Sunday 4 May, 2008

बनाविंग ‘टशन’ बिग पैसा और मिक्स भेजा का काम...

पर देखिइंग ‘टशन’ तो सच्ची - कलेजा का काम...। घबरायें ना आप, यही हिन्दी है यशराज बैनर की विनयकृष्ण आचार्य निर्देशित फिल्म ‘टशन’ की । यह बंबइया डॉन बने एक कानपुरिये ‘भैयाजी’ (अनिल कपूर) के मिक्सचर किरदार की भाषा है। उसे वे अमिताभ बच्चन की ‘दीवार’ के मन्दिर वाले हिट संवाद को अपनी दिलीपकुमार वाली नकल शैली में बोलकर और पक्की खिचडी बना देते हैं। किसी विदेशी प्रतिनिधि मंडल से बात करने के लिये सीखी गयी अंग्रेजी से इसे जोडकर कहानी के लिये सही बनाने की कोशिश की गयी है। इधर की फ़िल्मों से यह तो पता चल ही गया है कि अब एक हीरो के साथ-साथ रोमैंटिक या सस्पेंस..जैसी किसी एक तरह की कहानी से काम नहीं चलता, पर ‘टशन’ बता रही है कि अब एक भाषा से भी काम न चलेगा। तो शायद ‘हिंग्लिश’ में ‘जिन्दी’ की तरह ‘फ़िन्दी’ चले। पूरी फ़िल्म के बाद ‘टशन’ का मतलब तो समझ में आ जाता है, पर इसे समझाने लायक एक शब्द समझ में नहीं आ पाता। ख़ैर, भाषा व कहानी की तरह ही सारे चरित्र भी मिक्सचर। भैयाजी को अंग्रेजी सिखाने वाला सैफ़ अली ख़ान तो अंग्रेजी-हिन्दी दोनो अच्छी बोलता है, पर किरदार में पूरी मिलावट- कॉल सेंटर चलाने वाले छोकरीबाज़ से फ़िदा होने वाले प्रेमी के बाद फ़िर त्यागी-बलिदानी..। और हर रूप में सही लाइन के अभिनय के बावजूद सैफ़ का सही उपयोग हुआ नहीं। शो लूट लेने वाला किरदार है- कानपुर के लोकल गुण्डे से नेशनल भाई बनने की फ़िराक़ में मुम्बई आये बच्चन पाण्डे बने अक्षय कुमार का, जो आता है तो है भैयाजी के 25 करोड लेकर फ़रार करीना-सैफ़ को खोजने, पर पा जाता है अपनी बचपन की प्रेमिका गुडिया (करीना कपूर) को...। गुण्डे तक तो शुद्ध हिन्दी बोलता है, पर प्रेमी होने के बाद फ़िन्दी पर उतर आता है। नहीं उतरती फ़िन्दी पर करीना, लेकिन सबसे ज्यादा मिक्स्चर उसी का बना है। पता ही नहीं चलता कि वह गुडिया है या जादू की पुडिया...। सब कुछ करती तो है यह कुडी- बस, ठीकठाक, लेकिन लोगों को याद रह जायेगा उसका बिकनी वाला तथा अन्य कई रूपों में उघडा बदन। यह दिखने से अधिक वीभत्स है- पूरी फ़िल्म यही दिखाने की निर्देशकीय मंशा का दिखना। छोटे से कस्बे की तेज-तर्रार लडकी भैयाजी के जाल में फँसी है। सैफ़ से प्रेम करके साथ भागने की योजना बनाती है। 25 करोड लेकर अकेली उड जाती है। अकेले ही वह पैसे इतनी जगह रख देती है कि उसे वापस लेने में अक्षय-सैफ़ के साथ पूरी फ़िल्म बन जाती है। और इस दौरान क्या-क्या नहीं होता... नौटंकी.. अंग्रेजी फ़िल्म में फिन्दी गाना- वैसा ही मिलावटी मेकअप...पुलिस से मुठ्भेड में मारधाड...याने सबकुछ...। पर कुछ मौलिक नहीं। हर चरित्र, हर दृश्य, हर फ़्रेम में नकल साफ़। पर यही सब फिल्म चलने के लिए आज जरूरी माना जाता है। सब ऊलजलूल होता है। इसका सबको पता होता है। पर जांबूझकर बनाया व पूरे होशोहवास में देखा जाता है। और अंत में सब कुछ एक बदले की बात सिद्ध होता है। भैयाजी को मैट्रिक्स टाइप लडाई में अक्षय व सैफ़ की मदद से मारकर करीना अपने बाबा की ह्त्या का बदला ले लेती है। बस, कहानी का कायापलट कर देने वाले एक-दो ऐसे मोड आते हैं.. कुछेक ऐसे संवाद आ जाते हैं, जो एक अच्छे कलारूप का लुत्फ़ दे जाते हैं, पर इतने के लिए ढाई घंटे सरफ़ा करना खल जाता है। - सत्यदेव त्रिपाठी

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