Saturday 18 July, 2009

लोकगीतों की प्रासंगिकता

लोकगीतों की प्रासंगिकता लोकजीवन ही प्रासंगिक न रहा, तो लोकगीत कैसे हों...? -सत्यदेव त्रिपाठी लोकगीतों की प्रासंगिकता की बात करना ऐसा लगता है, गोया दादाजी से घर में रहने की उपयोगिता पूछी जा रही हो और स्थिति की विडम्बना यह है कि दादाजी को बतानी पड रही है...। क्योंकि जिस गाँव में दादाजी जनमे-जीये, वह गाँव उनका अंत समय आते-आते बदल गया है। अब लोक का वह सम्भार जाता रहा है, जिससे लोक गीत-संगीत जनमता-विकसता था। हर दिल-अज़ीज़ बनता था। मसलन... ...मशीनी खेती ने श्रमगीतों को खत्म कर दिया है। ट्रैक्ट्रर की घड्घड में भला हलवाहे व गाडीवान के गीत कैसे गाये-सुने जा सकते हैं? चक्की ने जाँता खत्म कर दिया, ‘जँतसार’ के गीत जाते रहे ... आदि-आदि? ...ऋतु गीत में पहले की तरह न महीनों कजरी गायी जाती, न फाग। न महीनों झूले पडते, न पूरे महीने जोगीडा चलता। याने अब इनके ही प्रति वह उछाह नहीं रहा, तो इन अवसरों के लिए बने लोकगीतों के लिए क्या होगा? बस, नागपंचमी-होली की रस्म-अदाई हो जाती है। ...भक्ति के सामूहिक आयोजन भी अब उस तरह से पूरे गाँव के एक ही साथ नहीं होते। सो‘पचरा’आदि जैसे पारम्परिक गीत भी बहुत कम हो गये हैं। इतने कम कि आज बढती पीढी को ये चीजें उस तरह मालूम भी नहीं हो पा रही हैं कि वे मौका आने पर कुछ सुन-सुना तो क्या, बता भी सकें... ...कुछ अवशेष बचे हैं संस्कार-गीतों के, पर उनमें भी भयंकर ह्रास आया है- भोर जगाने, जनेऊ यज्ञ जैसे अवसरों के गीत किसी को याद नहीं रहे। कुछ बूढियां जिस दिन नहीं होंगी, परिछन, ब्याह, गवना के गीत भी लुप्त हो जायेंगे। सोहर कुछ् दिन शायद बचे रहें...पर किस रूप में...!!1 ...‘गारी’ जैसे खुले रूप को तथाकथित सभ्य समाज ने फूहड व अश्लील करार देकर लगभग बन्द कर दिया है। वरना जो खुलापन रहता था उनमें, वह कई तरह से लाभदायक होता था। ब्याह बैठते ही ‘लाजि के मारे लजाधुरि जे पिय के अगवौं नहिं घूँघट खोलइ’ वाली नवेलियों व बूढी दादियों तथा प्रौढा माँओं के‘दुलहा हौ छिनारि के जनमल, अगुआ हौ ललगँडुआ रे’ जैसे गीत कई-कई तरह से रोमांचित कर जाते थे...। ... उक्त सब के सब टीवी और उस पर आती फिल्मों के सौजन्य से इल्मी-फिल्मी हो चुके हैं...। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राम स्वरूप चतुर्वेदी ने बीस साल पहले ही लिख दिया – ‘दूरदर्शन आधुनिक युग का लोक माध्यम है’। लेकिन यथार्थ को सीधे कहा है अशोक वाजपेयी ने - ‘एक समय था, जब लोकगीत-संगीत से बम्बइया फिल्में धुनें और भाषा उधार लेते थे। अब बारी पलट गयी है। अब फिल्मी धुनें लोकसंगीत को प्रभावित कर रही हैं’। शायद वे कहने में चूक गये या कंजूसी कर गये। हक़ीकत यह है कि सभी रूपों में पूरे के पूरे गीत ही फिल्म के प्रयुक्त हो रहे हैं – ‘पइसा दे दो, जूता ले लो’ जैसे गीतों के लिए तो शादी में स्थिति (सिचुएशन) भी बनायी जाती है। सो ऐसे में 20-30% ही कुछ खाँटी लोकगीत आदि बचे रह गये हैं – वही रस्म-अदाई के तौर पर...। वरना सारे गाँव गन्दी राजनीति व गुटबन्दी, झगडों, मुकदमेबाजियों व लूट-खसोट के अखाडे बन गये हैं। कितना कमा लें, कैसे कमा लें; के अलावा कोई बात नहीं होती। बाबा की बात साकार हो उठी है–‘मातु-पिता बालकन्ह बोलावहिं ; उदर भरइ, सोइ करम सिखावहिं’। इस तरह लोकगीत-संगीत तो क्या, सब कुछ छूट चुका है – ‘भूल गयी सान-सउख, भूलि गयी चौकडी ; तीनि चीज़ याद रही- नून, तेल, लकडी’। इसी की परवान चढ गये हैं – सारे लोकगीत-संगीत...सारी लोक-संस्कृति। यह 20-30% भी कब तक बचे रहेगा, कहना मुश्किल है। आजकल कुछ सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थान इन गीतों को सुरक्षित करने के प्रयत्न में लगे हैं – करोडों के वारे-न्यारे हो रहे हैं, पर सीधी सी बात कोई नहीं समझता कि घर-आगनों, गली-चौबारों से मुहल्लों-गाँवों को गुलज़ार करने वाले ये गीत वातानुकूलित भाण्डारों में दस्तावेज़ की तरह रखे जाकर किस काम के रह जायेंगे? इनकी इससे बडी अप्रासंगिकता और क्या होगी? तो सक्षेप में ये हैं गावों के हालात और उनमें लोकगीत की दशा व दिशा, जिनमें गीत ही लुप्त होते जा रहे हैं, तो उनकी प्रासंगिकता की बात ही क्या? बाँस ही नहीं, तो बाँसुरी की बात क्या...? और अब ज़रा गाँव से अलग हटकर हालात का एक जायज़ा लें, जिसमें लोकगीतों की स्थिति व गति बन-बिगड रही है... आज हम ग्लोबल हो गये हैं। उत्तर आधुनिक हो गये हैं। बाज़ार के युग में जी रहे हैं। भौतिक सुख जीवन का परम लक्ष्य हो गया है। सारी प्रगति और सभ्यता के केन्द्र शहर हो गये हैं। ‘गोदान’ के मेहता-मालती... आदि की तरह हम गाँव में पिकनिक के लिए जाते हैं- छुट्टियों के कुछ दिन बिताने या फिर प्रोजेक्ट आदि...के लिए। इस विलोमी बदलाव से लोकगीत ही नहीं, समूची लोक समृद्धि पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है। मसलन... ...मैग्डोनल व चाइनीज़ के सामने दाल-भात-रोटी-भाजी को बतानी पड रही है अपनी प्रासंगिकता और बेरहिन-बख़ीर, ठोक्वा-गुलगुला, दोहथी-हथुई तो अप्रासंगिक ही क्या, अपना अस्तित्त्व तक खो चुकी हैं। ...बीस साल पहले के कॉंन्वेंटी बच्चों ने सारी पहननेवाली अपनी माँओं से अपेक्षा की थी कि वे जींस-टीशर्ट पहनकर स्कूल से उन्हें लेने आयें। वे बच्चे अब जवान हो गये हैं और माँ के साथ दो पल बिताने के बदले क्लब-होटेल-सिनेमाघरों में जाना पसन्द करते हैं। फिर वे लोकगीत कहाँ सुनेंगे? ...अपनी लोकभाषा पढने, उसमें लिखने का अभ्यास तो हमारा ही नहीं रहा। महानगरों में प्रशासनिक कार्यों के लिए हिन्दी के मुकाबले अंग्रेजी ही सरल लगने लगी है – ‘सविनय निवेदन है कि...’ को भूलकर ‘आई बेग टु स्टेट दैट...’