम्बई की एक दुकान पिताजी को मिली। बस, हम मुम्बई आ गये । दुकान ठीकठाक चलने लगी और हम पढने लगे। लेकिन इतने में साल भीतर ही देवी के गवने का समय आ गया और अपनी पढाई के छूटने का मलाल लिये वह ससुराल चली गयी । परंतु चार दिन भी नहीं बीते कि पिताजी को बुलवाकर वापस भी आ गयी। आते ही घोषणा कर दी - ‘अब मैं ससुराल कभी नहीं जाऊंगी...आगे पढाई करूँगी..’। और पिताजी ने देवी के प्रति अपनी आस्था की रौ में इसे भी ‘दैवी विधान’ मानकर मंजूरी दे दी। पूछा तक नहीं कि आख़िर वहाँ हुआ क्या ...। देवी देखने में सुन्दर है। व्यवहार में कुशल है। करने-धरने का गुन-सऊर भी है। सो, इसे लेकर तो कुछ नहीं ही हुआ होगा...। परंतु कोई आज तक न जान सका कि देवी ने ऐसा किया क्यों ? कोई कुछ कह भी न सका - पिताजी का देवी में अखंड विश्वास !! ...धीरे-धीरे यह तय हो गया और सबने मन ही मन मान भी लिया कि देवी अब विवाह नहीं करेगी..। उसने अपनी पढाई जारी कर ली...। दुर्भाग्य से कुछ ही दिनों बाद पिताजी कैंसर की भयावह बीमारी से ग्रस्त पाये गये। पूरा घर बेहाल हो गया। पर देवी खडी हो गयी - चट्टान की तरह...। एक वक्त तो ऐसा ही आया कि उसने इलाज़ के लिए लोगों से घूम-घूमकर पैसे माँगने में भी संकोच नहीं किया। फिर भी हम सब पिताजी को बचा न सके। लेकिन इस दौरान देवी के प्रति वैसा ही भाव माँ के मन में भी उमड आया - जैसा पिता में था। इस दौरान दुकान एकदम बैठ गयी। हम दोनो की पढाई भी छूट गयी। मुझे तो पिता के न रहने पर पढाई छोडकर दुकान सँभालनी ही थी, पर देवी ने भी अपनी पढाई को किनारे करके दुकान को लाइन पर लाने में अपनी जान लडा दी। उतना सब कर पाना अकेले मेरे बस का न था। और दुकान जब ठीकठाक चलने लगी, तो देवी ने फिर से पढाई शुरू की। देवी के इस काम ने मुझे भी उसका गहरा विश्वासु बना दिया, पर माँ-पिता जैसा अन्धविश्वासु नहीं। मैं उसे दीदी ही कह्ता रहा - ‘देवी दीदी’ कभी न कह सका। ....अगली किस्त कल...

Monday 5 May, 2008

बिन पानी सब सून...

