Wednesday 19 November, 2008
संवेदनाएं प्रैक्टिकल हो रही हैं...!!
कल एम.ए.-द्वितीय वर्ष की मौखिकी (वाइवा) चल रही थी... एक लडकी आयी। चल नहीं पा रही थी। थोडी देर में अपनी साथी प्राध्यापिकाओं की बातों से समझ में आ गया कि गर्भवती है। ऐसे में मैं हर स्त्री के चेहरे पर ‘कामायनी’ के श्रद्धा वाले वर्णन का सच जाँचने लगता हूँ...। उसका ‘केतकी गर्भ-सा पीला मुख’ तो था, पर ‘आँखों में आलस भरा स्नेह’ नदारद था। इसी तरह ‘कुछ कृशता नयी लजीली-सी’ की जगह ‘अति दुबली दुख की प्रतिमा-सी’ बनी पडी थी...हाँ, ‘कम्पित लतिका-सी लिए देह’ अवश्य साकार दिखी...।
मुझसे रहा न गया। पूछ बैठा- ससुराल के घर से आ रही हो?
उसने ‘ना’ में सिर भर हिलाया।
तो कब आयीं माँ के घर? – मैंने पूछा।
पाँच-छह दिन हुए... के उत्तर के बाद मैं अचानक विनोद के स्वर में पूछ बैठा –‘अच्छा, मायके और ससुराल के जीवन के अंतर पर कुछ बोलो...’
और वह फफक कर रो पडी...। टेबल पर सर टिका कर आँसू पोंछते हुए उसकी सिसकती आवाज निकली- ‘पिताजी लाने गये थे। बहुत झगडा हुआ...। वाइवा तक के लिए आयी हूँ। परसों वापस पहुंचाना है...’।
अब दोनो जीवन का क्या अंतर जानना बचा था !!
विषय पर कुछ बातचीत के बाद वह जाने को उठी। दरवाजे तक गयी कि अचानक मैंने उसे बुलाया और पूछा- ‘यदि कल का वाइवा एक सप्ताह के लिए आगे बढा दिया जाये, तो तुम इतने दिन और मायके रह पाओगी?’
वह एक मिनट खडी सोचती रही और बोली – ‘नहीं सर, जाने दीजिए...। वो लोग ज्यादा ही झगडा करेंगे...। फिर आखिर तो रहना वहीं है – ऐसा कितने दिन करेंगे...?’
स्वीकृति में सर हिलाने के अलावा मेरे पास कोई चारा न था..। वह तो चली गयी...।
पर मुझे वह घटना याद दिला गयी, जहाँ मेरे पास चारा था। पिछले महीने की दीवाली के एक दिन पहले की घटी अपने भाई की बेटी की घटना...।
बेटी को हमने बडे लाड से पाला। एम.ए. तक पढाया। बडे रज-गज से शादी की। लडका अपने ही जिले के शहर में अच्छी नौकरी में है। उम्मीद थी कि शहर में बेटी भी कुछ करेगी। अच्छा जीवन होगा। लेकिन चार भाइयों व पिता के सम्मिलित परिवार का दबाव ऐसा कि बच्ची को पडोसी के घर तक जाने की इजाज़त नहीं। थोडी ही दूर पर उसके साथ 14 सालों तक पढी सहेली की ससुराल है, पर वहाँ जाने या उसे अपने घर बुलाने की मनाही । दो कमरों में दो बच्चों को लेकर सडने पर विवश। कभी कहीं घूमने-फिरने जाने की कोई सूरत नहीं। एक चम्मच तक खरीद नहीं सकते अपनी मर्जी से – फ़िल्म आदि देखने की तो बात ही क्या? घर से पूछना पडता है सबकुछ...।
हर शनिवार की शाम 15 किमी. पर स्थित गाँव जाना ही पडता है – बाइक पर दोनो बच्चों को लेकर। फिर सोम की सुबह वैसे ही आना...। बस, इसके अलावा कहीं कुछ नहीं। हमारे यहाँ तक आने देने में हजार बहाने-बन्दिशें। इस-उस कारण से तीन-तीन, चार-चार साल तक बिदाई नहीं। बेटी पस्त्। आकुल। भाई भी बेकल, पर झगडे और बेटी के पिसने के डर से चुप । मेरे उबाल पर भी भाई के संकोच का ढक्कन।