लिखना आसान हो गया है। तो ऐसे में लोकभाषा की अपेक्षा उस बच्चे से करना बेमानी है, जिसे लाखों के पैकेज की कमाई (तथा फिर उसी बुनियाद पर लाखों के दहेज) पाने के लिए लोकजीवन को छुडाकर ये राहें हमने ही पकडाई हैं...। नतीजा यह है कि हमें तो बचपन में मिले उस जीवन के कारण लोकभाषा बोलने-बतियाने, उसमें गाने-बजाने कमोबेश आता है – कम से कम सुनकर प्रसन्न होने लायक तो हैं ही हम। यह दाय अपनी नयी पीढी को नहीं दिया हमने। सो, आने वाले समय में उन्हें अपनी लोकभाषा ही नहीं आयेगी, तो गीत-संगीत भला कैसे आयेगा? हम अंतर्मुख होकर सोचें और अपने आप को ही बतायें कि हमारे जीवन में लोकगीत-संगीत कितना है ! कितने लोकगीत की कितनी पंक्तियां हमें याद हैं? चलिये, कितनी काव्य-पंक्तियां याद हैं, जो हम चलते-फिरते अपने बच्चे को सुना-सिखा सकते हैं? बडे-बडे नेताओं, मंच-वक्ताओं को वही की वही पंक्तियां ही हर मौके पर सुनाते हुए यूँ सुना जा सकता है कि श्रोता पहले ही भुनक पडता है– अब फला पंक्ति सुनायेगा। याने लोकसाहित्य क्या, साहित्य ही नहीं रहा जीवन में, तो अप्रासंगिक होगा ही...। इन्हीं कारणों से लोकगीत गाने वाले दिन-पर-दिन कम होते जा रहे हैं। वरना मुम्बई में एक ही गायिका को हम हर साल वही-वही, वैसे-वैसे ही गाते हुए क्यों सुनते? यूँ लोकगीत का स्वभाव यही रहा कि एक गीत को हर साल गाते हुए कई-कई पीढियां गुजर जाती थीं, पर गाते-सुनते लोग अघाते न थे...। लेकिन तब कार्यक्रम पूर्व-नियोजित या प्रायोजित न होते थे। आज ऐसा होने में हम शिक्षित प्रमोटरों का अज्ञान व आलस्य भी है, जो नयों को जान-खोज नहीं पाता। और हमारे आयोजन जिस तरह के शिष्ट व अभिजात होते हैं, वे स्वयं ही उस सहजता व अनगढता के विरोधी हैं, जो लोकगीतों की बुनियादी प्रवृत्ति है। इसीलिए वे खाँटी गायक ऐसे आयोजनों में नहीं आ पाते, जो असली लोकगायक हैं व जिनसे लोकगीत बनता है – याने ‘दुकानदार तो मेले में लुट गये यारो, तमाशबीन दुकानें लगाके बैठ गये’। और असली लोकगायकों को लूटने वाले ये गायक लोकप्रिय ज़रूर हैं, पर उन्हें लुटवाने वाले तो हम अभिजात आयोजक ही हैं, जो एक-दो नहीं हैं – ‘कहाँ तक नाम गिनवायें सभी ने ‘इनको’ लूटा है...’। लोकगीत गाने वाले हमारे गायक प्राय: कवि हुआ करते थे। वे समय की समस्याओं के गीत लिखा करते थे। उन पर गम्भीर व बेबाक टिप्पणी किया करते थे। आजादी की लडाई के समय जाँते को सम्बोधित करके लिखा गीत तो मशहूर है ही- ‘सुराज धुन गावा हे मोर जाँता’...! लाल रंग गोहुँआ, सफेद रंग पिसना कपट दिल खोला, ए मोर जाँता... लेकिन आज़ादी के बाद जो नज़ारा हमारे अपनों ने दिखाया, जिसे साहित्य में ‘मोहभंग’ के नाम से जाना गया, उसकी सीधी, धारदार; पर उतनी ही लयात्मक अभिव्यक्ति किसी लोकगायक ने ‘कांगरेसिया बिदेसिया समान सजनी’ गाकर की और लोकगीत प्रासंगिक तो क्या, प्रहारक बन गया। यही असली तत्त्व है प्रासंगिकता का, जो तब था... पर अब आ नहीं आ रहा है। गायब हो चुका है लोकगीतों से। आज के सरोकारों वाले लोकगीत इधर लिखे ही नहीं जा रहे हैं। यही सबसे प्रमुख कारण है, लोकगीतों की प्रासंगिकता के कम होने का। आज का युग सब कुछ को उपयोगिता की कसौटी पर कसता है। इसे समझ व अपना कर ही कुछ भी प्रासंगिक हो सकता है आज। सो, जीवन में आज जो बदलाव आ रहे हैं – जिनका एक ट्रेलर-सा इस लेख की शुरुआत में ही दिखाया गया, उन पर गीत लिखे जाकर ही लोकगीतों को प्रासंगिक बनाया जा सकता है। इनके अभाव के नजीतन ये लोकप्रिय गायक पुराने लोकगीत गाये जा रहे हैं, जिनका आज के जीवन से कोई ख़ास सरोकार ही नहीं रहा। गीतों के आउट ऑफ़ डेट होने का एक उदाहरण दें? एक हिट कजरी गीत है – ‘पिया मेंहदी लिया दा मोतीझील से, जाके सायकील से ना...’। अब देखिये कि इसके जीवनगत सरोकार क्या हैं ... मेंहदी के लिए नीलीझील की क्या पहचान है, हमें भी नहीं मालूम। ये लोकल पहचानें हैं। तब गायन लोकल लेवेल पर हुआ करता था। हर अंचल के अपने लोकगीत होते थे। वहाँ वे गाये जाते थे। धुनों और भावों की समानता में उनका राष्ट्रीय स्वरूप आपोआप बनता था, जिसे अनेकता में एकता कहा जाता है। अब लोकगीतों की राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुतियां होने लगी हैं, तो व्यापक पहचानों वाले गीत लिखे जाने चाहिए, जिससे वे सबकी समझ में आयें, सबको आनन्द दें...। दूसरी बात यह कि अब कौन प्रियतम है, जो सायकल से जाकर अपना अपमान करायेगा ? वह कार नहीं, तो बाइक से जरूर जायेगा... कुछ नहीं तो स्कूटर तो होगा ही, पर सायकल तो कतई नहीं...। लेकिन तीसरी व सबसे मार्के की बात यह कि आज की नायिका मेंहदी लगाने के लिए पिया से कहने क्यों जायेगी? ब्यूटी पॉर्लर नहीं चली जायेगी? मेंहदी वाली को अपने घर नहीं बुला लेगी? और इसके आगे के जमाने की बात यह कि पता नहीं वह किसके लिए मेंहदी लगाना या पॉरलर जाना चाह रही होगी- नौकरी पर जाने के लिए, इंटर्व्यू देने के लिए या मीडिया के लिए ऑडीशन देने के लिए?...आदि । तो फिर पिया से क्यों कहेगी? या मुआफ़ किया जाये, तो एक विकल्प और कहूँ - पिया के अलावा अपने किसी प्रेमी के लिए पॉर्लर जा रही हो, तो... ? जी हाँ, इस उत्तर आधुनिक ग्लोबल समाज ने हमें यह दिया है। जब पुरुष बाहर निकलता था, उसके विवाहेतर सम्बन्ध बनते थे। उसकी परिणीता प्रेयसी घर में बैठी इंतज़ार करती थी। इससे बिरह के ढेरों लोकगीत बनते थे...।‘बिरहा’जैसा गायन इसी बिरह से ही निकला था, जो आगे चलकर विविधरूपी विकास कर सका। पूरा समाज रस ले-लेकर उसका गान-पान करता था। एक बानग़ी देखें, जो इधर बहुत लोकप्रिय हुआ है... रेलिया बैरन पिया के लिये जाय रे...’