सामयिक मुद्दों पर टिप्पणी बिन पानी सब सून... पानी बचाय के ना रखबेया, तब ना हम लेबै सराध में पानी... - सत्यदेव त्रिपाठी ‘बिन पानी सब सून’ पर लिखने के लिए बात करते हुए आदरणीय विश्वनाथजी ने कहा - ‘पानी’ को आप किस रूप में देखते हैं, लिखिए। और मेरे अध्यापक ने शायद फ़ौरन ‘हाँ’ कर दी - तीस साल के अध्यापन के दौरान छिटफुट दोहों के अलावा कभी रहीम को ठीक से पढाने का मौका जो नहीं मिला... तो सोचा होगा कि इसी बहाने कुछ कह पायेंग़ॆ... और सोचते हुए सबसे पहले रहीमदास की वह लोकवृत्ति ख्याल में आयी, जिसने उनसे न ही लोकजीवन व लोकसंस्कृति के ‘टिपिकल’ (खास व अछूते) प्रसंगों को दोहों का माध्यम बनवाया (काश, कुछेक उदाहरण दे पाता !) , वरन लोक के शब्दों का भी सहज-सटीक प्रयोग कराया। ‘पानी’ ऐसा ही लोक का- लोगों का, बहुजन का शब्द है । विशिष्ट जन का तो ‘जल’ है, जहां जलपान होता है। आमआदमी तो ‘पानीकानौ’ व ‘मीठा-पानी’ करता था। देवताओं को आज भी ‘जल’ देते हैं, पित्रों को पानी देते हैं, मित्रों को पानी पिलाते हैं और शत्रुओं को पानी पिला-पिलाकर मारते भी हैं...। हम पानी पीते-पिलाते हैं, तो समाज में होते हैं, वरना तो कहते हैं - उसके यहां कोई पानी तक नहीं पीता...। सो, लोक-जीवन का मानदण्ड है - पानी। लोक के लिए प्रयुक्त पानी के शब्द-युग्मों में दाना-पानी, रोटी-पानी...और ‘हुक्का-पानी’...। फिर तो उसका हुक्का-पानी बन्द होने लगा, जिसने कोई समाज विरोधी काम किया हो। इस तरह वह इज्जत-पानी हो गया- भाई, इज्जत-पानी बनाये रखना...। और तब यह इज्जत राष्ट्र तक पहुंच गयी, जब हमारे भोजपुरी कवि के मरणासन्न बूढे पात्र ने अपने बेटे से कहा - ‘पानी बचाय के ना रखबेया, तब ना हम लेबै सराध में पानी’। देखिए, ‘इज्जत’ शब्द निकल गया। अकेले पानी ही वह काम करने लगा। मेरी समझ से पानी के इज्जतविषयक अर्थ का यह चरम है, जो हमारे लिए सबसे मह्त्त्वपूर्ण है। इज्जत के वजन पर ही पद-पानी, पत-पानी भी चलते हैं। पद-पानी तो समझा जा सकता है, पर ‘पत-पानी’ में ‘पद’ से ‘पत’ का भेद मात्र भाषा-शास्त्र का नहीं है। इसके पीछे छिपा समाज-शास्त्र काफी बारीक है, पर यहां बताने का अवकाश (स्कोप) नहीं...। इज्जतदार के लिए तो पानीदार कुछ कम भी कहते हैं (गोकि उसमें थोडा अलग व ज्यादा अर्थ भी भर उठा हैं - ‘आदमी ‘पानीदार’ है’ में कुछ-कुछ ‘कौल का पक्का’, ‘बात पर मर-मिटने वाला’ का भाव भी आ जाता है। ‘वो तो एक पानी पर रहता ही नहीं’, में यह अर्थ साफ़ देखा जा सकता है) , पर ‘बेइज्जत’ के लिए ‘बेपानी’ तो धडल्ले से चलता है। काफी व्यंग्यात्मक भी हो गया है। हम अपने मित्र ‘नीरन’ को ‘नीर-न’ के विच्छेद के साथ विनोद में बेपानी कह्ते हैं । पानी का चढना तो पानी ही रह गया, पर ‘पानी उतरने में’ तो इज्जत ही उतरती है। और पानी उतरने से ज्यादा पानी उतारा जाता है। इसीलिए ‘भरे बाज़ार उनका पानी उतर गया’ से ज्यादा सटीक व प्रचलित है- ‘उसने भरे बाज़ार उनका पानी उतार दिया’। और जिसका ‘पानी उतर गया’, वो समाज में ‘पानी-पानी’(शर्मसार) हो जाता है। वो फ़िर कैसे सर उठाकर चलेगा ? तो हो गया न उसके लिए ‘बिन पानी सब सून’। इसीलिए ‘पानी रखने’ याने बचाये व बनाये रखने की बात रहीमदासजी ने कही है - ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून’। और उदाहरण देते हुए बताया- ‘पानी गये न ऊबरहिं, मोती मानस चून’। यह ‘मानस’- मानुष- मनुष्य ही है, जिसका पानी (इज्जत) चले जाने के बाद फिर वह उबर नहीं पाता । उसका जीवन सूना (शून्य) हो जाता है। कुछ विद्वान ‘मानस’ को ‘मानसरोवर’ से भी जोडते हैं। पर मानसरोवर में तो पानी का अर्थ पानी ही रह जायेगा (यूँ मानसरोवर में पानी नहीं होता, सलिल होता है - ‘मानस सलिल सुधा प्रतिपाली’) , जो पानी के बिना सूख कर सूना हो जाने वाले उस चूने में भी है। पर मोती का पानी !! सुनार तो नकली गहने पर भी पानी चढाकर असली बना देते हैं। पर सोहनलाल द्विवेदी ने अपनी कविता ‘नन्हीं बूँद’ में बताया कि वह पानी (शायद स्वाती नक्षत्र के पानी) की बूंद ही होती है, जो समुद्र में पडे सीपी में जाकर मोती बन जाती है। बूँद सीपी में टपकी तो मोती, और आँख में अटकी, तो मोती - ‘अटका तो मोती है ; टपका, तो पानी है’। ये विशिष्ट हैं, वरना तो पानी के बिना कुछ भी बना नहीं रह जाता। सब कुछ सूख जाता है - ‘धान-पान अरु केरा, तीनो पानी के चेरा’ की तरह। इसलिए मनुष्य की बात न होगी, तब तो दोहा बहुत सामान्य हो जायेगा। यह विशिष्ट है मानुष के लिए और उसके पानी (इज्जत) के लिए । कविता मनुष्य की होती है। मनुष्य के लिए होती है। प्रकृति तो उसमें उदाहरण बनकर आती है- चूने-मोती के पानी की तरह। लेकिन रहीम पुराने जमाने के थे। आज सबकुछ बदल गया है। मनुष्य के पानी (इज्जत) की आज कोई कद्र नहीं रही। कद्र तो मनुष्य मात्र की ही नहीं रही...। तो किसकी रही..? बशीर बद्र के शब्दों में सुनिए - ‘घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे; बहुत तलाश किया, कोई आदमी न मिला’। तो ओहदे के (वैभव) की कद्र रह गयी है। इसके सामने आदमी ही कुछ नहीं रहा, तो उसके पानी का क्या ? तमाम बेपानी लोग ही बडे-बडे ओहदों पर आसीन हैं। या यूं कहें कि बडे होने के लिए बेपानी होने के रास्ते से ही गुज़रना होता है। प्रमाण देने की कोई ज़रूरत नहीं - जिस नेता, जिस पूंजीपति, जिस अफ़सर, जिस धर्मगुरु...