Sunday 13 July, 2008

पुराने फॉर्मूलों को खींचतानकर बनी ‘महबूबा’ का क्या हो...? सफ़ाई देखिए कि करन (अजय देवगन) सपने में लडकी को देखता है और उसे पेंटिग्स में हू-ब-हू उतार लेता है !! स्टुडियो (सॉरी, बैठक है) भर रखा है.। फिर कमाल देखिए कि वह लडकी उसी शहर में है। तब मह्बूबा-महबूबा (फिल्म के नाम को साकार करते हुए) गाते-गाते पीछा करता है, जिसे देखकर लडकी कहती है - ‘नाटकबाज़ी का यह फ़ॉर्मूला बहुत पुराना हो गया है’। निर्देशक अफ़ज़ल खान यह संवाद सुन लेते, तो समझ जाते कि पूरी फिल्लम ही ऐसा बासी फ़ॉर्मूला है- एक फूल दो माली याने प्रेम त्रिकोण का.. बस, दो बातें फ़ॉर्मूले से अलग हैं...1- पहला माली श्रवण धारीवाल (संजय दत्त) प्रेमी नहीं, ‘हर रात इक नया हो बदन’ का व्यापारी है और मानता है कि हर औरत बिकाऊ होती है- चाहे पैसों की कीमत से या वादे की और इसी रौ में पैसे से हार जाने के बाद वादे से फाँसता है और मँगनी के बाद ही भावुक बनाकर रात बिताकर उसके तमाचों का जवाब देकर निकाल देता है...। 2- दोनो माली सगे भाई हैं, जिसका पता दर्शकों को तब लगता है, जब करन अपनी महबूबा को राजी करके शादी कराने अपने घर जाता है, जहाँ ‘हम आपके हैं कौन’ का पूरा बडजात्या-परिवार - रीमा लागू, बिन्दु, हिमानी शिवपुरी..आदि के साथ - तैयार है, जिनके बीच पहला माली ग़म ग़लत करते हुए शराब में ग़र्क हुआ पडा है - ज़ाहिर है उसी फूल के लिए पछ्तावा ...। लेकिन फूल एक ही है - मनीषा कोइराला ; इसका पता चेहरा देखने के कारण दर्शकों को है, पर फूल तो वर्षा से पायल हो गयी है,, इसलिए दोनो मालियों को पता नहीं है। जिस कौमार्य (वर्जिनिटी) की कीमत जीवन में रोज़ घटती जा रही है, उसका भाव फिल्मों में इतना बढा कि कौमार्य-भंग के बाद लडकी नाम तक बदल लेती हैं - गोया एक जीवन ही खत्म हो गया हो...? आख़िर हिन्दी फिल्में बालिग़ कब होंगी ? अब आधी फिल्म में यह भर बचा था कि फूल किस माली का होता है ! पलडा भारी है अजय का, पर हिन्दी फिल्मों में पलडे का वजन देखने पर विश्वास होता, तो हम उठकर चले न आते - ‘हमें क्या बुरा था मरना, ग़र ऐतबार होता’ ! और इस बेऐतबारी के चलते इतनी ग़लाज़त सहनी पडी कि उफ़...भाइयों की लँगोटिया यारी, अपनी-अपनी प्रेमिका की सुन्दरता को लेकर बाज़ियाँ, फ़ालतू के दृश्य व पिटे-पिटाये संवाद, चाय व नाच-गान..यानी ढेरों फिल्मी लटके-झटके...। सबसे जिन्दा बचे, तो देखा- प्रेमिका को त्यागने के लिए दोनो भाई तैयार। बक़ौल मनीषा ‘भाइयों का ऐसा प्यार कहीं नहीं देखा’ और फिर वही बात, जो ‘निक़ाह’ में इससे बहुत-बहुत ज़ोरदार ढंग से सलमा आगा कह चुकी है- मेरी जिन्दगी का फैसला और मुझे बिना बताये ? क्योंकि ‘निक़ाह’ को कुछ कहना था और ‘महबूबा’ को कुछ कहने का इल्म तक नहीं...। तमाम फ़ॉर्मूलों को निभाना तक नहीं आया अफ़ज़ल को- 7-8 साल तक न जाने क्या होता रहा..। बस, सुफल यही कि संजय को ज़रा चुस्त देखना भला लगा। मनीषा अपने रूप की तरह ही सधी-सँवरी है। अजय देवगन ने बहुत कोशिश की, पर पानी पीटने से कहीं रास्ता