। फिर वो अपने पिया को ले जाने वाले गाडी, टिकट, बुकिंग क्लर्क तथा उस शहर तक के नष्ट हो जाने की कामना करती है, जहाँ वह रहेगा...। और सबके अंत में – ‘जवने सवतिया पे पिया मोर आसिक, बिजुरी गिरइ सवति मरि जाय रे...रेलिया बैरनि...’ याने मानी हुई बात थी कि वो किसी के इश्क़ में पडेगा। उत्तरप्रदेश-बिहार वालों का कलकत्ता जाना प्राय: होता था – छ-छह पैसा, चल कलकत्ता...। वहाँ एक परदेसी यदि बस गया, तो साल भर न आने वाले हर परदेसी को जादूगरनी बंगालिनों ने भेंडा बनाकर रख लिया है... जैसी तमाम भ्रांतियों पर लोकगीतों के ख़ज़ानें भरे हैं। लेकिन जैसे बिजली आ जाने के बाद कविताओं में शर्मीली नायिकाओं के हाथ दीपक बुझाने से जलने बन्द हो गये, ये सब बन्द हो जाने चाहिए। अब विज्ञान के आने के बाद न भेंडा बनने का भ्रम रह गया, और शहरीकरण, यातायात व स्त्री-शिक्षा से न बिरह की वैसी स्थिति रह गयी...। आज जब स्त्रियां भी बाहर की जिन्दगी में उतनी ही सक्रिय हैं, अब पुरुष के लिए भी बिरह की स्थिति आयी है। कभी राम को बिरह में रोते-बिलखते तुलसी ने दिखाया था। आज की हमारी फिल्मों ने इन मर्मों को समझा-अपनाया है- बेशक़ व्यवसाय के चलते ही, लेकिन हमारे लोकगीतों में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो। याने वे अपडेट नहीं हो रहे हैं। परंतु यह सब तो रुकने वाला नहीं है। और बढेगा। फिल्मों के साथ कमोबेश साहित्य ने भी स्वीकार लिया है। लोकगीतों को भी ऐसा करके ही मुख्य धारा में लाया जा सकता है, जिसके प्रति कोई सजग नहीं। कहने का लुब्बो-लुबाब यह कि ऐसे-ऐसे नये विकास जीवन में आ गये हैं, जिन पर गीत आने चाहिए। लोकगीतों को आधुनिक जीवन की तब्दीलियों, जटिलताओं से रू-ब-रू होना होगा। इन्हें समोना होगा। जो लोग लिख रहे हैं, उन्हें इन जटिल जीवन-वास्तवों को गीतों में ढालना होगा, जिससे नयी पीढी के नौनिहाल निहाल हों...। वरना उन पुरानी पिटी-पिटायी थीम पर लिखे गीत आज के नये समाज द्वारा स्वीकारे न जा सकेंगे। वे सीडीज़ में ही बन्द होकर रह जायेंगे...। हमारा लोकगायक आशु कवि भी हुआ करता था। गाते हुए जो कुछ वहाँ चल रहा होता था या देश में जो हिट-हॉट घटित हुआ रहता था, उसे भी अपने उसी गीत में मिलाकर उसी शैली में उसी सुन्दरता से रचता जाता था - ‘इम्प्रोवाइजेशन’जैसा। लेकिन आज के लोकप्रिय गायक महज फ़ूहड हाव-भाव व सस्ते संवादों के ठेकों, जिसमें आयोजक की चापलूसी सबसे ‘चीप’सिद्ध होती है, के अलावा कुछ नहीं कर सकते। और संपर्कों (पब्लिक रिलेशनशिप) का सिला ही है कि ऐसे गायकों के गीतों को ही हम असली लोकगीत समझ बैठने को विवश हो गये हैं। यदि वस्तु के स्तर पर उक्त किस्म के बदलाव हों, तो जो धुन, लय, सुर, टेक, राग, ...आदि हैं, वे प्रासंगिक तो क्या, कालजयी महत्त्व के हैं। मतलब न जानने के बावजूद लोग थिरक उठते हैं। गुजरात, महाराष्ट्र, म,प्र. व राजस्थान के लोग जुटे थे। हम महाराष्ट्र की ओर से गये थे। और हमारा साथी बी.एम. सिंह जब गायन के अवसर पर पिहिक के उठाया था – ‘ छलकल गगरिया मोर निरमोहिया, छलकल गगरिया मोर.. महुआ के कुचवा मदन रस टपके, बहे पुरवइयाझकझोर निरमोहिया कि छलकल गगरिया मोओओ...र... तो गुजरात के सोनी सर इतना चहक उठे कि दौडकर मंच पर रखी ढोलक का ताल मिलाने लगे और न मिला पाने पर मंच पे ही चित्र-लिखित जैसे खडे रह गये थे... ऐसा असर होता है। हिरणी वाला प्रसिद्ध गीत किसी भी युग, भाषा... आदि का मोहताज नहीं...। और ऐसे बहुतेरे हैं। यही लोक्गीतों की प्रकृति है, शक्ति है, जो रहेगी...। युगीन बदलावों की अनिवार्य चर्चा यहाँ न होती, तो इसी सब पक्ष को विस्तार से बताकर प्रासंगिकता की इतिश्री की जा सकती थी। और बिरह, मिलन, प्रतीक्षा, इसरार, इनकार, मान-मनौवल..आदि भावों की सनातनता के आधार पर प्रासंगिकता क्या, इनके अमरत्व की गैरंटी दी जा सकती थी...। और कहना होगा कि यह है भी। लोकगीत अपने इन्हीं गुणों से अमर हैं और रहेंगे...। इनमें इतना अपनापा भरा होता है कि ये सहज ही हमारे गहन क्षणों के साथी बन जाते हैं। हमारे लोकगीतों में संस्कार व संस्कृति तो होती ही है ; एक आदर्श, एक मूल्य भी निहित होता है, जो बताया-कहा नहीं जाता। पूरे विधान में रच-बसा होता है। उसमें एक सहजता-सरलता व निष्कलुषता होती है, जो मोहती है। तभी तो महाराष्ट्र की कीर्त्तन शैली से बना ‘घाशीराम कोतवाल’ का आलोक विदेशों में भी सराहा गया। छत्तीसगढी के लोक में अभी-अभी दिवंगत हबीब साहेब का ‘चरनदास चोर’ व ‘मिट्टी की गाडी’ भी पाश्चात्य देशों में सबके सिरमौर बने। याने कि बहुत कुछ है, जो कहा जा सकता है। लेकिन यह सब कहा गया है। कहा जाता है। बार-बार, बारम्बार। हम इतिहास का गान करते जा रहे हैं और स्थितियां दिन-ब-दिन बिगडती जा रही हैं। इसलिए कहना तो पडेगा। अब समय आ गया है कि ये सचाइयाँ कही जायें। गुडी-गुडी से काम चलने वाला नहीं। इनमें सुधार व बदलाव की मह्ती आवश्यकता है। सरकार के पास योजनाएँ हैं। संसाधन हैं। सच्चे लोक कलाकारों को हबीब साहब की तरह गावों से उठाकर लाना होगा, उनके सारे नखरे उठाने होंगे। कार्यशाला आदि माध्यमों से उनसे वो चीज़ें निकलवानी होंगी, जो रह जाती हैं। नयी चीजें लिखवानी होंगी, ताकि वो सम्भार लोकगीतों में भी आये, जो जीवन में आ चुका है। फिर उनका ऐसा प्रदर्शन कराना होगा कि नयी पीढी को भी उसमें रुचि जागे। सुरक्षित-आरक्षित के बदले लोक की चीज को लोक तक पहुँचाना होगा। लोकगीत को लोकमय बनाना होगा, तब प्रासंगिकता बतानी नहीं होगी, वह स्वत: सिद्ध होगी...। ** ** ** सम्पर्क- “नीलकण्ठ”, एन, एस. रोड नं.- 5, विलेपार्ले- पश्चिम, मुम्बई- 400056 फोन- 022-26101987/ 26163215. मो. 09869355103 ई मेल- satyadevtripathi@gmail.com 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गडे मुर्दे क्यों उखाडे जायें ‘बालिका वधू’ में... ??