आदि-आदि पर उंगली रख दो, सब बेपानी ही मिलेंगे - ‘जिसकी पूँछ उठायी, उसको मादा पाया’ । हाँ, अपवादस्वरूप कोई पानीदार मिल जाये, तो मैं मूसलों ढोल बजाऊं ! वरना आज की आम हक़ीकत तो यही है कि जयप्रकाशजी के बाद दुष्यंतकुमार के शब्दों में अब ‘इस अँधेरी कोठरी में एक रोशनदान ’ भी नहीं रहा...। और जग जाहिर है कि इस मनुष्य के पानी की कद्र दृश्य मीडिया और पाठ्य मीडिया के दैनिकों में नहीं रही..। सप्ताहिकों-मासिकों में है, पर कितनी व कैसी तथा क्यों, की बात न ही करें, तो अच्छा...। और मैं क्या, आप सभी जानते हैं कि ‘नवनीत’ का यह आयोजन भी रहीम के उस पानी के लिए नहीं है, जीवन में काम आने वाले पानी के संकट की करंट समस्या से बावस्ता है। अब आप पूछेंगे कि फिर अब तक मैं क्यों भटका रहा था आपको ? तो जिस तरह साहित्य की पंक्ति को माध्यम बनाया गया इस भौतिक समस्या को रखने के लिए, उसी तरह इस उक्ति के माध्यम से साहित्यिक बात कह देने का यह भी माध्यम है...। हिसाब बराबर हो गया । अब आगे चलें ... इन दिनों भीषण गर्मी है। इसमें पानी का टोटा है। सो, इस वक्त यह विषय मीडिया के लिए मौसमी (सीज़नल) है। मीडिया का टेक्स्ट है। आज (दो मई को) ही खबर छपी है कि पानी की बेह्द कमी होने से एक गाँव में लडकों की शादियां नहीं हो रही हैं। लोग वहां की स्त्रियों को पानी ढोते हुए देखते हैं और अपनी बेटियां व्याहने की हिम्मत नहीं करते...। वरना पानी की मूल समस्या तो बारहो महीने है। सूखे-दुर्भिक्ष-अकाल पहले भी पडते थे, लेकिन आज भी सारी प्रगति व साधन-सम्पन्नता के बावजूद खेतों में पानी नहीं है। पम्पिंग्सेट-इंजन-ट्रैक्टर के लिए किसान कर्ज़ ले रहा है। वापस नहीं कर पा रहा है। आत्महत्याएं कर रहा है...। सनातन आश्चर्य का विषय है कि दो 70% पानी के बावजूद सृष्टि की 30% धरती प्यासी रहती है...। मैदानों में पानी लाने के प्रावधान में सारे संसाधन व सारी तकनीक क्यों फ़ेल हो जाती है? नहरें निकली तो हैं...पर जब जरूरत होती है, तभी वे सूखी क्यों रहती हैं? और ख़ुदा-न-ख़ास्ते जब पानी आता हैं, तो इस क़दर कि या तो खडी फ़सलें डूब जाती हैं या फिर खाली खेतों में बुवाई महीनों लेट हो जाती है...। पानी से बिजली बनती है और बिजली की बेतरह कटौती गाँवों में ही होती है। छोटे शहरों के लघु उद्योग बिजली के बिना बन्द हो रहे हैं। कानपुर के उद्योग जब उजड रहे थे, तो लखनऊ में बिजली मंत्री के घर में आपूर्त्ति की आधी दर्जन स्कीमें जोर-शोर से काम कर रही थीं। उन लघु उद्योगों को मुम्बई जैसे महानगरों में शरण लेनी पडती है.... और मुम्बई में पानी की कटौती आ-ए-दिन होती रहती है। कविता बनायी गयी है- ‘भाई वही है सच्चा प्रेमी, इतना आँसू रोज़ बहाये। पत्नी जिसमें कपडा धो ले, बच्चा जिसमें खूब नहाये’॥ पर वही बात कि यह सब किसके लिए...और कहाँ.. ? तो चालों-झोपडों व निम्नमध्यवर्गीय इलाकों में...। वरना जहाँ मंत्री-संत्री व बडे धनी-धरिकार लोग रह्ते हैं, वहाँ इतने पानी से कुत्ते नहलाये जाते हैं, जितने से एक चाल का गुज़ारा हो जाये... इनकी करतूतें ऐसी भी हैं कि नदी की नदी बेच दे रहे हैं। वहाँ बहुराष्ट्रीय कंपनियां कोकाकोला बना रही हैं और आस-पास की सारी ज़मीनें बंजर होती जा रही हैं। ऐसे विद्रूप आजादी मिलने के बाद की योजनाओं के तहत गाँवों में भी हुए, जब गाँव के सार्वजनिक तालाब पट्टे पर किसी को दे दिये गये और पानी की अपासी से वंचित हो रहा है पूरा गाँव। इन हालात को लेकर कहावतें बनी हैं - नदी हमारी पानी उनका...और पानी उसको मिलेगा, जिसकी जेब में पैसा होगा...। ये तो व्यवस्था की सीधी विडम्बनाएं हुईं...। इनके चलते ही हो रही है- प्रकृति के साथ छेडखानी, जो आधुनिक मनुष्य निरंतर कर रहा है। इससे यह समस्या दिन-ब-दिन विकराल होती जा रही है। ऋतुएं अपनी प्रकृति तक बदल रही हैं। बेमौसम बरसात हो रही है, तो बरसात में सूखे पड रहे हैं। अब लडकियां सावन में गाती हैं- ‘अरे रामा रिमझिम बरसे पानी, बलम घर नाहीं रे हरी,,,’ और उधर तपती धूप इस रोमैंटिक गीत का मज़ाक उडा रही होती है...। लेकिन अपने हित में प्रकृति को काटने-पाटने के इस रास्ते पर मनुष्य इतना आगे बढ चुका है कि लौटना नामुमकिन है - ‘हिम्मत है न बढूँ आगे को, साहस है न फिरूँ पीछे...’ की स्थिति है। उदाहरण के लिए इतने सारे पम्पिंग सेट्स लग गये हैं, जिनसे एक तनिक पानी की ज़रूरत पर दस तनिक पानी निकल रहा है और धरती के भीतर पानी की सतहें नीचे से नीचे होती जा रही हैं। जब एकाध नलकूप (ट्यूप्वेल) लगे थे, तो ही आस-पास के कूएं सूखने लगे थे और उनसे पानी निकालना भारी हो गया था। तभी नहीं सोचा गया - खेती व देश की प्रगति का जज़्बा जो सवार था...। कैसे कहें कि यह ठीक न हुआ ? आज तो कूएं रहे ही नहीं। चौतरफ़ा हैंडपम्प हो गये हैं। उनमें भी मोटर लग गये हैं। पानी की आबादी के साथ बर्बादी वहाँ भी हो रही है। जलस्तर इससे भी नीचे जा रहा है...। सो, ‘बिन पानी सब सून’ तो हो ही रहा है, किंतु इसका एक दूसरा पक्ष भी सामने आ रहा है, जिसे ‘बहुपानी सब सून’ भी कहा जा सकता है... भूमंडल का तापमान बढ रहा है... क्या प्रकृति के साथ छेडखानियों के चलते ...? और इससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं। यह बढ तो रहा ही है... जितना ज्यादा बढेगा पिघलना, समुद्र का जलस्तर भी उतना ही बढेगा..। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यदि दो फिट भी बढा, तो दुनिया के मुम्बई जैसे तमाम शहर नष्ट हो जायेंगे... कुल मिलाकर मुझे लगता है कि बिन पानी सब सून व बहुपानी सब सून के लिए बहुत दूर तक जिम्मेदार हैं - ऊपर बताये गये वे बेपानी लोग, जिनके पास सत्ता की शक्ति या फिर शक्ति की सत्ता है। उन्हें अपने देश व लोगों के पानी की पडी नहीं है। उनका बेपानी होना, देश के पानी पर भारी पड रहा है । और अब तो रहीमजी जैसे लोग रहे नहीं कि ‘रहिमन पानी राखिए...’की सीख दें...। अभी पिछले दिनों ही भोजपुरी के वे कवि चन्द्रशेखर मिसिर भी दिवंगत हो गये, जो अपने श्राद्ध का पानी न लेने की धमकी देकर भी पानी बचाकर रखने-रहने की बात कहते थे- पानी बचाय के ना रखबेया, तब ना हम लेबै सराध में पानी...। वैसे मैं जानता हूँ कि उनकी आज कोई सुनने वाला भी नहीं रहा, पर कहने वालों का न रहना भी बहुत साल रहा है...। इससे तो सचमुच ही और भी सब ‘सून’ होता जा रहा है - अफ़ाट शून्य...। ऐसे में ‘नवनीत’ के इस तरह के आयोजन भी काफ़ी राहत दिलाते है - ‘कुछ नहीं’ के बीच ‘कुछ’ की याद का यह अहसास भी क्या कम है...!! * * * * सम्पर्क- ‘नीलकण्ठ’, एन.एस. रोड नं-5, विलेपार्ल्रे (पश्चिम), मुंबई-56/ मो.- 09869355103

