Saturday 24 May, 2008

- धूम धडाका

हास्य का अभिनय और अभिनय का हास्य... जो बाबा ने अपने ‘मानस’ के बारे में विनम्रता वश कहा था - ‘भनिति मोर सब गुन रहित, बिस्व बिदित गुन एक’, वही कठोर सत्य है - शशि रंजन लिखित-निर्देशित फिल्म ‘धूम धडाका’ का। बाबा में वह सत्य है -‘ एहि महँ रघुपति नाम उदारा’, और इसमें है -हास्य। और यही इस फिल्म की ख़ासियत है - हास्य के मुताबिक भरा पडा है अभिनय और अभिनय के मुताबिक बनता-निखरता हास्य। कहना होगा कि इस कला का समूचा इसमें समाहित है। ईर्ष्या, होड, प्रेम, दोस्ती, लालच, छल, फ़रेब, साज़िश, गुण्डई, संवेदना, सज़ा, त्याग ...आदि सारे भावों, सभी प्रवृत्तियों को हास्य में ढाला गया है और हास्य-अभिनय के प्राय: सभी प्रकारों-रूपों को साधा गया है, जो बख़ूबी सधे हैं। हास्य अभिनय का शास्त्र बन गयी है फिल्म, जिसकी बारीकियों (जो आम अमझ की नहीं हैं) को न समझने वालों के लिए यह ऊटपटाँग हरकत होगी। यूं तो सभी सातो-आठो कलाकारों ने अच्छा निभाया है, पर अनुपम खेर का कहना ही क्या ! मुंगीलाल के रूप में वही हीरो हैं - हास्य के हीरो जैसे। इस भूमिका में सबसे अधिक विविधता उनकी क्षमता के मुताबिक ही रची गयी होगी। उन्होंने आंगिक (देह के) अभिनय का मानक वाचिकता (बोलने) के सपोर्ट से साधा है, तो सतीश कौशिक ने वाचिक का जादू बिखेरने में आंगिक का सहाय लिया है। दोनो की कला में एनएसडी की ट्रेनिंग का निखार खुलकर बोलता है, जिसके अभाव में इंड्स्ट्री के मशहूर कॉमेडियन सतीश शाह सिमट कर रह गये हैं। क्या तभी दोस्त की मह्त्त्वपूर्ण भूमिका में दबे-दबे रूप में फिट कर दिये गये हैं? गुलशन ग्रोवर का खल पात्र चाह कर भी हास्य ला न सका। भूमिका में सम्भावना थी या नहीं, यह तो अनुपम जैसों को करना होता, तो पता लगता...। हाँ, गुलशन के बेटे बने कलाकार ने हास्य के कैरिकेचर रूप का अच्छा प्रदर्शन किया है। दोनो प्रेमी जोडे भी ठीक ही हैं। गेस्ट जैसी भूमिका में जैकी श्राफ से हास्य तो क्या, कुछ नहीं कराया गया है। परंतु कोफ्त होती है टेलीविज़न की ‘सोनपरी’ दीपशिखा को देखकर, जो फिल्मों में ढिबरी बनकर कारिख ही कारिख फेंक रही हैं। हास्य के अभिनय व अभिनय के हास्य की योजना न होती, तो कहानी तो ऐक्शन-सस्पेंस वाली हिंसक थीम की थी, पर मार-धाड भी इतनी अहिंसक, शालीन व विनोदी हो सकती है, के कायापलट फिल्मायन में शशि रंजन की विरल निर्देशन-कला का कमाल देखा जा सकता है। दृश्य-निर्माण में हास्य खिलता है, ध्वनि-संयोजन में गमकता है। पहनावे व सजावट इसमें चार-चाँद लगाते हैं। याने सबकुछ हास्यानुकूल है। परंतु यह भी उतना ही उल्लेख्य है कि इस सुनियोजित हास्य के इरादे ने कहानी को अजानी गलियों में भटकाया है, गोल-गोल घुमाया है। फिल्मांकन की स्थितियों, स्थलों, घटनाओं को काफ़ी ऊलजलूल बनाया हैं । गाने सब ठूँसे हैं- बस, सारी फालतू दृश्यावली के बावजूद होली वाला गीत पुराने बोल व पारम्परिक धुन (राठौड का इसमें क्या है?)में गाये होली वाले को छोडकर। याने किसी बात में कोई तर्क व वजह खोजना व्यर्थ है। और थोडी देर में ही यह समझ में आ जाता है। जो इस नीयत को समझकर देखेंगे, अभिनय का मज़ा ले सकेंगे, वरना... हाँ, बैठे रह गये, तो जान पायेंगे कि बचपन में ही बम्ब्लास्ट में घायल पिता के बिना इलाज मरने की वेदना से आहत अनुपम खेर ने अलीबाग में एक अस्पताल खोलने का संकल्प सँजोया, जो अंड्ररवर्ल्ड में जाकर कीव गयी सारी करतूतों के बावजूद बना रहा और ऐन समय पर सरगना जैकी ने मंजूरी दी। पैसे के लोभ में जाली वारिस बनकर आये चारो युवा-युवतियों ने भी सच का साथ दिया। याने भौतिकता के सारे लोभ-लाभ व अपराध की दुनिया की हैवानियत के बीच मनुष्यता अभी एकदम मरी नहीं है... का मेसेज... कितना सम्भव, पर प्रयास है, तो सही...। हास्य की फिल्मी बिक्री में संवेदना का यह फ्री गिफ्ट है। सो, फिल्म अपने शौकीनो से ये तवक्को रखती है कि ‘शौक-ए-दीदार अगर है, तो नज़र पैदा कर..’.। -सत्यदेव त्रिपाठी