‘हमारा महानगर’ (17 जुलाई, 09) में ‘बालिका वधू’ पर संसद में उठे सवाल को लेकर अलका आश्लेषाजी का आलेख पढने को मिला। धारावाहिक को अलका जी ने ‘सामाजिक जागृति का सकारात्मक रूप’, ‘बाल-विवाह के विरोध में एक सार्थक कोशिश’ ‘इस कुप्रथा की समस्याओं को सुलझाने’ व ‘दर्शकों को शिक्षित करने के उद्देश्य वाला’...जैसे जितने विशेषण हो सकते हैं, से नवाज डाला है। और कार्यक्रम हम देख रहे हैं। खेद है कि हम ऐसा कुछ भी देख नहीं पा रहे हैं। काश, अलकाजी ने कहीं एकाध उदाहरण दे दिया होता कि यह सब किस घटना, किस चरित्र, या इनके किस परिणाम से हो रहा है, तो हम भी शायद समझ पाते ! हम तो देखते हैं कि इसकी बालिकाबधू व बालकवर (आनन्दी-जगिया) परम प्रसन्न एवं सुखी हैं। जितना मान-सम्मान, स्नेह-दुलार उन्हें सीरियल के परिवार-समाज से मिल रहा है तथा उसी के चलते जितनी लोकप्रियता उन्हें आज मिल रही है, उसे देखकर हर बच्ची-बच्चा यदि बालिका बधू - बालक वर बनने का सपना देखने लगे (और देख रहे हैं), तो क्या बेज़ा है? क्या यह एक मृत हो गयी रूढ व्यवस्था को ग्लैमराइज़ करना नहीं है? कौन-सी जागृति इसमें निहित है। हाँ, जागृति के नाम पर आनन्दी के ससुराल में पढने की शुरुआत करायी गयी, जो कुछ कडियों को हिट करके ग़ायब हो गयी। वैसे बाल-विवाह की बात ही गडे मुर्दे उखाडना है और ‘कलर’ चैनल तो प्राय: सभी में यही कर रहा है। ‘लाडो...’ में लडकी की भ्रूण-हत्या का मामला कमिश्नर तक ले जाने वाली लडकी अब अम्मा के घर में नौकरानी बनकर रह रही है- पता नहीं कौन सी योजना लिये है !! कमिश्नर न जाने कहाँ गया? इतने पढे-लिखे जागरूक लोगों के बीच कोई पुलिस, कोई व्यवस्था नहीं आ पाती और अम्मा की निरंकुश तानाशाही सत्ता चल रही है... ऐसा गाँव भारतवर्ष में कहाँ है? अम्मा की दादागीरी के स्टंट के सामने तो मनमोहन देसाई व प्रकाश मेहरा की फिल्में भी पानी भरें ! तो बालिका वधू की पढाई की बात भी मुर्दे को भूत बनाना ही है। राजस्थान व बिहार में यदि कहीं-कहीं ये प्रथाएं हैं, तो ऐसे सीरियल वहाँ के लोकल चैनल पर दिखाये जायें। पूरे देश में इन मुरदा प्रथाओं को क्यों जल्वागीर किया जाये ? फिर दिखायें, तो ऐसे कि इनके प्रति अरुचि-जुगुप्सा पैदा हो, न कि ऐसा ग्लैमर कि वैसा बनने का रश्क़ होने लगे...? आइये आगे बढें... घर के बडे बेटे बसंत की दूसरी शादी भी घर वालों को पैसे देकर कच्ची उम्र की किशोरी से करा दी – क्रूर-जघन्य यथार्थ दिखा, विरोध भी दर्ज़ हुआ। लगा कि कोई सार्थक पहल होगी...। दस-बीस कडियां उसमें भी जम गयीं। यह ग़ैर कानूनी है, पर इस तरफ़ ख्याल क्यों जाये? बच्चा देकर ऋण उतारकर जाने के निश्चय से रुकी थी। बडा अच्छा लगा था...। पर अब वह अच्छी-ख़ासी ‘बींदनी’ बनकर घर-बार सँभाल रही है। घर के दुख-सुख में हँस-रो रही है। याने ये होता रहे, का ही सन्देश बना न ! तो कौन सा जागृति पैदा हुई और कौन-सी शिक्षा मिली ? बस, उन विरोधों के नाटक में कुछ कडियाँ फिर हिट हो गयीं। असल में यह सारा खेल कडियों को हिट करने का ही है। ऐसे मुद्दों को ‘हुक’ कहते हैं, जिसे खोजना सीरियल-लेखन का बडा गुर है। ये हुक दर्शक को फँसाने के लिए होते हैं। फिर उसे भूल जाना ही इस विधा का अनुशासन (डिसिप्लिन) है। इस हुक के मक़्सद और मर्म को आम दर्शक तो नहीं समझता, पर लेखक-विकारक ? हाँ, इस बींदनी के गर्भ के जिस बच्चे को लेकर इतना हंगामा हुआ, वह गया कहाँ? याने कहानी तक से ‘हुक’ का मतलब नहीं। तीसरा मसला दादी की पोती (सुगनी) का है, जो विधवा समस्या से जुडा है। उसकी दूसरी शादी कराना जरूर एक सकारात्मक बात है, पर वह गाँव कहाँ है भारतवर्ष में कि वह पहले पति से गवने के पहले इतना मिलती है (रोमांस भी भुना लिया !) कि गर्भवती हो जाती है। यदि यह सब पुराना है, तो मोबाइल कहाँ था तब ? और नया है, तो इतना सब कहाँ है? दोनो ही अतिवाद है। इसकी ज़रूरत न सच को थी, न कथा को । फिर विधवा हो जाने पर जो यातनाएं दी जाती हैं, वे तो किसी भी दृष्टि से कतई बर्दाश्त के काबिल नहीं। हमारा समाज आज के लिए इस सफेद झूठ व एकदम ग़ैरज़रूरी यातनाओं को देखता है, वही आश्चर्यजनक है। और अब एक बुद्धिजीवी पत्रकार से इसकी पैरोकारी तो जले पर नमक ही है। लगता है कि कमाऊ मीडिया के कुएं में पडी भाँग का नशा पूरे समुद्र पर तारी है। पूरा घर उस यातना के खिलाफ़ है और एक बूढी माँ सबकुछ किये जा रही है। कहाँ है ऐसी माँ ? और है, तो क्यों है अलकाजी ? वह पुरखों की बनायी व्यवस्था का वास्ता देती रहती है, जो तब भी इतनी क्रूर न थी। इसका सही रूप इतिहास के गवाक्ष से दिखाने वाली ‘राव साहेब’ फिल्म (जयवंत दळ्वी के नाटक ‘बैरिस्टर’ पर आधारित) में देखा जा सकता है। ऐसा सब और-और भी बहुत कुछ है...पर अभी बस इतना ही। अब कुछ विमर्श देखें... सीरियल का आज मतलब कि हर अच्छे-बुरे को इतना बढा-चढा कर दिखाया जाये कि दर्शक गदगद होकर, गलदश्रु होकर, चमत्कृत होकर... याने चाहे जैसे... बस, देखे। उनकी टी.आर.पी. बढे। विज्ञापन मिलें। सब कमायें-खायें। बनाने में तो व्यापारी घुस ही आये हैं मीडिया में, करने वालों को भी मोहजाल में फँसे जमाना हो गया। वरना बालिकाबधू के मुख्य चरित्र एनएसडी के हैं – एक सरोकारपरक संस्थान से प्रशिक्षित । दोनो बेटे तो अपेक्षाकृत नये एनएसडियन हैं, उनसे क्या पूछना, पर आधुनिक हिन्दी रगमंच में अभिनय की वृहत्रयी में शुमार उस जमाने की एनएसडी अभिनेत्री सुरेखा सीकरीजी, जो स्वयं सारी गल्दराजी की शीर्ष् (दादी) बनी मौजूद हैं, से आख़िरी बार पूछने का मन होता है – ‘दाग़ेदिल ग़र नज़र नहीं आता, बू भी क्या चाराग़र नहीं आती...’!! ख़ैर, इनका तो फ़ायदा हो रहा है। तमाम नाटकों के बावजूद इतनी अपार लोकप्रियता सुरेखाजी को कभी नहीं मिली। ‘लाडो...’ की अम्मा बनी मेघना भी एनएसडी की है और फूले न समा रही होगी कि जो मुकाम सुरेखाजी को जीवन के आखिरी पडाव पर मिला, उसे पहले चरण में ही मिल गया। महिमा मीडिया के ज़माने की ! लेकिन अख़बारों में इसकी स्तुति करने वालों को क्या मिल रहा है? मैं नहीं जानता कि सदन मे उस सांसद (शरद यादव – जे.डी.य़ू.) ने क्यों यह सवाल उठाया। क्या राजनीति है इसके पीछे? बकौल अलकाजी इस सीरियल पर और भी कई तरह के संकट आये। विरोध हुए। बन्द करने की कोशिशें हुईं... वो सब उन्हें सुनियोजित साज़िशों के परिणाम लगते हैं। इस अन्दरूनी बात का भी मुझे पता नहीं, लेकिन चाहे जैसे – ग़लती से ही सही, एक सही सवाल उठा तो सही ! अब उस पर कुछ सप्रमाण व तर्कसम्मत न कहकर सदिच्छा या अपनी निहित पसन्द को थोपकर उस सवाल को उलझाने का क्या मतलब है? और यदि सीरियल में से वे बातें निकालकर बतायी जायें, जिससे शिक्षा, सरोकार, सकारात्मक बदलाव... आदि होते हों, तो मैं अवश्य लाभान्वित और उपकृत महसूस करूँगा...। * * * * सम्पर्क- ‘नीलकण्ठ’, एन.एस. रोड नं.-5, विलेपार्ले-पश्चिम, मुम्बई- 400056 फोन- 022-26101987/ 26163215. मो. 09869355103