Sunday 4 May, 2008

अमर प्रेमी बनने की क़तार में एक और प्रेमी युगल - ‘जोधा अकबर’...

अमर प्रेमी बनने की क़तार में एक और प्रेमी युगल - ‘जोधा अकबर’... जिसके बेटे (सलीम) व पोते (शाह्जहां) अमर प्रेम के रहबर बनकर इतिहास व कला में मिथक बन चुके हों, वह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर भला अमर प्रेमी कैसे न होगा ? और आनुवंशिकता (हेरिडिटी) के इस जैविक व मनोवैग्यांनिक सच पर अब तक फिल्म वालों की नज़र न जाने से होती रही भारी क्षति की पूर्त्ति की है - आशुतोष गोवारीकर ने ‘जोधा- अकबर’ बनाकर । न सही पोते पर बनी ‘ताजमहल’, पर बेटे पर बनी फिल्मेतिहास की अमर रचना ‘मुगलेआज़म’ तो ज़रूर रही होगी आशुतोष के मन में, क्योंकि अपने नाम की तरह वे काम में आशु (थोडे) से तोष पाने वाले नहीं हैं। बनायी भी है पूरे मन व अपनी समूची कला-चेतना को निचोडकर, जो फिल्म के हर फ्रेम में ज़ाहिर भी है...लेकिन इसके बावजूद यह एक काफी अच्छी सही, पर ग्रैफिक्स आदि की तकनीकी सुविधओं तथा पश्चिम की ढेरों फिल्मों की प्रस्तुतियों के कुशल प्रयोग के बावजूद यह ‘मुग़लेआज़म’ जैसी क्लासिक फिल्म नहीं बन पायी है। और यह सीमा है गोवारीकर के साथ आज के समय की कलाचेतना की भी। वरना जब जोधा-अकबर की रूमानी फिल्म घोषित थी, तो जावेदजी व रहमान भाई मिलकर ‘ख्वाज़ा मेरे ख्वाज़ा...’ जैसी सूफ़ियाई के साथ ‘तेरे दर पे ये किस्मत आज़माके...’एवं ‘अज़ीमोशान शहंशाह...’ के बदले “मोहे पनघट...’ या ‘जब प्यार किया, तो डरना क्या...’की छाया जैसा ही कुछ दे पाते...। वैसा कुछ संवाद में के.पी. सक्सेना ही कर देते..। ये सब एक बार के लिए प्रीतिकर हैं, पर कुछ स्मरणीय नहीं। और ‘प्रेम कथा’ का नाम देने के बाद कनफ्यूज्ड (कर्त्तव्यविमूढ) हैं गोवारीकर भी, जो ‘गलबाहें हों, या हों कृपाण’ में तय ही नहीं कर पाये कि किस पर ज़ोर दिया जाये..। नतीजा यह हुआ है कि जहां सियासी को रूमानी होना था, वहां रूमान ही सियासी बनता गया..। सो, प्यार को मध्यांतर तक आने ही नहीं दिया - नृत्य-संगीत के बदले कलाबाज़ियां-तलवारबाज़ियां दिखाते रहे, शहंशाह के बहनोई के षडयंत्र व जोधा के मुँह्बोले भाई के साथ शक-ओ-शुबहा के ताने-बाने बुनते रहे एवं पालक बडी माँ का दबदबा बनाते रहे...। और यह सब भी जोधा-अकबर के प्यार की तरह ही अनकहा और अचीन्हा है। याने फिल्म में ऐतिहासिक मानने जैसा कुछ नहीं है। इतिहास के आभास के साथ इसे सामान्य प्रेमकथा मानने में ज्यादा मज़ा है। वरना बेटे के प्रेम की बलि लेने वाले बादशाह की छबि ऐसी बैठी है कि प्रेमिका तक के लिए पूरी टीम ‘शहंशाहजी’ के अलावा एक प्यारा नाम तक न सोच सकी। सो,शाही छबि टूटने में पूरा शक़ है। बस, ‘अकबर के उदार बादशाह होने’ की सरनाम ऐतिहासिकता का दामन इतना फलदायी हुआ है कि फिल्म आज की हो गयी है। धर्म, संस्कृति व लिंग के भेदों को मिटाने की व एक राष्ट्र बनाने की ज्वलंत चेतना बडे सलीके से जुड गयी है। हिन्दुओं से लिये जाने वाले तीर्थ-यात्रा के मह्सूल को हटाना, जोधा की हिन्दू बने रहने व महल में मन्दिर बनाने की शर्तों को मान लेना...आदि को खूब रोशन किया गया है। इसे लागू करने के लिए कट्टर मुल्लाओं, रहनुमाओं की बग़ावत का दमन भी किया गया है...। और इसी में प्यार पनपाने का कुशल संयोजन भी। इसी के लिए फिल्म की मूल्यवत्ता काबिलेग़ौर है। और असरकारिता में तो फिल्म भव्य है ही। किंतु लगभग असहनीय है फिल्म की लम्बाई - सम्पादन-कला के लिए तो ज़ीरो मिलेगा। हाँ, दृश्य-योजना पर अवश्य 90% । अभिनय का मामला पहली नज़र में फिटहिट लगता है, पर है मिश्रित फलदायक। जब तय हो ऋतिक को लेना, तो किरदार के लायक होने की चर्चा क्या करनी, पर उनकी मेहनत का फल मिला है फिल्म को। ऐश्वर्या आयी भी हैं सही व भायी भी हैं। दोनो को खूब मौके देने ही थे, पर वह नज़र में भी आता है। बडी माँ बनी इला अरुण प्रभावी हैं। माँ बनी मल्लिका हामिदा सलीकेदार हैं। सोनू सूद बाद में निखरे हैं। कुलभूषण दयनीय हो चुके हैं। बहनोई बने निकितन दमदार हैं। शेष सभी सहयोगी रूप में सही हैं। फिल्म से पैसे की खुली छूट (सौजन्य ‘यू टी.वी’) के चालीस करोड की वापसी की ‘उम्मीद तो काफी है’, पर कालजयी कला बन पाने में ‘यकीं कुछ कम है’- बल्कि बहुत कम है। -सत्यदेव त्रिपाठी

“ह्ल्ला बोला तो, पर ह्ल्ला हुआ नहीं...”

