Sunday 4 May, 2008

यह ‘रेस’ किसकी है.....?

यह ‘रेस’ किसकी है.....? मस्तान अब्बास द्वारा निर्देशित और बहुप्रचारित फिल्म ‘रेस’ तीन-तीन नामी हीरो-हिरोइनों से भरी है- सजी नहीं है...। और यह रेस घोडों की नहीं है..। हालांकि नायक सैफ़ अली का घोडों का पेशा भी है और पैशन भी। इस पेशे में उसका चिर प्रतिद्वन्द्वी दिलीप ताहिल है, जिसने एक बार धोखे से सैफ को बडी करारी मात दी है, पर जान जाने के बाद सैफ उससे भी बडे धोखे से ऐसी करारी शिकस्त देता है कि वह शायद नेस्तनाबूद ही हो जाता है...। यह सब आधे घंटे में पूरा हो जाता है- याने रेस व उसमें विलेन का यह सब मामला फिल्म में बहाना ही है। असली रेस तो सैफ अली के साथ उसके सौतेले भाई बने अक्षय खन्ना की है, जो सबसे पहले सैफ की प्रेमिका विपाशा बसु को पाने की रेस दिखती है। लेकिन उसे सैफ सहर्ष दे देता है भाई को- शराब की लत छोडने की शर्त पर प्यार व शादी करा देता है...। तब मालूम पडता है कि असली रेस तो सैफ के पचास मिलियन पाने की है - कानूनी शर्त के मुताबिक उसे दुर्घटना में मरवाकर । उसमें से 20 मिलियन देने के सौदे पर विपाशा को मोहरा बनाकर अक्षय ही लाया है। दुर्घटना के ठीक पहले विपाशा बता देती है सैफ को और लगता है कि अब अक्षय मारा जायेगा, पर ऐन वक्त पर अक्षय का ही साथ देती है विपाशा और सैफ मारा जाता है। यहीं मध्यांतर होता है और समीरा को सेक्रेटरी के रूप में लिए अनिल कपूर नुमायां होता है जांच अधिकारी के रूप में एकदम करमचन्द-किटी स्टाइल की नकल बनकर । जांच के दौरान सैफ की सेक्रेटरी कैटरीना कैफ़, जो सैफ से प्रेम करती भी पायी जाती रही, सैफ के साथ अपनी शादी का प्रमाणपत्र पेश कर देती है - याने अक्षय का भाई को मारना गुनाहे बेलज्जत ही हुआ- वो 50 मिलियन अब कैटरीना पायेगी...। लेकिन तब तक एकदम अलग ही राज़ खुलता है - सैफ की दस्तख़त कैट्रीना धोखे से पहले ही ले चुकी थी- शादी के वक्त तो अक्षय वहां मौजूद था। अब विपाशा को भी धोखा देता अक्षय यूं पक्का शातिर बन सामने आता है कि विपाशा को मारने की सुपारी उसी के हाथों दिलवाता है। अनिल को भी तिहाई रक़म देकर जब पैसा कैश हो जाता है और विपाशा को खत्म करने क़ातिल आ जाता है, तब उडते हुए सैफ़ पुन: प्रकट होता है, जिसकी उम्मीद इतने सारे अचानक मोडों के बाद हमें हो ही गयी थी..। अब मालूम पडता है कि इस सब कुछ की खबर सैफ़ को पहले ही हो गयी थी। तभी उसने विपाशा को उसके साथ व्याहा था...। सस्पेंस का यह पार्ट सचमुच लाजवाब है। यहां आकर असली रेस का पता चलता है, जो पैसों की भी नहीं थी। भाई-भाई के सम्बन्धों की थी, जिसमें बचपन से ही हर मामले में- खासकर सायकल की रेस में- सैफ़ ही जीतता था । इससे हीन भाव की ऐसी ग्रंथि बन गयी कि अक्षय निकम्मा-सा सिद्ध हो गया और पिता ने 50-50 मिलियन के बीमे के अलावा सारी सम्पत्ति सैफ को दे दी थी। इसी के बदले में वह पूरा सौ मिलियन लेने के रोप में एक बार सैफ़ को हराना चाहता था; पर हरा नहीं पाया। बडा वजिब कारण भी सैफ़ ने बताया कि ‘तुम हराने के लिए लड रहे थे और मैं जीतने के लिए। इसलिए मैं जीतता गया और तुम हारते गये..’। लेकिन इस सचाई तक पहुंचने व इस सच को सुनने के लिए इतनी घाटियों-पहाडों से गुज़रना पडता है कि सब कुछ पर से विश्वास उठ जाता है। सीट से उठकर आते हुए शक़ होता रह्ता है कि अंत में जलकर ख़ाक़ हो चुके अक्षय-कैटरीना जीकर उठ न जायें और फिल्म फिर से चलने न लग जाये..। बडी मेहनत से बनी होगी यह स्क्रिप्ट। बहुत बांधती भी है। पर निर्देशन में किसी कलात्मक सूझ का नितांत अभाव है- वह कथा को ही फ़ाइनल मानकर अटक गया है। इसीलिए उत्तरार्ध एकदम ढीला हो गया है। संपादन के बिना बहुत लम्बा भी। शुरू के गीत मौजूं हैं, पर हर हिरोइन पर गीत के संतुलन की भर्ती वाले बाद के दो गीत भी संपादित होने लायक ही हैं। सैफ़ ने कमाल का काम किया है...। अक्षय भी सही है, पर अनिल का रोल ही भरती का है। दोनो भाइयों से कट लेकर 50-60 मिलियन बना लेने में भ्रष्ट जमाना भले उजागर हुआ हो, अधिकारी का वह च्ररित्र और फ़ालतू हो गया है। देह-प्रदर्शन व भूखी शेरनी बनकर पुरुष पर टूट पडने के अलावा विपाशा को कम ही फ़िल्मों में कुछ करने को मिलता है- वही यहां भी है। यही कैटरीना को भी करना हुआ है। अभिनय दोनो को नहीं आता। कुल मिलाकर सैफ़ व अक्षय के अलावा सभी इसमें फ़िलर ही हैं - पर इस रूप में भी समीरा ही कुछ ठीक बन पडी है। कई-कई सस्पेंसों से भरी यह फिल्म एक बार तो देखने लायक है ही...। - सत्यदेव त्रिपाठी

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