Saturday 20 June, 2009

हबीब तनवीर को एक श्रद्धांजलि भारतीय रंगकर्म से भारतीयता का जाना ... - सत्यदेव त्रिपाठी - हबीब तनवीर का जाना अनपेक्षित न था, पर 8जून, 2009 को यह ख़बर एक आघात की तरह लगी। मन से उठी ‘हाय’ शब्दों में यूँ निकली – ‘आज भारतीय रंगकर्म से भारतीयता चली गयी...’। जी हाँ, उनके हर नाटक को देखते हुए इस बात का गहरा अहसास होता था कि हम सच्चे अर्थों में एक भारतीय नाटक देख रहे हैं। इसका एक बडा कारण यह है कि हिन्दी के बाकियों में यह अहसास प्राय: नहीं होता या कभी-कभार होता है। मराठी-बँगला आदि में प्राय़: होता है – बहुत कुछ भाषा के कारण भी। किंतु हबीब साहब में हर क्षण महसूस होता है कि ‘ये है भारतीय नाटक...’। वे संस्कृत के क्लासिक (मृच्छकटिकम, मुद्राराक्षस, वेणीसंहार) करें या शेक्सपीयर (मिड समर नाइट ड्रीम- कामदेव का अपना, वसंत ऋतु का सपना) करें, आप को नहीं बताया जाये या आपने वह न पढा हो, तो कतई नहीं जान पायेंगे। क्योंकि हबीब साहब के नाटक शैली-शिल्प, विधान-वितान, भाव-भाषा, तमीज़-अन्दाज़, गीत-संगीत... हर कुछ में याने सर से पाँव तक इस कदर खाँटी भारतीय होते हैं कि भारतीयता को परिभाषित करते हैं। उसे देखकर भारतीयता के निकष निर्धारित किये जा सकते हैं। और हबीब साहब ने यह भारतीय रसायन तब अपनाया, जब इप्टा से लेकर बाल नाट्य, रायपुर-अलीगढ से लेकर मुम्बई-दिल्ली और रेडियो-फिल्म से लेकर राडा (रॉयल अकैडेमी ऑफ़ ड्रैमेटिक आर्ट) के प्रशिक्षण तथा योरप के तमाम स्थलों के थियेटर व कला का अनुभव-अर्जन कर चुके थे। इस सबके बाद हुआ यूँ कि वे रायपुर गये थे अपनों से मिलने-जुलने और वहीं अपने बचपन के स्कूल में ‘नाचा’ की एक प्रस्तुति देखने का मौका मिल गया। विदेश में थियेटर के अनुभव के बाद जब उन्होंने उन कलाकारों की सहज-प्राकृतिक कला देखी और तो इलहाम की तरह पाया कि यही असली रंगमंच है। तय किया कि इन्हीं के साथ अपनी शैली में थियेटर करना है। वहीं से छह कलाकारों को लेकर गये। यह फैसला मामूली न था। पर बात अंतस से निकली थी। ऐसे ही उन्होंने राडा के प्रशिक्षण में भी किया था। जहाँ जाने के लिए सब लोग तरसते हैं, उसे उन्होंने उस प्रतिष्ठित संस्थान व छात्रवृत्ति देने वाले भारतीय दूतावास आदि सबकी नाराज़गी के बावजूद एक साल बाद छोड दिया था। क्यों? उन्हीं के शब्दों में सुनिए – ‘यदि मैं यहाँ और अधिक रुकता हूँ, तो एक अभिनेता के रूप में आडम्बरपूर्ण और अस्वाभाविक हो जाऊँगा। मैं अंग्रेजी में नहीं, वरन अपनी भाषा में अपनी रंग सक्रियता को जारी रखने के लिए वापस जाऊँगा। यहाँ प्रयुक्त होने वाले नियम और सिद्धांत मेरी भाषा में और मेरे देश में काम नहीं आयेंगे’। यही बात ब्रेख़्त को लेकर भी है। ब्रेख़्त इन्हें पसन्द हैं। प्रवास के दौरान उन्हें ख़ास तौर पर समझने गये थे। उनसे प्रभावित हैं। पर वही कि अन्धानुकरण पूर्वक नहीं, ब्रेख़्त को अपने देश-काल की तरह भारतीय मुहावरे में ढालकर लेने के हामी हैं। और ऐसा हुआ भी, वरना एडिनबरा नाट्योत्सव में ‘चरनदासचोर’ देखकर कोई समीक्षक कैसे कहता – ‘लोकनृत्य और गीतों से सजी इस प्रस्तुति में संस्कृत परम्परा और ब्रेख़्त का अद्भुत समन्वय है’। याने भारतीयता का यह जज़्बा शुरू से ही सवार था, जिसने ऐसा फैसला कराया। इस निश्चय के साथ उन्होंने ‘नया थियेटर’ की स्थापना की। और बस, वही खाँटी माटी उनकी पहचान बनी, ख़ासियत बनी। उन्हीं ठेंठ गँवईं कलाकारों के साथ वे आजीवन काम करते रहे। अपनी भाषा को उन्होंने जड से उठाया - हिन्दी नहीं, छत्तीसगढी। सूरदास ने ब्रज भाषा को राष्ट्रीय भाषा बना दिया था और कहना अत्योक्ति न होगी कि हबीब तनवीर ने छत्तीससगढी को रंगमंच की राष्ट्रीय भाषा तो बनाया ही, अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी उसका लोहा मनवाया। जब हिन्दी तक न बोल सकने वाले कलाकारों व एक अंचल की भाषा में बने नाटकों – चरनदासचोर, माटी की गाडी, मिर्ज़ा शोहरत, बहादुर कलारिन आदि...- को लेकर राडा की उसी धरती पर गये, तो जो कह कर राडा को छोडा था, मानो वह सिद्ध ही कर दिखाया। फ़रमाइश कर-करके ‘चरनदास चोर’ के शोज़ वहाँ कराये गये। छठें दशक से शुरू हुए उनके विशुद्ध भारतीय रंगकर्म ने भूमंडलीकरण व बाज़ारवाद के दौर भी देखे और वैसे ही पसन्द किये जाते रहे – बल्कि बढते रहे। और इन नये विकास से लुभाये, इसकी आड में अपनी भारतीयता व अपने लोक को भुलाकर भागने वाले आज के युग को मानो हबीब साहब बता गये हों कि भाई, सही अर्थों में लोकल हुए बिना ग्लोबल नहीं हुआ जा सकता। इसे लोग ‘लोक नाट्यकर्म’ कहते हैं, पर हबीब साहब इसे लोक के आगे का रंगकर्म मानते हैं। हालाँकि इस पॉप्युलर टर्म (लोक) के सामने उनका यह कहना माना नहीं जा सका - चलन में नहीं आया। यह हस्र साहित्य की उसी आँचलिकता वाला ही है, जो आज़ादी मिलने के बाद ‘गाँवों की ओर चलो’ की समझ के साथ आयी थी। वे लोग तो कहते रहे कि इसके दृश्य आँचलिक भले हों, दृष्टि आँचलिक नहीं है, पर वह माना कहाँ गया। हबीब साहब की रंगदृष्टि व प्रयोग-सृष्टि को ऐसे संकीर्ण दायरे में नहीं डाला जा सका, तो यह श्रेय उनके रंगकर्म की व्यापकता को है और सुपरिणाम थियेटर जगत की सही समझ का - नाट्य-समीक्षा के अभाव के बावजूद। किंतु हबीब साहब के इस लोक की ओर आने को उसी युग-प्रवाह के साथ जोडकर ही देखा जाना चाहिए। नाम भी वही उस दौर वाला है – ‘नयी कविता, नयी कहानी’ और ‘नया थियेटर’। लोक के आगे की बात यथार्थ और प्रतिबद्धता