Thursday 8 May, 2008

माँ इसे देवी कहती ...! दूसरी किस्त

माँ इसे देवी कहती ...! दूसरी किस्त देवी की पढाई भी रंग लाने लगी। उसने बी. ए. पास किया - युनिवर्सिटी में टॉप करके । अब तो पास-पडोस व नात-हित ने भी मान लिया कि देवी में कुछ तो खास है...। वरना जब से वह ससुराल से लौटी थी, किसी को भी उसके लिए अन्दर से सहानुभूति नहीं रह गयी थी। फिर तो एम.ए. में दाखिला लिया और सभी अध्यापकों की प्रिय हो चली...। उसका एक सर्कल बनने लगा, जिसमें धनी घरों की दो-चार लडकियां देवी की सबसे अच्छी दोस्त बनीं। पर कहना होगा कि चाल के अपने छोटे-से घर व केराना की दुकान जैसे पेशे से कतई शर्मिन्दा नहीं होती देवी..। सबको घर ले आती । आने वाले भी मुतासिर होते कि इतनी असुविधाओं के बीच भी देवी इतना अच्छा पढ लेती है। तथा ऊँची सोसाइटी वालों के साथ भी बाहर उतनी ही सहजता से रह लेती है। बस, मुझे खटकता यही कि पिता की बीमारी व मौत के बाद की अपनी करनी सबको बताती जरूर - टुकडे-टुकडे में, पर पूरी। और अपने को ‘देवी’ मानने की बात का तडका ऐसा लगाती, जो लोगों को विनोद भी लगता, मगर सच भी । परंतु यह मुझे बडा फूहड लगता...। इस सरनाम स्थिति में जब एम.ए. के पहले वर्ष की परीक्षा के दिन आये, तो देवी पहली बार अपनी एक अमीर सहेली अर्पणा के घर रहकर पढाई करने गयी - बेशक़ मुझे वहाँ पहले ले जाकर दिखा देने के बाद ही। परीक्षा के बाद वहाँ से आयी, तो कन्धे पर एक झोला लटकाए हुए । बताया अर्पणा के भाई ने दिया है - ‘शबनम’ कह्ते हैं। तभी से शबनम उसके कन्धे का स्थायी शृंगार बन गया। फिर तो भिन्न-भिन्न रंगों-डिज़ाइनों के कई-कई शबनम भेंट में आने लगे...। फिर उनमें रखे कई तरह के उपहार भी...। कोई किसी सहेली ने दिया, कोई किसी सहेली के भाई ने...फिर कोई और किसी मित्र ने...। न तो देवी बताते अघाती, न ही माँ सुनते...। तमाम सहेलियों-दोस्तों के फोन आने लगे...कुछ घर भी आते। देवी की तारीफ़ों के खूब पुल बाँधते...। और माँ गदगदायमान होकर कहती - ‘देवी तो सच ही देवी है’। ज़ाहिर होता गया कि उसके दोस्तों का सर्कल बढरहा है - बेतरह...। क्या बेतरतीब भी ? झोले में दिखता कि ढेर सारी दुनिया-जहान की चीज़ें भरी हैं...। और आज उसी झोले के सामान ने ही अचानक प्रकट होकर यह सब सोचने पर मज़बूर कर दिया...। पछता भी रहा हूँ कि क्यों उठा लिया मोबाइल...? बजकर बन्द हो जाने क्यों नहीं दिया...? या शुरू में ही क्यों नहीं रोका इस उपहार परम्परा को...? आखिर देवी तो कभी भेंट देती नहीं किसी को...। फिर इस इकतरफ़ा गिफ़्ट का मतलब... ? अजीब तब भी लगा था, जब एम.ए. दूसरे वर्ष की परीक्षा के दिनों वह अर्पणा के यहाँ न जाकर सविता के यहाँ जाने की बात करने लगी - ‘वो मान नहीं रही है। कहती है, इस बार मेरे ही घर आना होगा। दोनो साथ ही पढेंगे..’। सविता के पति का होटेल का करोबार है। देवी वहाँ जाती तो पहले भी थी, पर रहने जाने के पहले वहाँ भी मुझे ले गयी। याद है, मैंने रास्ते में कहा था - ‘दीदी, तुम दोस्तों के मामले में बडी ‘लकी’ हो’। वह मुस्करायी, फिर बोली - ‘अच्छी पढाई की सुविधा मिल जा रही है, तब तक माँग बनाये रखनी है’...। और मैं चौंक पडा था - यह तो बाज़ार की भाषा बोल रही है...। पर बातों की रौ में बात ‘आयी-गयी’ हो गयी। सविता का घर बडा आलीशान । देखकर पहला ख्याल यही मन में आया - यहाँ एकाध महीने रहने के बाद देवी उस चाल वाली अपनी खोली में रह कैसे पायेगी ! पर मानना पडेगा कि वहाँ से लौटने के बाद अपनी खोली में और अधिक मन से ही रहती दिखी...। लेकिन अब धडक खुल गयी और धीरे-धीरे सहेलियों के यहाँ रुकना अक्सर होने लगा। कभी भी बस, फोन घुमा देती - ‘माई, हम फलानी किहाँ हई। आज यहीं रुकि जाब... हाँ ई ना मानति हईं...