Thursday 22 April, 2010

किसके लिए जीते हैं...

मेरी बडी बिटिया जब नन्हीं-सी थी, कोई भी सामान लाते, तो छोटी बहन व भाइयों को दे देती थी। हम कहीं जाते, तो उन दोनो को एक मिनट भी न छोडती - माँ जैसी ‘केयर’ करती। आज वो बडे पद पर काम करती है। आठ-नौ लाख का सालाना पैकेज पाती है। 10-12 लाख का पैकेज दामाद पाता है। पिछले दिनो वह गर्भ से थी। मैंने पूछा था- ‘छुट्टी कब से ले रही हो’ ? ‘वही दो-ढाई महीने पहले से’ ... उसने कहा था। सारी योजना सही बनी है, का विश्वास था ही। जब दो-ढाई महीने रह गये, तो पूछने पर बताया - सोचती हूँ, इधर ज्यादा काम कर लूँ, ताकि बाद में बच्चे के साथ ज्यादा रह सकूँ...। मुझे तब और अच्छा लगा था…। लेकिन यह क्या... वो तो काम करती ही गयी। मेरे पूछने पर बता देती – ‘सब ठीक तो है। डॉक्टर भी ऑफिस जाने में कुछ हर्ज नहीं बता रहे है’। जब प्रसूति को चन्द दिन ही रह गये और वह ऑफिस जाती... मैं पूरे दिन बेहद परेशान रहता। कैसे-कैसे ख्याल मन में आते...कभी फोन या एसएमएस करके हालचाल लेते रहता, पर क्या कहता इतने पढे-लिखे-कमाते बच्चों से ! फिर, कोई विचार भी तो नहीं होता अपने पास - सिवाय आशंका, चिंता के...। अन्त में जिस शुक्रवार को आखिरी दिन काम करके वह आयी - शनि-रवि-सोम को छुट्टी थी। और मंगल को मैं एक सुन्दर से नाती का नाना बन गया। उस खुशी में भूल ही गया और जब बाद में याद आया, तो फूले न समाया कि बिटिया ने एक भी दिन छुट्टी नहीं ली...। नर्सिंग होम से घर आने पर खुशियों का मौसम था...। ऐसी बहार पहली बार घर में थी... समझ में आया कि बेटे-बेटी से ज्यादा खुशी पोते-नाती के पैदा होने पर होती है। मैं कुछ अतिरिक्त ही खुशी में रहा होऊंगा, जब उस दिन संयोग से सभी बच्चे जुटे थे और मैंने पूछा था - बेटा, अब क्या प्रोग्रैम है आगे का …? बिटिया ने बताया - ‘मैं तो रेस्ट करूंगी छुट्टी भर - कोई पाँच महीने...। पर प्रभु को दो ऑफ़र हैं - एक तो यू.एस. का है और दूसरा बंगलोर का...। देखो, कौन सा ज्वाइन करता है...’। ‘तो यह बाहर रहेगा ? तुम बच्चे को लेकर अकेली रहोगी’? आश्चर्य छिप न सका होगा मेरा ! तभी उसने आगे कहा ...‘पॉप, इसमें इतना क्यों सरप्राइज़ लग रहा है आप को ? क्या मैं नहीं सँभाल सकती...! उसे जाना तो होगा ही... इतना अच्छा मौका इतनी जल्दी नहीं मिलता...’। फिर शायद मेरे चेहरे पर उदासी आ गयी हो, जिसे भाँपकर ही जैसे सांत्वना देती हुई बोली - ‘ज्यादा करके बंगलोर ही ज्वाइन करेगा और बीच-बीच में आ जाया करेगा...’। इस योजना में कोई ‘बदलाव नहीं होगा’, को जानते तथा ‘नहीं होना चाहिए’, को किसी हद तक मानते हुए भी मेरे मुँह से जाने कैसे निकल गया -“बेटा, ऑफ़र तो शायद फिर मिल जाये, पर यह बच्चा फिर नहीं होगा - दो महीने का , चार, छह, आठ व दस महीनों का...। क्या इसे लेकर तुम लोगों का मन उस तरह नहीं होता, जैसे तुम लोगों को लेकर हमारा हुआ करता था - कि उसके हर भाव, हर बदलाव, हर विकास, हर हुलास... को देखें, सँजोयें...अपनी निधि बना लें...” ....‘पॉप, आप भी क्या...मैं हूँ ना...’ - बीच में ही बोल पडी बिटिया - ‘लाइव कैमरा ले लेंगे... रोज़-रोज़ के फ़ोटोज़ मेल करते रहेंगे... अब वो ज़माना थोडे न रहा पॉप कि सामने रहने...’ और भी बहुत कुछ कहती रही वह - बडी शालीनता से, बडी समझदारी से.... चाहता तो था कि कुछ कहूँ - समझाऊँ – “दोनो मिलकर डेढ-पौने दो लाख महीने का कमा ही रहे हो...। क्या कम है तीन प्राणियों के लिए...! अब इस ऑफर से दो-ढाई लाख कमाने लगोगे...फिर अगला ऑफर आयेगा... फिर आयेगा... आता ही रहेगा...। फिर जीयोगे कब...? पर हिम्मत न पडी सब कहने की...। उसके ‘पॉप’ का बोध सर पे तारी हो रहा था...। सो, बुदबुदाहट यूँ निकली -‘किसके लिए जीते हैं, किसके लिए ‘खपते’ हैं.... बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया..’। ...और इसे सुननेवाला भी मैं अकेला ही रहा.... ....क्योंकि तब तक मौका पाकर बिटिया भी खिसक चुकी थी...बाकी सब तो पहले ही कमरे से निकल चले थे...। --- --- ---