की है। ‘लोक’ उनका माध्यम है - शैली-शिल्प है। पर इतना पुरज़ोर व इसीलिए इतना पुरअसर है कि लोग उसी में उलझकर रह जाते हैं। उसी को उनके नाटकों का मक़्सद मान लेते हैं। हबीब साहब का ‘इससे आगे जाकर असली मक़सद तक पहुँचने’ का आह्वान इसी यथार्थ व प्रतिबद्धता को समझने का है। पर लोग भी क्या करें ? यह विधान बना ही ऐसा सटीक, मौलिक व मौजूँ है कि आदमी का उलझ कर रह जाना लाज़मी है – ‘दिया है दिल अग़र उसको, बशर है, क्या कहिए ’ ! लेकिन जो अध्येता उससे आगे जाते हैं, वे साफ़-साफ़ देख पाते हैं कि हबीब साहब का नाट्यकर्म बामपंथी सोच से संवलित है। इप्टा के साथ उस दौर में रहना भी इसका प्रमाण है। यह इस हद तक भी है कि इनके रंगकर्म को ‘पोलिटिकल थियेटर’ कहने वाले ऐसे लोग भी हैं, जिनकी आस्था मार्क्सवाद-विरोधी है या जो हबीब साहब के नाट्यकर्म के समक्ष बौने होने लगते हैं। परंतु इनकी दृष्टिबेधकता और जैसा कि कहा गया, ग़ज़ब के रंगबोध से बने सृजन से ऐसे कथनों का संहार अपनेआप होता गया...। यह सृजन मुख्य धारा से किनारे कर दिये गये लोगों की पीडा का चितेरा है। जाति-पाँति, धर्म-सम्प्रदाय, धनी-ग़रीब...जैसे भेदों को खत्म करके समानता व स्वतंत्रता की स्थापना पर आधारित मनुष्यता का पक्षधर है। और ये मूल्य किसी लेबल के बिना भी हमारे लोक में मौजूद रहे हैं और हैं। इसी को हबीबजी ने भारतीयता के पर्याय के रूप में अपनाया व साधा है। लोगों तक पहुँचाया है, जो बख़ूबी पहुँचा भी है। यह इनके यहाँ प्राय: शोक या यंत्रणा बनकर नहीं आता, व्यंग्य-विद्रूप-विनोद या विरोध बनकर आता है। ध्यातव्य है कि ये वृत्तियां भी हमारे लोक की हैं। सच्ची भारतीयता हर ज़ोर-जुल्म से विरोध में बसती है। और हबीब साहब की जुझारू वृत्ति किसी से छिपी नहीं। उनकी रंगयात्रा में विरोधों से जूझने के जितने पडाव है, उतने शांति-सुक़ून के नहीं हैं। शायद इसी में उन्हें शांति-सुकून मिला करता था। वरना ‘पोंगा पंडित’ के ख़िलाफ़ जो कुछ हुआ, कोई दूसरा होता, तो टूट भी सकता था। या तो नाटक बन्द कर देता या समझौता कर लेता। लेकिन हबीब साहब अस्सी पार की उम्र में भी और साम्प्रदायिक शक्तियों के सत्ता-काल में भी इससे विचलित हुए बिना इस राह पर चलते रहे। और चुपचाप नहीं, बल्कि हर प्रतिरोध पर रिऐक्ट करते रहे। प्रतिरोधी शक्तियों के पास समझ होती, तो वे देख पाते कि यदि पोंगा पंडित में ब्राह्मणी लालच व कर्मकाण्डी ढ्कोसलों की पोल खोली गयी है (और यह तो तमाम हिन्दू लेखकों ने भी कितनी बार खोली है- मोटेराम की डायरी, प्रायश्चित्त..आदि), तो मुस्लिम कट्टरपंथियों को और अधिक बेनक़ाब करने वाला ‘जिस लाहौर नहिं देख्या’ भी तो उन्होंने खेला है, जिसमें सीधा व सीरियस आक्रमण है - पोंगा पंडित जैसा हास्य-विनोद नहीं। विवाद ज्यादा हुए इसी धार्मिक मामले को लेकर, पर हबीब साहब के यहाँ व्यवस्था पर चोट करने का जज़्बा ज्यादा है, लेकिन इस पर बवाल करने का अब रवाज़ नहीं रहा – शायद अपने बेपर्द होने के डर से व्यवस्थापक ही नहीं होने देते। ‘सडक’ जैसे नाटक इस थीम के सिरमौर हैं, पर मैं यहाँ एक दुर्लभ उदाहरण देना चाहूँगा, जो एक सम्पूर्ण नाट्यकर्मी हबीब साहब के शायर रूप का है। कहने की बात नहीं कि वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता के कार्यकाल में यह मामूली-सी लगने वाली कविता सुनायी थी। आप स्वयं देखें उसकी मार्मिकता...। शीर्षक है- ‘रामनाथ’ – “रामनाथ ने जीवन पाया साठ साल या इकसठ साल रामनाथ ने जीवन में कपडे पहने कुल छह सौ गज पगडी पाँच, जूते पन्द्रह रामनाथ ने अपने जीवन में कुल सौ मन चावल खाया सब्जी दस मन, फाके किये अनगिनत, शराब पी दो सौ बोतल अजी पूजा की दो हजार बार रामनाथ ने जीवन में धरती नापी कुल जुमला पैंसठ हजार मील सोया पन्द्रह साल। उसके जीवन में आयीं, बीवी के सिवा, कुल पाँच औरतें एक के साथ पचास की उम्र में प्यार किया और प्यार किया नौ साल सत्तर फुट कटवाये बाल और सत्रह फुट नाख़ून रुपया कमाया दस हजार या ग्यारह कुछ रुपया मित्रों को दिया, कुछ मन्दिर को और छोडा कुल आठ रुपये उन्नीस पैसे का कर्ज़... ...बस, यह गिनती रामनाथ का जीवन है इसमें शामिल नहीं चिता की लकडी, तेल, कफ़न, तिरही का भोजन रामनाथ बहुत हँसमुख था उसने पाया एक संतुष्ट-सुखी जीवन चोरी कभी नहीं की- कभी कभार कह दिया अलबत्त बीवी से झूठ एक च्यूँटी भी नहीं मारी – गाली दी दो-तीन महीने में एक आध बच्चे छोडे सात भूल चुके हैं गाँव के सब लोग अब उसकी हर बात रामनाथ ‘नया थियेटर’ है तो लोकाधारित, उसी से निर्मित; लेकिन उसे ‘पेशेवर रंगमंच’ (प्रोफेशनल थियेटर) बनाने की कल्पना की हबीब साहब ने – शायद रंगमंच को पेशेवर बनाने का यह आइडिया हिन्दी थियेटर में पहली बार तभी आया। लोक और पेशा में मूलत: अंतर्विरोध रहा है (मैं आज की बात नहीं कर रहा हूँ, जब सब कुछ ही पेशे तो क्या बाज़ार में तब्दील हो गया है), पर ऐसे अंतर्विरोधों को साधना ही तनवीर साहब को ‘हबीब’ रहा है और उन्होंने इसे भी करके दिखा दिया। तात्पर्य यह नहीं, कि पेशे के रूप में सफल कर गये, बल्कि यह कि अप्रोच पेशेवर हो गयी। उदाहरण के लिए जिस भी नाटक को जब कहिए, प्रस्तुत कर देने के लिए तैयार। इसकी सिद्धि के लिए जो सबसे बडा परिवर्तन किया हबीब साहब ने, वह प्रस्तुति को सेट के तामझाम से मुक्ति का है, जिससे कि जब जहाँ चाहो, खेल दो। इसे तकनीकी भाषा में ‘प्रोसिनियम से निकाल कर जनता के बीच में ला देना भी कहते हैं। वे कहा करते थे कि कहानी को कहने में जितने भी अवरोध आते हैं, उसे बेधडक निकाल दो। दीवारों के बीच न कला पनपती, न कलाकार। लेकिन अब इस चर्चा को यहाँ रोक देना होगा, वरना जिस थ्रियेट्रिकल गैल में जाना पडेगा, उसके लिए यह स्थल नहीं है। हाँ, तो इसी सब के चलते माटी की गाडी, आग़रे बाजार, चरनदास चोर, बहादुर कलारिन, गाँव क नाँव ससुरार मोर नाँव दमाद, ...