Saturday 2 August, 2008

99 तमाचे और एक चुम्बन की ‘अगली और पगली’ ... सचिन खोत की फ़न्नी, पर अच्छा ‘टाइमपास’ फिल्म ‘अगली और पगली’ के अंत में पर्दे पर लिखा पाया जाता है - ‘99 स्लैप्स ऐण्ड वन किस’। पूरी फिल्म हम देखते रहे थे कि बात बात पर या बिना बात बात की बात पर हिरोइन मल्लिका शेरावत ज़ोरदार थप्पड मारती रही है हीरो रनवीर शौरी को। सो, हमने 99 मान लिया। और अपने जन्म दिन पर होटेल में झटके, पर धडल्ले से गालों पर चूमते देखा था, सो हिसाब बराबर समझ कर उठने ही चले कि दिखायी पडा- मल्लिका-रनवीर का होंठों में गाढे चुम्बन का दृश्य... और ख्याल आया कि ओह, हम भी कहाँ के दाना ठहरे कि ‘ख़्वाहिश-ए-मल्लिका’ को रुसवा करने चले थे- भला गालों पर ‘पुच्च’ कर देना भी कोई मलिका-ए-चुम्बन का चूमना हुआ...। ग़रज़ ये कि इज्जत रख ली खोत ने। दर्शकों का भी कुछ पैसा वसूल हुआ। चुम्बन चुलबुलाते निकले...। और काफ़ी पैसा वसूल हुआ मल्लिका के ‘आइटम नाच-गान’ में - दृश्यांकन (कैमरा व नियोजन) तो पूरी फिल्म का ही अच्छा है। फिर मल्लिका का भरपूर इस्तेमाल भी और भावन नैंनसुख भी। यूँ अभिनय भी कम नहीं। पगली की ख़िताब को अगली ने बनावटी गम्भीरता से अच्छा साकार किया - इसे अंग्रेजी का ‘अगली’ (जो सोचकर हम भी गये थे) कतई न समझें। और जब पगली है ही वह, तो प्रेमी को पेटीकोट पहनाकर बिना सीट की सायकल पर शहर में घुमाने जैसा सनक तथा ख़ुद भी अंतर्वस्त्रों को कपडों के ऊपर पहनकर कॉलेज जाने जैसा बोल्ड...क्या-क्या सब कराती-करती है कि हँसें भी और सर भी पीटें । पर इसी सबकी तो फिल्म है, जिसे आप जाके ही देखें कि खुद को मालिक व प्रेमी को गुलाम बनाकर कैसे रखती है ! फिर हीरो प्रेमी कबीर कैसे उसे सहर्ष निभाता है और दिखाता है कि मज़बूरन कर रहा है। इसी दोराहे के बीच उभरता है रनवीर के अभिनय का गुर कि बन और जम जाती है हीरो जैसी भरपूर साख़...। लेकिन इसी पागलपन व गुलामी के बीच बनता है वह विचित्र प्रेम भी, जिसके लिए चचा ग़ालिब ने कहा था- ‘यही है आज़माना, तो सताना किसको कहते हैं ; अदू के हो लिये जब तुम, तो मेरा इम्तहाँ क्यों हो’। बस, यहाँ आज़माने-सताने के इम्तहान में प्रेमी पास भी होता है और कोई अदू (दुश्मन) भी नहीं है। था तो पूर्व प्रेमी, पर मर चुका है और उसी ग़म में शराब पीने व रेल से कटकर मरने के लिए तैयार कुकहू टकराती है कबीर से...। याने मुख़्तसर से फ़ुटेज में पूरी मनोवैज्ञानिकता भी समा उठी है। निर्देशक की मज़बूत मनभावन पकड ऐसी कि सब होने में मज़ेदार नाटकीयता भी और हास्य में शालीन होती मनमानियाँ भी...। फिल्म शुरू होने के साथ हीरो निकला था जिस आँटी से मिलने, उससे मिल पाता है फिल्म के समाप्त होने के समय और यह नाटकीय यात्रा भी बन जाती है लाजवाब फ़न का सिला । बस, आँटी में ज़ीनत अमान ज़ाया होती हैं और बिना बताये लडकी के रात-रात भर ग़ायब होने को शराब पी-पीकर गिरने-सहने में बाप बने टीनू आनन्द भी...। पर कुछ अच्छा बनने के लिए किसी को तो बलि होना ही पडता है...। -सत्यदेव त्रिपाठी