अच्छा..’ ? लेकिन कई बार मुझे यह भी लगता कि देवी यहाँ-वहाँ जाने का मौका ख़ुद ही निकालती है। हाँ, छाप ऐसी छोडती है कि जाना-रुकना पड रहा है ! इसी तरह एक-एक उपहार किस-किसने दिया, सभी दोस्तों को यूँ बताती कि मुझे लगता - जैसे सामने वाले को उकसा रही है उपहार देने के लिए...। और यह सब दिनो-दिन बढता ही रहा ...। हाँ, रिज़ल्ट आया, तो उसने टॉप किया एम.ए. में भी । बधाइयों-प्रशंसाओं के ढेरों फोन आये., अख़बार में फोटो भी छपा। अब तो हमारी चाल की स्टार ही हो गयी देवी - सभी लड्कियों के लिये उदाहरण, आदर्श । चाल की सभी लडकियाँ ‘देवी दीदी, देवी दीदी’ कहती उसके इर्द-गिर्द घिरी रहने लगीं, जो मुझे बहुत अच्छा लगता...। अब ‘देवी’ नाम सार्थक होने लगा था...। लेकिन जल्दी ही यह भी होने लगा कि लडकियाँ अक्सर इंतज़ार कर-करके थक जातीं और देवी नहीं मिलती...। कभी जब मिल जाती, तो दस-पाँच मिनट भर के लिए ही। और उस दौरान भे यही बताती सुनी जाती कि किस तरह किसी कविगोष्ठी, किसी कहानी-पाठ, किसी सेमिनार...आदि आयोजन में रोक ली गयी...। और माँ यह सब कान पारकर सुनती.. गर्व से भर उठती। पर न जाने क्यों, मुझे इतना बाहर रहना अच्छा न लगता। रोज़-रोज़ इतने आयोजनों पर शंका हो उठती..। मेरे भाव ताड ही गयी होगी , तभी तो एक दिन कहा उसने - ‘सामतवादी पुरुष-परम्परा के मेरे भाई को मेरा यह सब भा नहीं रहा न...! लेकिन परेशान न होओ मेरे भाई, धीरे-धीरे समझ जओगे कि मैं तनिक भी ग़लत नहीं हूँ...’। और आज समझा, तो घिन आ रही है, पर तब तो शरमा ही गया था...। फिर तो देवी बाहर भी जाने लगी - नेशनल आयोजनों में...। कभी हवाई जहाज से भी बुलाया जाता । दो दिन के लिए कहकर जाती और कभी सप्ताह भर भी लगा देती...। वहीं से फोन करती - यहाँ एक बडी ऐतिहासिक जगह है। आयोजक हमें कार से वहाँ पिकनिक कराना चाह रहे हैं। तो, दो-तीन दिन बाद आती हूँ’। और ऐसा ही कुछ अक्सर होता...। सुनकर मैं उदास हो जाता, पर माँ बडे अभिमान भरे उछाह से कहती - ‘का फिकिर करते हो बचवा, तोहरी बहन तो सचमुच की देवी है। किसी बडे पुण्य से पैदा हुई है इस घर में। देखते रहो - केतना आगे जाती है...! तोहरे बाबूजी की बानी - ‘ देवी खान्दान का नाम रोशन करेगी’ - झूठ थोडे न होगी ‘! समापन किस्त.पढिए - कल...

माँ इसे ‘देवी’ कहती... !!

माँ इसे ‘देवी’ कहती... !! - सत्यदेव त्रिपाठी पहली किस्त- अचानक चाल में जोरों का झगडा शुरू हुआ....और अपनी आदत के मुताबिक देवी वहाँ पहुंच गयी। मैं अकेला रह गया कमरे में...। आजकल यूं भी देवी कम ही मिलती है घर पर। सहित्य- कला आदि के तमाम कामों में बिज़ी हो गयी है। हमें अच्छा लगता है...। इसलिए अभी थोडा-सा वक्त मिला था, तो उसे भी छोडकर उसका चले जाना कहीं खल गया। मेरी इकलौती बहन है - देवी। मुझसे तीन साल बडी । और मैं भी उसका इकलौता भाई , पर व्यवहार में वह माँ जैसी मेरी केयर करती है। मुझ पर आयी हर मुसीबत को अपने ऊपर ओढ लेना चाहती है... इन्हीं सब ख्यालों में उतरा ही रहा था कि बगल में पडे देवी के झोले में मोबाइल बज उठा... । निकालने चला, तो एक-एक करके चार मोबाइल हाथ आ गये। याद आया कि उसकी सहेली सविता ने एक मोबाइल भेंट किया था...पर दो की जगह ये चार-चार...!!! आश्चर्य के साथ बजने वाला ऑन किया और बिना हेल्लो किये ही सामने से जो सुन पडा...कि ओफ़ ..! हाथ-पैर सुन्न हो गये। गुस्से से सारा बदन जलने लगा। .. वहीं बिस्तर पर पड गया। सामने चार-चार मोबाइल ..