आदि जाने कितने ही नाटक हमेशा चलते रहे – फिर-फिर बनते रहे...। ‘आगरे बाज़ार’ पहले एक लघु रूपक था। फिर पूर्ण नाटक बन गया। ‘जिस लाहौर नहिं देख्या’ को ‘डब्ल्यू एस एफ, मुम्बई’ में मैंने 45 मिनट का देखा और पूरा देख चुके मुझे भी वह अधूरा या सम्पादित नहीं लगा, तो पहली बार देखने वालों को क्या लगा होगा ! इस नाटक को मैंने समय-समय पर घटी घटनाओं के मुताबिक इम्प्रोवाइज़ करके करते देखा है और मूल संवेदना पर कोई फ़र्क़ नहीं पडता। सो, पेशेवर से मूलत: मेरा मतलब यह था। हाँ, दो-ढाई दर्जन कलाकारों को नौकरी देना तथा समूह के लिए स्थल व संसाधन मुहय्या करा लेना तो है, पर वह मामला ज्यादा सरकारी है। यहाँ विवेच्य नहीं। हाँ, इसे लेकर प्रवाद भी कम न थे, जिसमें अफ़वाह ही ज्यादा रही, जिसका प्रमाण शायद आगे मिल सकें...। अपनी इन थियेट्रिकल मान्यताओं तथा उसे साधने वाले रंगशिल्प व उसे साकार करने वाले उन ठेंठ कलाकारों को हबीब साहब ने कैसे-कैसे साधा... आदि, पर ढेरों सामग्री मौजूद है– लोगों की लिखी, ख़ुद उनकी लिखी व तमाम साक्षात्कारों मे उनकी कही। जैसे वे जमकर नाटक करते, उसी तरह जमकर लिखते-बतियाते भी। पर मेरा ही दुर्भाग्य रहा कि कई अवसरों के बावजूद कोई बातचीत तैयार न हो पायी। पहले अवसर का जिक्र रोचक होगा... मुझे गोवा (विश्वविद्यालय) में गये कुछ ही दिन हुए थे कि पंजिम के कलाअकादमी में ‘माटी की गाडी’ का शो होने की ख़बर मिली। दिल बल्लियों उछलने लगा... मुम्बई छोडने के कुछ ही दिनों पहले ‘पृथ्वी नाट्योत्सव’ में ‘आग़रे बाज़ार’ देखकर गया था- ख़ुमारी उतरने का नाम नहीं ले रही थी। वहाँ छोटी जगह में ऐसे अवसर यूँ भी कम आते हैं और फुर्सत कुछ ज्यादा रहती है। सो, झटपट एक इंटरव्यू की योजना बना डाली। उनके आते ही जाकर मिला और शो के तुरत बाद का समय भी मिल गया। औपचारिक अभिवादन एवं सदिच्छा-संवाद के अलावा यह मेरी पहली मुलाकात थी। ज़ाहिर है, बेहद उत्साहित था। शो देखकर और ‘चार्ज्ड’ हो गया। हबीब साहब ने ‘राजा का साला’ की भूमिका की थी। मज़ा आ गया था। नेपथ्य में पहुंचा और पाँच मिनट में प्रशंसकों के जाने के बाद हबीब साहब ने बातचीत शुरू करने का इशारा किया और गहन मेकअप को स्वयं उतारते हुए सारे प्रश्न सुनने की इच्छा जाहिर की। मैंने एक-एक सवाल पढना शुरू किया- वे स्वीकार में सिर हिलाते रहे...कि 3-4 सवालों के बाद एक सवाल आ गया, जो मामला थोडे ही दिनों पहले ‘संडेमेल’ में पढने को मिला था – ‘आपके और रामचन्द्र देशमुख के छत्तीसगढी रंगकर्म मे क्या अंतर है और किन मुद्दों पर आप दोनो में मतभेद है’ ? उनका तेवर थोडा-सा बदला, प्रतिप्रश्न आया – तो, आप यह भी लिखने वाले हैं? मैं ज्यादा कुछ भाँप न पाया और उसी रौ में कह गया- आप जो जवाब देंगे, उसे ज़रूर लिखूँगा... बस, वे झटके से यूँ खडे हुए कि मैं डर ही गया। दरवाज़े का रास्ता दिखाते हुए गरजे- ‘निकल जाइए आप। मुझे कोई बात नहीं करनी आप से...’। सबकुछ अचानक बदल गया। मैं चकित, अवाक...मामला समझने की कोशिश कर रहा था और वे न जाने क्या-क्या तडकते जा रहे थे। आवाज सुनकर मोनिकाजी (उनकी पत्नी) आयीं। उन्हें शांत किया। मुझसे पूछा कि मैंने क्या कह दिया...। बताया कि उन्हें हाई बीपी है। फिर पानी आया। शायद चाय भी पी गयी। उनका मेकअप उतरा। हम किसी और केबिन में बैठे। बातें हुईं। पता लगा कि रामचन्द्र देशमुख लोकनाट्य के नाम पर कमाने-खाने का धन्धा करते हैं और अख़बारों वग़ैरह में अपने को हबीब साहब के प्रतिस्पर्धी के रूप में प्रोजेक्ट करते हैं, जो इन्हें बहुत नाग़वार लगता है। कायदे से बात पूरी भी हुई, पर मैं लिख न सका- शायद जिस बेक़ायदे से शुरुआत हुई, उससे मन बिदक गया– इतना बडा कलाकार इतनी-सी बात पर इतना बेक़ाबू कैसे हो सकता है, का दंश सालता रहा। अन्दर से बिदकना ऐसा रहा कि लेंस का कवर खोले बिना ही मैंने फोटोज़ ले डाले थे, जिसका पता घर जाकर लगा। यह 18 साल पहले की बात है, वरना ऐसा न होता...। पर उनके काम इतना मुतासिर रहा कि नाटक देखते रहा। गोवा के बाद मैं पूना चला गया। वहाँ ‘थियेटर अकादमी’ के फेस्टिवल में भेंट हुई। उन्होंने पहचाना नहीं, मैं क्यों बताता? अच्छा ही लगा- कटु स्मृति नहीं रही। याद आता है कि ‘बाल गन्धर्व’ में सुबह खुली बातचीत थी। बंसी कौल भी मंच पर थे- नाटक लेकर आये थे। दोनो से बातचीत शायद महेश एलकुंचवारजी कर रहे थे। कोई गीत गाने की फ़रमाइश हुई। बंसी भाई बगली काट गये, तो हबीब साहब से विनम्रतावश कहा गया कि आप अपने किसी कलाकार से गवा दीजिए। मुझे उनके शब्द याद हैं। खींचकर बोले थे– ‘क्यूँकर? तक़ाज़ा मुझसे हुआ है’। और अपना वो प्रिय ‘पॉप्युलर’ गीत सुनाया था- ‘सास गारी देवे, ननद मुँह लेवे, देवर बाबू मोर...सइंया गारी देवे, परोसी ग़म लेवे...’। और इन तमाम रूपों से समझ में आया ‘प्रतिभाएं जुनूनी हुआ ही करती हैं’ (कबीर के लिए द्विवेदीजी की कही बात)। नये सिरे से बात करने की इच्छा बलवती होती रही...। आख़िरस, भोपाल जाकर बात करने का समय लिया, पर दुर्दैव ने पीछा नहीं छोडा। निश्चित तारीख़ से एक सप्ताह पहले ख़बर आयी - उसी वक्त हबीब साहब को कहीं जाना पड गया और बात रह गयी। भेंट हुई 2003-4 में जाकर इप्टा, रायगढ के नाट्योत्सव में, जो हबीब साहब पर ही केन्द्रित था। मैं ख़ास प्रेक्षक के रूप में आमंत्रित था। छह दिन साथ रहने का मौका मिल रहा था। पहुँच गया। फिर तो उठना-बैठना, खाना-पीना साथ होता। तमाम बातें होतीं। रिहर्सल देखते। बस, रात को सोने भर नज़रों से दूर रहते। उस वक्त वे 80 साल के पार थे और उनकी सक्रियता हैरत में डालने वाली थी। 16-17 घंटे काम करते। स्मृति ग़ज़ब की...! सब कुछ याद। किसी भी विषय पर एकदम अपडेट। ढेरों बातें होती रहीं, पर जानबूझकर छिट-फुट ही। क्योंकि आयोजकों ने विधिवत साक्षात्कार का एक सत्र रखा था; जिसमें तमाम श्रोताओं के बीच मुझे उनसे बात करनी थी। वह समय आया भी, बातें खूब जमकर हुईं। हबीब साहब अपने स्वभाव व सुभाव के मुताबिक खुलकर बोले। याद में बस गये एक उदाहरण का मोह-संवरण नहीं कर पा रहा हूँ...। उनके व्यस्त कार्यक्रम को सुनते-सुनते बीच में चुहल के अन्दाज़ में पूछ बैठा था- इतने कामों के बीच शादी का समय कैसे निकाल पाये? उन्होंने तपाक से कहा - मोनिकाजी के पक्ष वालों का दबाव बढता जा रहा था। मेरे काम कम होने का नाम नहीं ले रहे थे। एक दिन घेराव जैसा कर लिया। बस, मैंने कैलेंडर खोला। बताया कि देखो – ये-ये तारीखें शो की हैं। ये-ये रिहर्सलों की हैं। इस-इस दिन मीटिंग है। ये व्याख्यान है। ये वर्कशॉप है...