“ह्ल्ला बोला तो, पर ह्ल्ला हुआ नहीं...” राजकुमार संतोषी ने ‘हल्ला बोल’ में भी विषय तो उठाया सामाजिक सरोकार का, जिसमें हमेशा की तरह सभी भ्रष्ट तत्त्वों के खिलाफ एक व्यक्ति का विरोध है। मामला भी मंत्री व स्मगलर के बेटे द्वारा एक लडकी के क़त्ल का...और आदतन पुन: डाले वैसे ही जनता लुभाऊ दृश्य.। ‘घायल’ तथा ‘दामिनी’ के सन्नी देवल जैसे ही करायी हीरोगीरी अजय देवगन से भी। पर इस बार लगता है कि पहले की तरह इन जोडों का घुलामिला फ़ार्मूला उस तरह चलने वाला नहीं- पहले दिन ही हाल में जनता ने ठेंगे दिखा दिये... शायद कारण बना समाजिकता वाली बात पर ज़ोर देता प्रचार और उसे सिद्ध करता नाम- ‘ह्ल्ला बोल’, जो सफदर हाशमी जैसे आन्दोलंनकारी से जुडा है। उसका वैसा ही इस्तेमाल भी करने की कोशिश हुई है। मीडिया में आने के बाद नाट्यकर्म को तिलांजलि देने वाले पंकजकपूर को कुछ तो संतोष हुआ होगा- डाकू से प्रतिबद्ध रंगकर्मी बनने वाले की भूमिका करके- पर्दे पर ही सही। उन्हें भी खूब मौके दिये गये हैं ऐक्टिंग के, जिसे जमाया भी है पंकज ने। लेकिन ऐसी कलात्मक रुचियों से जनता का वास्ता तोडने का काम भी तो फिल्मों ने ही किया है। मुख्य घटना के रूप में ‘जसैका लाल ह्त्याकांड’ को रखा गया है...। नर्मदा आन्दोलन में शामिल होने के बाद आमिर की फिल्मों के बहिष्कार का मामला भी स्टार के सरोकार के साथ जोड दिया गया है...और साथ ही नाटक से फिल्म-स्टार बनने में नायक अशफ़ाकुल्ला से समीर खान ही नहीं होता, उसका सारा वजूद ही बदल जाता है। फिर स्टार की कई रुटीन बेईमानियां शामिल होती हैं, जिनके चलते माँ-पिता-गुरु उसे छोड जाते हैं । पत्नी सिर्फ नाम के लिए घर में रह जाती है। स्टार्डम व अय्याशी के मोह में फँसे नायक को संवेदनशील समाजधर्मी बनाने में आधी फिल्म निकल जाती है। फिर उसे नष्ट करने में खल पात्र मिलकर वही सब हथकंडे अपनाते हैँ, जो हर दूसरी फिल्म में आम तौर पर होते हैं। इस प्रकार इतने घोल मिल गये हैं कि किसी का भी अपेक्षित असर नहीं बन पाता और फिल्म भी काफी लंबी हो गयी है। आधी के बाद भ्रष्टता को खत्म करने के लिए कोर्ट व आम जनता को ‘दामिनी’ की तरह ही मिलाया गया है, पर इस बार जनता की भागीदारी के प्रतिशत का ज्यादा होना बेहतर आयोजन अवश्य है, जो आज का एकमेव विकल्प भी है। पर इसमें ‘रंग दे बसंती’ व ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ जैसा असर नहीं बनता। वैसे ‘फ़न’ का नितांत अभाव भी फ़िल्म के सूखेपन का जिम्मेदार है। मीडिया के दोनो पक्षों का बखूबी आना, फिर भी, सराहनीय हैं। संगीत सामान्य है- ‘ह्ल्ला बोल’ तक में अपेक्षित असर नहीं बनता। अच्छे संवाद बेहतर भी हो सकते थे। यादगार हैं कुछेक दृश्य- खानापूर्ति वाली भूमिका में भी विद्या बालन के प्रेस वाला, अजय की खल पात्रों से समक्षता- ख़ासकर मंत्री के विदेशी कार्पेट को गीला करने व उसके गृह्प्रवेश पर बेबाकी वाला और पंकज कपूर का प्रेस वालों के बहाने पूरे समाज की तटस्थता को फटकारने वाला...आदि । और इन सबके बीच ऐसा बहुत कुछ निकलकर आता है, जिसके लिए यह फिल्म पहली फ़ुर्सत में ही एक बार देख लेने लायक तो है ही...। - सत्यदेव त्रिपाठी

‘यू’ और ‘मी’... कैसे बनते हैं ‘हम’...!!

‘यू’ और ‘मी’... कैसे बनते हैं ‘हम’...!! नीरज जी ने बहुत पहले एक कविता लिखी थी- ‘प्यार अग़र थामता न जग में उंगली इस बीमार उमर की, हर पीडा वेश्या बन जाती, हर आंसू आवारा होता...’ पिया (काजोल) को सब कुछ भूलने की बीमारी (अनज़ाइना) हो जाती है। वह रह-रह कर अपना घर-बार भूल जाती है.. यहां तक कि पति अजय (देवगन) को भी नहीं पहचानती..। छोटे-से बेटे को स्नानघर में डूबते हुए भूल जाने के दिल हिला देने वाले दृश्य के बाद उसे अस्पताल में छोडने का दृश्य कलेजा काढ लेता है। यदि पिया को वहीं छोड दिया जाता, तो उसकी पीडा लावारिस (वेश्या) व उसके आंसू आवारा ही होते..। पर तभी अजय को याद आता है कि उसने पिया को वहां उसके लिए नहीं, अपने आराम, स्वार्थ, सुविधा के लिए छोडा है। ‘अपने बेटे’ को ‘उस औरत’ के पास कैसे छोड दूँ....याने ‘वह’ और ‘मै’ हो गये !! इस अपनी अमानवीयता पर उसे कोफ़्त होती है। अपना प्रेम, अपने वायदे याद आते हैं। और अजय जाकर पिया को घर ले आता है - डॉक्टर के लाख मना करने के बावजूद । इस तरह ‘मी’-‘यू’ मिलकर ‘हम’ बनते हैं, जो ‘मैं’-‘तुम’ और ‘हम’ भी हो सकता था..। यही है फ़िल्म। और यह सब फ़िल्म का उत्तरार्ध भर है, जिसे देखने के बाद किसी को पूर्वार्ध वाला भाग ‘समय की बर्बादी’ भी लग सकता है। लेकिन वह फिल्म की स्टाइल से बावस्ता है। बेटे की चुनौती पर एक औरत को पटाते और उसी दौरान पूरी कहानी सुनाने की स्टाइल। अंत में पता लगता है कि यही है वह औरत, जो रोज़ पति को भूल जाती है। पति रोज़ पटाता है- पटाना फ़ितरत बन गया है। और आज उनकी शादी की सिलवर जुबली है। वे उसी शिप (क्रुइज़) पर हैं, जहां दोनो मिले थे। पटाने में स्टाइल तब भी था। अजय अकेला था। उसके दो मित्र थे- जोडे में। एक खुशहाल अविवाहित जोडा और दूसरा दुखी विवाहित । जब पिया को अजय घर ले आता है, तब पहला शादी करने और दूसरा साथ रहने का फ़ैसला करते हैं..और यह भी ‘मैं’- ‘तुम’ और ‘हम’ का स्टाइल बन जाता है। चरित्रों की पहचान बनाने, रिश्तों के लुत्फ़ लेने, हास्य-विनोद के आस्वाद पाने व यथार्थ के दंश झेलने के ऐसे कई आयोजन इसमें भरे पडे है, जो मज़ेदार व अर्थभरे संवादों, सटीक दृश्य-विधानों तथा नैन-सुख देने के साथ तकनीकी नक्काशी पिरोते चित्रांकनों (फ़ोटोग्रैफ़ी) से सजे हैं। सभी के सही अभिनयों से सँवरे हैं। काजोल वहीं से शुरू हो गयी है, जहां छोडकर गयी थी। अजय ने खुद से वह सब एक साथ करा लिया है, जो तमाम निर्देशक मिलकर उससे अलग-अलग कराते रहे हैं। इन सबसे लगता नहीं कि बतौर निर्देशक यह अजय की पहली फ़िल्म है...। कहानी भी अजय ने ही तैयार की है, जो भले किसी या किन्हीं फ़िल्मों की प्रेरणा से हुई हो, पर उसमें बेहतर कथा-संयोजन का गुर है। कैंसर आदि को लेकर ‘अँखियों के झरोखों से’ व ‘मिली’ आदि कई फ़िल्मों में त्याग भरे प्रेम सम्बन्धों की अच्छी परख हुई है- ‘आनन्द’ में मानवीयता का अच्छा पहलू एक दर्शन के साथ आता है, पर सबमें सम्बन्धों की प्रेम व करुणामय विदाइयां हैं, जबकि इसमें उन सम्बन्धों की पडताल है, जिसे तिल-तिल जलकर सहना है। यहां बात उन संबन्धों के पुनरुज्जीवन तक जाती है, जो आज अनायास टूट रहे हैं...। यह प्रासंगिकता बडी ज़हीन व ज़रूरी है। इसी से मन में सहज इच्छा जगती है कि पूछा जाये- अजय, अगली फिल्म कब व क्या होगी? और बताया जाये कि वह जो भी हो, जब भी हो, उसका सम्पादन ज़रा तटस्थ होकर करना....। - सत्यदेव त्रिपाठी