और इस दीवाली के एक सप्ताह पहले किसी तरह बिदाई हुई थी। दीवाली मनाकर वापस जाने की बात थी। संयोग से मैं भी पहुंच गया था। बेटी से बातें करते और दोनो नातियों के साथ खेलते हुए बडा मज़ा आ रहा था... कि दीवाली के दो दिन पहले समधी आ गये। और शाम को अचानक बिदाई पर ज़ोर देने लगे। कहा कि दीवाली की पूजा है, पूरे परिवार का साथ रहना जरूरी है।
मैं बिफर पडा – ‘यह बात बिदाई के पहले क्यों नही की ?’ ... भइया घर पे नहीं थे। और पिछ्ली सारी बातों का असर रहा होगा। कई सालों का बन्द ढक्क्न ऐसा खुला कि मैंने एकदम ‘ना’ कह दिया। और मन ही मन तैयार हो गया- सारे झगडे के लिए। सोच लिया कि कोर्ट-कचहरी भले हो जाये, पर इस साँसत से निकलना ही होगा- सम्बन्ध रहे, चाहे टूटे...। इस सडाँध को झेलने से टूट जाना ही बेहतर। बस, इसी रौ में उनके सारे रहन-सहन, सोच-सलूक पर एकदम साफ-साफ, काफी कुछ कह भी दिया – बेशक़ शांत लहज़े और सुथरी भाषा में...।
समधी तो चले गये, पर दूसरे दिन दामाद आ गया- शायद पिता ने मेरे कहने को नमक –मिर्च लगाकर बताया होगा। शहर से अपने घर न जाकर सीधे मेरे घर आया। शाम को घर में सिर्फ औरतें व बच्चे थे। एकाध घंटे ही रहा और हमें तो किसी ने बताया नहीं, पर पता लगा कि लगातार कुछ कहता-धमकाता रहा। छह साल के नाती ने जरूर कहा- ‘नाना, आप नहीं थे, तो पापा आये थे। मम्मी से कह रहे थे- ‘पत्नी के लिए सबसे बडा होता है पति। भगवान से भी बडा..। क्या पति भगवान से भी बडा होता है..’।
मैं क्या बताता ! मुझे चुप देखकर फिर बोला- ‘बताओ न नाना, पापा आज ऐसा क्यों कह रहे थे? रोज़ तो भगवान को सबसे बडा बताते हैं’। मैं हतप्रभ... !
पर अब बच्चे के मानस-पटल पर दरार न पडने देने के लिए कुछ तो बताना ही पडेगा..., सोचते हुए मेरे मुँह से निकला – ‘मेरे लिए तो सबसे बडा है – मेरा ये नन्हा-सा नाती। भगवान से भी बडा...’ कह्ते हुए उसे गोद में लेकर उछाल दिया...और हँसते हुए ‘और उछालो, और उछालो’ कहने में वह अपना सवाल भूल भी गया।
लेकिन कुछ ही देर बाद समधीजी बाइक पर नमूँदार हुए अपने बडे बेटे के साथ। गडबड का पूरा अन्देशा हो गया...। गाँव को जवाब देने का ख्याल सबसे पहले आया... नयी नताई ! कल ही गये हैं समधी... आज फिर क्यों आ गये इतनी रात को !! शाम को दामाद आया था...। याने गाँव सोच रहा होगा कि क्या हो रहा है। ख़ैर,
चाय-पानी हुआ। खाना-वाना खाकर सोया गया। सुबह नाश्ता करते हुए शुरू हुए समधी महोदय– ‘जरा ध्यान से सुनिए प्रोफेसर साहब, आप तो पढे-लिखे हैं। बात को समझिए... कल शाम को मेरे मना करने के बावजूद मेरा बेटा यहाँ आया था। बडा जिद्दी है। मानेगा नहीं। आप बहू को विदा कर दें। मैं उसे लेकर जाऊँ और सब बात खतम हो जायेगी’।
सुनकर तो मेरे बदन में आग ही लग गयी, पर अपने घर का लिहाज रखते हुए मैंने भरसक पूरी नरमी से ही कहा – ‘देखिये, कल मैंने इतनी बातें कीं...और आज आप बेटे को समझाने के बदले यहाँ चले आये लिवांने... यह तो उसे शह देना है। और मेरी बात वही है कि चार साल बाद बिटिया आयी है। अभी 8 दिन हुए... परसों दीवाली है। उसकी बहन आयी है, कल बुआ आ रही है। मैं आ गया हूँ। इतना सब संयोग बन गया है, तो इस बार हमें साथ में दीवाली मना लेने दीजिए...जिन्दगी भर तो आपके यहाँ रहना ही है। चार साल बाद कम से कम दस दिन मायके में रहने का संतोष भी हो जायेगा’।