जैसे चार-चार साँप - फ़न उटाये ...। बस, देवी का गला ही दिख रहा था मुझे। पंजे कुलबुलाने लगे थे... पर हाय रे लोक-लाज ...और इस वक्त वह लोक के बीच थी !! झगडने वाली दोनो पार्टियों को उपदेश पिला रही होगी - ‘देवी’ जो ठहरी... ! और उसी झोंक में झोला-मोबाइल भूल गयी.. वरना आजकल एक मिनट के लिए भी झोला नहीं छोडती - भेद अब समझा..। वाह री देवी...धन्य है..! हारकर थसमसाया पडा रहा। एक - एक करके दृश्य उभरने लगे... ...असल में ‘देवी’ नाम इसे पिताजी ने दिया था। तब यह 10-12 साल की रही होगी, जब पहली बार इसका कहा सबके ध्यान में आया - ‘आज सपने में मैंने देखा कि गोलू फेल हो गया है’..। और पिताजी ने ‘चुप-चुप, चूप...ऐसा नहीं बोलते। किसी और से मत कहना...’ कहकर चुप करा दिया था। आख़िर गोलू गाँव के सबसे बडे ठाकुर का इकलौता बेटा था। लेकिन रिज़ल्ट आया, तो गोलू सचमुच फ़ेल हो गया। बस, अपनी बेटी में पिताजी की आस्था जमने लगी। उन्हें इस बात का ख्याल भी नहीं आया कि मुम्बई में रहता उनका दामाद भी फ़ेल हो गया है, जिससे बचपन में ही ब्याही गयी थी देवी। फिर पिताजी की ग़वाही में देवी की कई-कई बातें सच होने लगीं। मसलन - सपना देखा कि फ़ला आज मुंबई से आ गये हैं...फलनियां ससुराल से भाग आयी है.. वग़ैरह..। बस, पिताजी कहते सुने गये - इसकी जिह्वा पर तो कोई देवी बैठी हैं। और धीरे-धीरे उसका नाम ही पड गया - ‘देवी’... पिताजी की ‘देवी बिटिया’, माँ की ‘देवी रानी’... और कभी गुस्से में ‘देविया’..। उन्हीं दिनों चाचाजी के साथ बँटवारा हुआ और मुम्बई की एक दुकान पिताजी को मिली। बस, हम मुम्बई आ गये । दुकान ठीकठाक चलने लगी और हम पढने लगे। लेकिन इतने में साल भीतर ही देवी के गवने का समय आ गया और अपनी पढाई के छूटने का मलाल लिये वह ससुराल चली गयी । परंतु चार दिन भी नहीं बीते कि पिताजी को बुलवाकर वापस भी आ गयी। आते ही घोषणा कर दी - ‘अब मैं ससुराल कभी नहीं जाऊंगी...आगे पढाई करूँगी..’। और पिताजी ने देवी के प्रति अपनी आस्था की रौ में इसे भी ‘दैवी विधान’ मानकर मंजूरी दे दी। पूछा तक नहीं कि आख़िर वहाँ हुआ क्या ...। देवी देखने में सुन्दर है। व्यवहार में कुशल है। करने-धरने का गुन-सऊर भी है। सो, इसे लेकर तो कुछ नहीं ही हुआ होगा...। परंतु कोई आज तक न जान सका कि देवी ने ऐसा किया क्यों ? कोई कुछ कह भी न सका - पिताजी का देवी में अखंड विश्वास !! ...धीरे-धीरे यह तय हो गया और सबने मन ही मन मान भी लिया कि देवी अब विवाह नहीं करेगी..। उसने अपनी पढाई जारी कर ली...। दुर्भाग्य से कुछ ही दिनों बाद पिताजी कैंसर की भयावह बीमारी से ग्रस्त पाये गये। पूरा घर बेहाल हो गया। पर देवी खडी हो गयी - चट्टान की तरह...। एक वक्त तो ऐसा ही आया कि उसने इलाज़ के लिए लोगों से घूम-घूमकर पैसे माँगने में भी संकोच नहीं किया। फिर भी हम सब पिताजी को बचा न सके। लेकिन इस दौरान देवी के प्रति वैसा ही भाव माँ के मन में भी उमड आया - जैसा पिता में था। इस दौरान दुकान एकदम बैठ गयी। हम दोनो की पढाई भी छूट गयी। मुझे तो पिता के न रहने पर पढाई छोडकर दुकान सँभालनी ही थी, पर देवी ने भी अपनी पढाई को किनारे करके दुकान को लाइन पर लाने में अपनी जान लडा दी। उतना सब कर पाना अकेले मेरे बस का न था। और दुकान जब ठीकठाक चलने लगी, तो देवी ने फिर से पढाई शुरू की। देवी के इस काम ने मुझे भी उसका गहरा विश्वासु बना दिया, पर माँ-पिता जैसा अन्धविश्वासु नहीं। मैं उसे दीदी ही कह्ता रहा - ‘देवी दीदी’ कभी न कह सका। ....अगली किस्त कल...