यह ‘रेस’ किसकी है.....?

यह ‘रेस’ किसकी है.....? मस्तान अब्बास द्वारा निर्देशित और बहुप्रचारित फिल्म ‘रेस’ तीन-तीन नामी हीरो-हिरोइनों से भरी है- सजी नहीं है...। और यह रेस घोडों की नहीं है..। हालांकि नायक सैफ़ अली का घोडों का पेशा भी है और पैशन भी। इस पेशे में उसका चिर प्रतिद्वन्द्वी दिलीप ताहिल है, जिसने एक बार धोखे से सैफ को बडी करारी मात दी है, पर जान जाने के बाद सैफ उससे भी बडे धोखे से ऐसी करारी शिकस्त देता है कि वह शायद नेस्तनाबूद ही हो जाता है...। यह सब आधे घंटे में पूरा हो जाता है- याने रेस व उसमें विलेन का यह सब मामला फिल्म में बहाना ही है। असली रेस तो सैफ अली के साथ उसके सौतेले भाई बने अक्षय खन्ना की है, जो सबसे पहले सैफ की प्रेमिका विपाशा बसु को पाने की रेस दिखती है। लेकिन उसे सैफ सहर्ष दे देता है भाई को- शराब की लत छोडने की शर्त पर प्यार व शादी करा देता है...। तब मालूम पडता है कि असली रेस तो सैफ के पचास मिलियन पाने की है - कानूनी शर्त के मुताबिक उसे दुर्घटना में मरवाकर । उसमें से 20 मिलियन देने के सौदे पर विपाशा को मोहरा बनाकर अक्षय ही लाया है। दुर्घटना के ठीक पहले विपाशा बता देती है सैफ को और लगता है कि अब अक्षय मारा जायेगा, पर ऐन वक्त पर अक्षय का ही साथ देती है विपाशा और सैफ मारा जाता है। यहीं मध्यांतर होता है और समीरा को सेक्रेटरी के रूप में लिए अनिल कपूर नुमायां होता है जांच अधिकारी के रूप में एकदम करमचन्द-किटी स्टाइल की नकल बनकर । जांच के दौरान सैफ की सेक्रेटरी कैटरीना कैफ़, जो सैफ से प्रेम करती भी पायी जाती रही, सैफ के साथ अपनी शादी का प्रमाणपत्र पेश कर देती है - याने अक्षय का भाई को मारना गुनाहे बेलज्जत ही हुआ- वो 50 मिलियन अब कैटरीना पायेगी...। लेकिन तब तक एकदम अलग ही राज़ खुलता है - सैफ की दस्तख़त कैट्रीना धोखे से पहले ही ले चुकी थी- शादी के वक्त तो अक्षय वहां मौजूद था। अब विपाशा को भी धोखा देता अक्षय यूं पक्का शातिर बन सामने आता है कि विपाशा को मारने की सुपारी उसी के हाथों दिलवाता है। अनिल को भी तिहाई रक़म देकर जब पैसा कैश हो जाता है और विपाशा को खत्म करने क़ातिल आ जाता है, तब उडते हुए सैफ़ पुन: प्रकट होता है, जिसकी उम्मीद इतने सारे अचानक मोडों के बाद हमें हो ही गयी थी..। अब मालूम पडता है कि इस सब कुछ की खबर सैफ़ को पहले ही हो गयी थी। तभी उसने विपाशा को उसके साथ व्याहा था...। सस्पेंस का यह पार्ट सचमुच लाजवाब है। यहां आकर असली रेस का पता चलता है, जो पैसों की भी नहीं थी। भाई-भाई के सम्बन्धों की थी, जिसमें बचपन से ही हर मामले में- खासकर सायकल की रेस में- सैफ़ ही जीतता था । इससे हीन भाव की ऐसी ग्रंथि बन गयी कि अक्षय निकम्मा-सा सिद्ध हो गया और पिता ने 50-50 मिलियन के बीमे के अलावा सारी सम्पत्ति सैफ को दे दी थी। इसी के बदले में वह पूरा सौ मिलियन लेने के रोप में एक बार सैफ़ को हराना चाहता था; पर हरा नहीं पाया। बडा वजिब कारण भी सैफ़ ने बताया कि ‘तुम हराने के लिए लड रहे थे और मैं जीतने के लिए। इसलिए मैं जीतता गया और तुम हारते गये..’। लेकिन इस सचाई तक पहुंचने व इस सच को सुनने के लिए इतनी घाटियों-पहाडों से गुज़रना पडता है कि सब कुछ पर से विश्वास उठ जाता है। सीट से उठकर आते हुए शक़ होता रह्ता है कि अंत में जलकर ख़ाक़ हो चुके अक्षय-कैटरीना जीकर उठ न जायें और फिल्म फिर से चलने न लग जाये..। बडी मेहनत से बनी होगी यह स्क्रिप्ट। बहुत बांधती भी है। पर निर्देशन में किसी कलात्मक सूझ का नितांत अभाव है- वह कथा को ही फ़ाइनल मानकर अटक गया है। इसीलिए उत्तरार्ध एकदम ढीला हो गया है। संपादन के बिना बहुत लम्बा भी। शुरू के गीत मौजूं हैं, पर हर हिरोइन पर गीत के संतुलन की भर्ती वाले बाद के दो गीत भी संपादित होने लायक ही हैं। सैफ़ ने कमाल का काम किया है...। अक्षय भी सही है, पर अनिल का रोल ही भरती का है। दोनो भाइयों से कट लेकर 50-60 मिलियन बना लेने में भ्रष्ट जमाना भले उजागर हुआ हो, अधिकारी का वह च्ररित्र और फ़ालतू हो गया है। देह-प्रदर्शन व भूखी शेरनी बनकर पुरुष पर टूट पडने के अलावा विपाशा को कम ही फ़िल्मों में कुछ करने को मिलता है- वही यहां भी है। यही कैटरीना को भी करना हुआ है। अभिनय दोनो को नहीं आता। कुल मिलाकर सैफ़ व अक्षय के अलावा सभी इसमें फ़िलर ही हैं - पर इस रूप में भी समीरा ही कुछ ठीक बन पडी है। कई-कई सस्पेंसों से भरी यह फिल्म एक बार तो देखने लायक है ही...। - सत्यदेव त्रिपाठी