परंतु वे मेरी बात को जैसे अनसुनी करते हुए बोले- ‘आप मेरी स्थिति को समझिये... बच्चे के दिमाँग की सोचिये..। और् बिदाई कर दीजिए। बस, मैं इतना ही कहूँगा’।
‘और मैं कहूँगा कि आप मेरी बात को समझिए, पर आप तो सुनना तक नहीं चाह रहे हैं। अब बेटे को आप तीन दिन कैसे सँभालेंगे, आप सोचिए’- शब्दों पर दबाव बढ गया।
‘तो मतलब कि बिदाई नहीं होगी...?’- ढिठाई थी पूछने में....।
‘बिदाई होगी- दीवाली बाद। उसी दिन, जो कल तय हुआ’- उतनी ही ढिठाई आवाज में।
‘तो ठीक है, तब तक हम भी यहीं रहेंगे, उसी दिन जायेंगे लिवाकर ही...’।
बस, अब तो मेरा पारा सातवें आसमान पर ‘तो तुम धरना दोगे हमारे दरवाजे पर ? और हम देने देंगे? अब तो आप को जाना ही होगा’।
वो थोडा हँसे- ‘तो क्या आप भगा देंगे? मैं तो यहीं ओरी की नीचे निखरह्री खाट पर भी सो लूँगा- जमीन पर सो लूँगा, पर जाऊँगा बहू को लेकर ही...’।
मेरे हाथ उठे ही थे –‘निकल जाओ’- कहने के लिए कि अचानक मैंने अपने हाथ को बेटी के हाथों में थमा पाया । भर सिर को आँचल से ढँके वह अपने ससुर और मेरे बीच खडी हो थी। मुझे विश्वास तो अब नहीं हो रहा, पर सुनी मैंने अपने ही कानों से अपनी ही पाली बेटी की आवाज... वह अपने ससुर से मुखातिब थी - ‘मैं चलूँगी पापा, आप अभी लेकर चलिए...’ और फिर मेरी तरफ़ मुडी। शब्द निकलने के पहले ही मैंने उसके होंठों पर हाथ रख दिया। और बोला- ‘ठीक है बेटा, अब मुझे कुछ नहीं सुनना है। मैं गाडी मँगाता हूँ अभी। और तुम लोग चले जाओ... अब तुम वहीं रहोगी। बस, सब खत्म..’।
और मैं चल पडा गाडी वाले को फोन करने...। लेकिन फिर बेटी के जाने तक घर वापस न आ सका। बगल वाले भाई के दरवाजे पर पडी एक खाट पर पड गया।
पडे-पडे ख्याल आया अपनी बडी बहन का...। तब मैं नवीं में पढ रहा था। बहन किसी झगडे के कारण ससुराल से अपने आप चली आयी थी। दो-तीन दिन बाद उसके ससुर लेने आये थे। मैंने बचपनी आक्रोश में मना कर दिया था- अब मेरी बहन उस घर में नहीं जायेगी। घर के किसी ने मेरी बात का विरोध नहीं किया था। उसके ससुरजी नाराज होकर चले गये थे। जाते हुए कह भी गये थे – आज तक कोई अपनी बहन-बेटी को जिन्दगी भर रख नहीं पाया है बेटा...।
और मैंने उसी जुनून में कह दिया था – मैं वही करके दिखा दूँगा...।
चार साल रही बहन अपने दो बच्चों के साथ, कभी चूँ तक नहीं किया । और उसी ससुर के मरने के बाद मैंने ही पहुँचाया था, तब गयी थी।
उस दिन लगा कि मेरी बहन बेवकूफ़ थी- और मैं तो आज भी हूँ। उसे भी चले जाना चाहिए था। किस बिसात पर मैंने उसे रोका था और किस उम्मीद पर वह रुकी थी !!
अब तो मेरे पास बिसात है। नियम-कानून हैं। पर बेटी चली गयी...।
जवाब दिया आज इस छात्रा ने...। और अचानक मन में कौंधा– संवेदनाएं अब काफ़ी प्रैक्टिकल हो रही हैं और मैं आउट ऑफ़ डेट...।
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सम्पर्क- नीलकण्ठ, एन एस रोड न.-5, विलेपार्ले-पश्चिम, मुम्बई – 400056, मो-
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