अच्छा लो, ये एक डेट खाली है। उस दिन करना है, तो जहाँ कहो, मैं आ जाऊँ। ये नहीं हो पाया, तो मैं कह नहीं सकता कि कितने दिनों लग जायेंगे कोई खाली दिन पाने में। चुनांचे उसी दिन हो गयी। बस ! मैंने चुहल आगे बढा दी – फिर हनीमून कैसे मना? हबीब साहब उतने ही तपाक से– वो तो आज तक नहीं मना। ...ग़रज़ ये कि ऐसी बहुत-सी बातें हुई थीं। लगभग दो घंटे रेकॉर्डिंग लाइव कैमरॉ में दर्ज़ हुई। हबीब साहब से टुकडों मे हुई ढेरों बातों को मिलाकर सोचा था कि बढिया-सी स्टोरी बनाऊँगा। उनकी कार्य- पद्धति देखी थी। अपनी टीम के साथ उनके सलूक का चश्मदीद हुआ था। बडा सुन रखा था कि शोषण करते हैं। उनसे नौकरों की तरह पेश आते हैं। इसीलिए मैंने लगभग सभी सदस्यों से बातें की थीं। पहले कोई तैयार न हुआ। शायद हबीब साहब के कानों तक बात पहुँची। उन्होंने कुछ कहा होगा। फिर सबने बातें कीं - नगिन (उनकी एकमात्र संतान) ने भी। कुछ ने कम, कुछ ने ज्यादा। पता लगा कि सभी कलाकार ख़ुश हैं। मानते हैं कि ‘साहब’ न होते, तो उन्हें कौन पूछता? हबीब साहब सबकी निजी समस्याओं से भी वाक़िफ़ रहते हैं। उन्हें हल भी करते हैं। हर तरह की बातें उनसे होती हैं। एक मज़ेदार बात मालूम हुई कि रामचरन निर्मल ने एक व्यंग्य-विनोदभरी कविता लिखी है हबीब साहब पर। किसी को न बताने की शर्त पर उसने मुझे सुनायी और मैंने लिख ली। बाद में पता लगा कि सभी जानते हैं। सभी सुन चुके हैं। पता हबीब साहब को भी है- शायद सुनी भी हो। तो क्या निर्मल मुझे बना रहा था या परीक्षा ले रहा था। इस वक़्त मैंने खोजी, तो फाइल में दबी पडी मिल गयी। आप सुनना चाहेंगे? क्या छिपाना, जब सभी जानते हैं ! असली मज़ा आयेगा, उन्हें जानने वालों को। “होकर कौतूहल के बस में/ गया एक दिन मैं सर्कस में भै बिस्मय के काम अनोखे/ देखे बहु व्यायाम अनोखे एक बडा-सा बन्दर आया/उसने झट्पट लैम्प जलाया डट कुर्सी पर पुस्तक खोली/आ तबतक मैना यूँ बोली- हजिर है हुज़ूर का घोडा/चौंक उठाया उसने कोडा आया तब तक एक बछेडा/ चढ बन्दर ने उसको फेरा टेटू ने भी किया सपाटा/टट्टर फाँदी चक्कर काटा फिर बन्दर कुर्सी पर बैठा/ मुँह में चुरुट दबाकर ऐंठा माचिस लेकर उसे जलाया/ और धुआँ भी खूब उडाया ले उसकी अधजली सलाई/ टेटू ने यों तोप चलायी (इसके आगे के संकेत मुझे भी समझ में नहीं आते, पर पढ लें...) एक मनुष्य अंत में आया/ पकडे हुए सिंह को लाया मनुष्य-सिंह की देख लडाई/ की मैंने इस भाँति बडाई किसे साहसी जन डरता है/ नर नाहर को वश करता है मेरा एक मिंत्र तब बोला/भाई, तू भी है बस भोला यह सिंही का जना हुआ है/ किंतु स्यार अब बना हुआ है यह पिंजडे में बन्द रहा है/ नहीं कभी स्वच्छन्द रहा है छोटे से यह पकडा आया/ मार-मार कर गया सिखाया” बता दूँ अपने दुर्भाग्य की बात। जब मुम्बई आने के काफी दिनों बाद तक लाइव कैमरे की रेकॉर्डिग नहीं आयी, उषा व अजय आठले को फोन किया। पता लगा कि वह पूरी रेकॉर्डिग किसी हादसे का शिकार होकर नष्ट हो गयी। मन तडप कर रह गया। यह कह-कहकर संतोष किया कि ‘कुछ इच्छाएँ अधूरी रह जायें, तो जीवन में आस्था बनी रहती है। अब वे यादें ही जिन्दा हैं...। ख़ैर, उनकी टीम में ऐसा हँसी-खुशी, हास्य-विनोद का माहौल देखा। लेकिन अपने जन्मप्रदेश के जनसामान्य में हबीब के प्रति जो सम्मान देखा, वह रोमांचक है। एक शाम ‘मिलनयात्रा’ निकली। यह आयोजन भी भारतीयता की उसी परम्परा का अंग है, जिसके पोषण का हामी हबीबजी का पूरा रंगकर्म है। आगे-आगे हबीबसाहब पैदल ही...। साथ में ग्रुप के कलाकार, रंगोत्सव के आयोजक व हमसब और पीछे बढता हुआ हुजूम। रास्तों के दोनो तरफ लोग फूल-मालाएँ लिए खडे...अपने प्रिय कलाकार को अपने हाथों देने-पहनाने को आतुर। और ये जुटाये हुए लोग नहीं थे. जैसे राजनेताओं के लिए आजकल होते हैं। इनमें सच का प्यार उमड रहा था। होंठ प्रस्फुरित हो रहे थे, आँखें चमक रही थीं…। हर गाँव में छोटा-छोटा मंच सजा था। मंच पर पहुँचते हबीब साहब पर पुष्प-वर्षा होती। गाँव के प्रधान-पंच वग़ैरह स्वागत करते - चन्द शब्द हबीब साहब से सुनना चाहते। वे बोलते भी, पर अपने को व्यक्त करने के हजारों तरीकों से लैस इतने महान कलाकार को अभिव्यक्ति के ऐसे संकट से गुज़रते हुए देखना भी एक अनोखा अनुभव था। दो महाकवियों के शब्दों में – ‘प्रेम न हृदय समात’ और इसीलिए ‘कण्ठ: स्तम्भित वाष्पवृत्ति’ वाला हाल हो गया था। यह किसी भी कलाकार के लिए सबसे बडा गौरव है। यह देखकर मुझे वे टिप्पणियां एकदम बकवास लगीं, जिनमें ‘हबीब अपने क्षेत्र में जा नहीं सकते। उन्होंने वहाँ के लिए कुछ नहीं किया...’ वग़ैरह कहा जाता है। ऐसा कहने वाले लोग ही अब उनके जाने के बाद छत्तीसगढ की सरकार से उनका स्मारक बनाने के लिए प्रच्छन्न ग़ुज़ारिशें कर रहे हैं। वह तो बनेगा ही और उसके भी निहित मक़सद होंगे – ठीक कहने वालों की ही तरह । पर उससे क्या होगा? एक सरकारी खानापूर्त्ति। गान्धीजी तक की तमाम मूर्त्तियाँ गन्दगी से भरी पडी हैं और फाइल से चलायमान सरकार के पास सफाई तक का बजट नहीं है। प्रेमचन्द, ग़ालिब, निराला... सबका यही हाल है। पर ऐसी अज़ीम शख़्सियतों के स्मारक वहीं होते हैं – लोगों के दिलों में। और वह बन चुका है, जो कभी धूमिल तक न होगा। ‘हबीब साहब ने अपने थियेटर की कोई परम्परा नहीं छोडी’, ‘नया थियेटर’ का कोई समर्थ वारिस नहीं’... जैसी आलोचनाओं के जवाब भी इसी सत्य में निहित हैं। ये परम्परायें अवाम की यादों में अक्षुण्ण रह्ती हैं। और कालिदास की परम्परा में दूसरे कालिदास पैदा नहीं होते। वे हर ज़हीन कवि की कविताओं में समाये होते हैं। ग़ालिब में ख़ुशरो कहाँ दिखते हैं? पर उन्होंने ख़ुद कहा है- ‘पीते हैं धोके ख़ुशरु-ए-शीरीं सुख़न के पाँव’। इसी तरह हबीब साहब की परम्परा व ‘नया थियेटर’ के वारिस ढेरों कलाकारों के कलाकर्म में समाये हैं। व्यक्त हो रहे हैं। उन्हें देखने के लिए नज़र चाहिए – शौक़-ए-दीदार अग़र है, तो नज़र पैदा कर’ - हबीब साहब (के नाटक) की तरह ‘देख रहे हैं नैंन’...। * * * सम्पर्क- ‘नीलकण्ठ’, एन.एस. रोड नं.-5, विलेपार्ले (पश्चिम), मुम्बई- 400056 फोन- 022-26101987, मो.- 09819722077/09869355103 ई मेल- satyadevtripathi@gmail.com