बनाविंग ‘टशन’ बिग पैसा और मिक्स भेजा का काम...

पर देखिइंग ‘टशन’ तो सच्ची - कलेजा का काम...। घबरायें ना आप, यही हिन्दी है यशराज बैनर की विनयकृष्ण आचार्य निर्देशित फिल्म ‘टशन’ की । यह बंबइया डॉन बने एक कानपुरिये ‘भैयाजी’ (अनिल कपूर) के मिक्सचर किरदार की भाषा है। उसे वे अमिताभ बच्चन की ‘दीवार’ के मन्दिर वाले हिट संवाद को अपनी दिलीपकुमार वाली नकल शैली में बोलकर और पक्की खिचडी बना देते हैं। किसी विदेशी प्रतिनिधि मंडल से बात करने के लिये सीखी गयी अंग्रेजी से इसे जोडकर कहानी के लिये सही बनाने की कोशिश की गयी है। इधर की फ़िल्मों से यह तो पता चल ही गया है कि अब एक हीरो के साथ-साथ रोमैंटिक या सस्पेंस..जैसी किसी एक तरह की कहानी से काम नहीं चलता, पर ‘टशन’ बता रही है कि अब एक भाषा से भी काम न चलेगा। तो शायद ‘हिंग्लिश’ में ‘जिन्दी’ की तरह ‘फ़िन्दी’ चले। पूरी फ़िल्म के बाद ‘टशन’ का मतलब तो समझ में आ जाता है, पर इसे समझाने लायक एक शब्द समझ में नहीं आ पाता। ख़ैर, भाषा व कहानी की तरह ही सारे चरित्र भी मिक्सचर। भैयाजी को अंग्रेजी सिखाने वाला सैफ़ अली ख़ान तो अंग्रेजी-हिन्दी दोनो अच्छी बोलता है, पर किरदार में पूरी मिलावट- कॉल सेंटर चलाने वाले छोकरीबाज़ से फ़िदा होने वाले प्रेमी के बाद फ़िर त्यागी-बलिदानी..। और हर रूप में सही लाइन के अभिनय के बावजूद सैफ़ का सही उपयोग हुआ नहीं। शो लूट लेने वाला किरदार है- कानपुर के लोकल गुण्डे से नेशनल भाई बनने की फ़िराक़ में मुम्बई आये बच्चन पाण्डे बने अक्षय कुमार का, जो आता है तो है भैयाजी के 25 करोड लेकर फ़रार करीना-सैफ़ को खोजने, पर पा जाता है अपनी बचपन की प्रेमिका गुडिया (करीना कपूर) को...। गुण्डे तक तो शुद्ध हिन्दी बोलता है, पर प्रेमी होने के बाद फ़िन्दी पर उतर आता है। नहीं उतरती फ़िन्दी पर करीना, लेकिन सबसे ज्यादा मिक्स्चर उसी का बना है। पता ही नहीं चलता कि वह गुडिया है या जादू की पुडिया...। सब कुछ करती तो है यह कुडी- बस, ठीकठाक, लेकिन लोगों को याद रह जायेगा उसका बिकनी वाला तथा अन्य कई रूपों में उघडा बदन। यह दिखने से अधिक वीभत्स है- पूरी फ़िल्म यही दिखाने की निर्देशकीय मंशा का दिखना। छोटे से कस्बे की तेज-तर्रार लडकी भैयाजी के जाल में फँसी है। सैफ़ से प्रेम करके साथ भागने की योजना बनाती है। 25 करोड लेकर अकेली उड जाती है। अकेले ही वह पैसे इतनी जगह रख देती है कि उसे वापस लेने में अक्षय-सैफ़ के साथ पूरी फ़िल्म बन जाती है। और इस दौरान क्या-क्या नहीं होता... नौटंकी.. अंग्रेजी फ़िल्म में फिन्दी गाना- वैसा ही मिलावटी मेकअप...पुलिस से मुठ्भेड में मारधाड...याने सबकुछ...। पर कुछ मौलिक नहीं। हर चरित्र, हर दृश्य, हर फ़्रेम में नकल साफ़। पर यही सब फिल्म चलने के लिए आज जरूरी माना जाता है। सब ऊलजलूल होता है। इसका सबको पता होता है। पर जांबूझकर बनाया व पूरे होशोहवास में देखा जाता है। और अंत में सब कुछ एक बदले की बात सिद्ध होता है। भैयाजी को मैट्रिक्स टाइप लडाई में अक्षय व सैफ़ की मदद से मारकर करीना अपने बाबा की ह्त्या का बदला ले लेती है। बस, कहानी का कायापलट कर देने वाले एक-दो ऐसे मोड आते हैं.. कुछेक ऐसे संवाद आ जाते हैं, जो एक अच्छे कलारूप का लुत्फ़ दे जाते हैं, पर इतने के लिए ढाई घंटे सरफ़ा करना खल जाता है। - सत्यदेव त्रिपाठी

‘प्रणाली’ - घी के लड्डू टेढे भी भले...

