Sunday 4 May, 2008

“ह्ल्ला बोला तो, पर ह्ल्ला हुआ नहीं...”

“ह्ल्ला बोला तो, पर ह्ल्ला हुआ नहीं...” राजकुमार संतोषी ने ‘हल्ला बोल’ में भी विषय तो उठाया सामाजिक सरोकार का, जिसमें हमेशा की तरह सभी भ्रष्ट तत्त्वों के खिलाफ एक व्यक्ति का विरोध है। मामला भी मंत्री व स्मगलर के बेटे द्वारा एक लडकी के क़त्ल का...और आदतन पुन: डाले वैसे ही जनता लुभाऊ दृश्य.। ‘घायल’ तथा ‘दामिनी’ के सन्नी देवल जैसे ही करायी हीरोगीरी अजय देवगन से भी। पर इस बार लगता है कि पहले की तरह इन जोडों का घुलामिला फ़ार्मूला उस तरह चलने वाला नहीं- पहले दिन ही हाल में जनता ने ठेंगे दिखा दिये... शायद कारण बना समाजिकता वाली बात पर ज़ोर देता प्रचार और उसे सिद्ध करता नाम- ‘ह्ल्ला बोल’, जो सफदर हाशमी जैसे आन्दोलंनकारी से जुडा है। उसका वैसा ही इस्तेमाल भी करने की कोशिश हुई है। मीडिया में आने के बाद नाट्यकर्म को तिलांजलि देने वाले पंकजकपूर को कुछ तो संतोष हुआ होगा- डाकू से प्रतिबद्ध रंगकर्मी बनने वाले की भूमिका करके- पर्दे पर ही सही। उन्हें भी खूब मौके दिये गये हैं ऐक्टिंग के, जिसे जमाया भी है पंकज ने। लेकिन ऐसी कलात्मक रुचियों से जनता का वास्ता तोडने का काम भी तो फिल्मों ने ही किया है। मुख्य घटना के रूप में ‘जसैका लाल ह्त्याकांड’ को रखा गया है...। नर्मदा आन्दोलन में शामिल होने के बाद आमिर की फिल्मों के बहिष्कार का मामला भी स्टार के सरोकार के साथ जोड दिया गया है...और साथ ही नाटक से फिल्म-स्टार बनने में नायक अशफ़ाकुल्ला से समीर खान ही नहीं होता, उसका सारा वजूद ही बदल जाता है। फिर स्टार की कई रुटीन बेईमानियां शामिल होती हैं, जिनके चलते माँ-पिता-गुरु उसे छोड जाते हैं । पत्नी सिर्फ नाम के लिए घर में रह जाती है। स्टार्डम व अय्याशी के मोह में फँसे नायक को संवेदनशील समाजधर्मी बनाने में आधी फिल्म निकल जाती है। फिर उसे नष्ट करने में खल पात्र मिलकर वही सब हथकंडे अपनाते हैँ, जो हर दूसरी फिल्म में आम तौर पर होते हैं। इस प्रकार इतने घोल मिल गये हैं कि किसी का भी अपेक्षित असर नहीं बन पाता और फिल्म भी काफी लंबी हो गयी है। आधी के बाद भ्रष्टता को खत्म करने के लिए कोर्ट व आम जनता को ‘दामिनी’ की तरह ही मिलाया गया है, पर इस बार जनता की भागीदारी के प्रतिशत का ज्यादा होना बेहतर आयोजन अवश्य है, जो आज का एकमेव विकल्प भी है। पर इसमें ‘रंग दे बसंती’ व ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ जैसा असर नहीं बनता। वैसे ‘फ़न’ का नितांत अभाव भी फ़िल्म के सूखेपन का जिम्मेदार है। मीडिया के दोनो पक्षों का बखूबी आना, फिर भी, सराहनीय हैं। संगीत सामान्य है- ‘ह्ल्ला बोल’ तक में अपेक्षित असर नहीं बनता। अच्छे संवाद बेहतर भी हो सकते थे। यादगार हैं कुछेक दृश्य- खानापूर्ति वाली भूमिका में भी विद्या बालन के प्रेस वाला, अजय की खल पात्रों से समक्षता- ख़ासकर मंत्री के विदेशी कार्पेट को गीला करने व उसके गृह्प्रवेश पर बेबाकी वाला और पंकज कपूर का प्रेस वालों के बहाने पूरे समाज की तटस्थता को फटकारने वाला...आदि । और इन सबके बीच ऐसा बहुत कुछ निकलकर आता है, जिसके लिए यह फिल्म पहली फ़ुर्सत में ही एक बार देख लेने लायक तो है ही...। - सत्यदेव त्रिपाठी

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