आजकल जब सिनेमाई उपकरणों के इस्तेमाल से लैस और प्रस्तुति के खींचतान भरे तरीकों की कसरत करती बेबात की बात वाली फिल्में प्राय: ही आ रही हैं, बाबा तुलसी के ‘मन मलीन तन सुन्दर..’ की तरह..., तो ऐसे में निर्देशक हृदयेश काम्बले की फ़िल्म ‘प्रणाली’ को देखकर मन से यही निकला- ‘घी के लड्डू टेढे भी भले...’। मैं जानता हूँ कि इसको देखकर लोग तो क्या, समीक्षक तक नाक-भौं सिकोडेंगे...सबका ज़ायका जो खराब हो गया है। और ‘प्रणाली’ का लड्डू भी टेढा है- अभिनय पक्ष निहायत कमज़ोर है । प्रणाली बनी नरगिस सबसे कमज़ोर- बोलने की अदा तो असह्य। वेश्याओं की अड्डावाली सुधा चद्रन को देखते नहीं बनता। साथ की वेश्या में दीपशिखा सामान्य - शेष तो उससे भी नीचे। छोटे चरित्र की बडी भूमिका में उपेन्द्र लिमये लाउड, पर लहकते हुए । हेमंत पाण्डेय टी.वी. वाली छबि से काफ़ी लचर..। बस, विनय आप्टे उस भ्रष्ट मंत्री को फूहड भी बनाकर आक्रोश के साथ जुगुप्सा भी जगा पाते हैं। विजय का चरित्र बखूबी निभा है। एक चरित्र के आस-पास बुनी हुई कहानी बनायी हुई का अहसास कराती रह्ती है। चित्रांकन में कोई चारुता नहीं। ध्वनि में मधुरता नहीं। निर्देशन ढीलाढाला, फ़िल्म भागती हुई... याने ख़ारिज़ कर देने के सारे सरंजाम..। परंतु इस लड्डू का घी है - बिना किसी फ़िल्मी तमाशे के सीधे-सीधे कही गयी वह ज़हीन बात, जो इस फ़िल्म को एक उपयोगी कला बना देती है - निरस बिसद गुनमय फल जासू । बात है शीर्ष राजनीति, प्रशासन, अमीरवर्ग, गुण्डागर्दी...आदि से संचालित आज की समूची व्यवस्था को जमकर व खुलकर नंगा करने की, जिसमें यह फ़िल्म एकदम सफल हुई है। बिना किसी पेशेवर आग्रह के, पूरी गंभीरता के साथ यह करना (बक़ौल एक पात्र - क्या धो-धो के मार रहेला है!) हिम्मत का काम है। समाज के प्रति गहन सरोकार एवं फिल्म जैसे सशक्त माध्यम के सही व कारगर इस्तेमाल का नमूना है, जिसे आज के कमाऊ फ़िल्मकार भूल गये हैं एवं सोद्देश्य फिल्म के घोषित पैरोकार सत्ता को खुश रखते हुए कला का और्गाज़्म रचने में ग़र्क़ हैं। प्रणाली को गाँव के मन्दिर का पुजारी 10-12 साल की उम्र में ही देवदासी बना लेता है। देवता से ब्याही जाने के धार्मिक कुचक्र के विश्वासी पिता व गाँव के समक्ष माँ का विरोध नाकाम होता है। वर्षों तक अपनी हविश का शिकार बनाने के बाद एक दिन पुजारी उसे बीस एकड ज़मीन के बदले मंत्री के पास छोड आता है...। लेकिन मंत्री के बर्बर हमले के दौरान उसे घायल करके प्रणाली पुलिस थाने जाती है, जहां मंत्री के फोन पर उसे नारी निकेतन और वहाँ से मुम्बई की वेश्या-मंडी में पहुंचा दिया जाता है। यह तो भूमिका हुई... फ़िल्म तो इसी वेश्या-जीवन पर है, जिसका सबसे अधिक शोषण उस एरिया (लक्ष्मी नगर) का मंत्री करता है- अपने गुण्डे फ़कीरा की गैंग के ज़रिये...। वोट के प्रचार के लिए उनसे राखी भी बँधवाता है। असली लडाई शुरू होती है, जब अपनी बेटी को एक आम नागरिक की तरह पढाने की कोशिश में प्रणाली नाकाम होती है और एड्स से एक वेश्या की लावारिस मौत हो जाती हैं । तब विदेश में बसे व वेश्या-जीवन पर शोध-कार्य कर रहे विजय की सलाह पर सेक्स वर्कर के रूप में वेश्याओं के समस्त मानवाधिकारों की माँग को लेकर मंत्री से मिलती है। वहाँ से टका-सा जवाब पाने के बाद हडताल कराती है, जिसमें जी-जान से सारी वेश्याएं जुट जाती हैं। मीडिया व कुछ नारी-संगठन भी अच्छा सहयोग देते हैं। विदेशों से समर्थन आते हैं। और 15 दिनों के बाद विरोधी दल के नेता भी अपना उल्लू सीधा करने साथ आ जाते हैं...। ऐसे प्रयत्न आज जीवन में तो मर-से गये हैं और फ़िल्मों में अकेले हीरो द्वारा सबकुछ कर-करा लेने के रूप में स्टंट बनक्रर जिन्दा हैं, जिनका कोई मतलब नहीं। और इसीलिए सार्थक ढंग से यह कराना ही ‘प्रणाली’ का श्रेय बन गया है। और प्रेय है- सरकार का झुकना, पर उस प्रयत्न का सफल न होना। याने बदलाव का रास्ता भी, पर यथार्थ से बावस्ता भी। राजनीति की ज़ाहिर-सी पेंच उघडती है - आश्वासन देकर मंत्री विचारार्थ समिति बना देता है और दर्शकों को बता भी देता है कि रिपोर्ट कभी नहीं आयेगी और आयेगी भी, तो अमल न होगा। पर इस तरह चुनाव तो सरकार जीत ही जाती है...। फिर जब विजय की बेस्ट सेलर पुस्तक की बिक्री के प्रतिशत से कुछ वेश्याओं के पुनर्वास व प्रणाली के जारी प्रयत्न के साथ फ़िल्म पूरी होती है., तो लगता है कि हम एक समूचा जीवन जीकर उठे हैं। हाँ, इसके लिए सरोकार का एक जज़्बा आपके मन में भी चाहिए। और न हो, तो थोडा ही सही, ‘प्रणाली’ पैदा भी कर देगी। और इसी के लिए उसूलन इसे सभी को एक बार देखना ही चाहिए...। - सत्यदेव त्रिपाठी