Saturday 18 July, 2009

गडे मुर्दे क्यों उखाडे जायें ‘बालिका वधू’ में... ??

‘हमारा महानगर’ (17 जुलाई, 09) में ‘बालिका वधू’ पर संसद में उठे सवाल को लेकर अलका आश्लेषाजी का आलेख पढने को मिला। धारावाहिक को अलका जी ने ‘सामाजिक जागृति का सकारात्मक रूप’, ‘बाल-विवाह के विरोध में एक सार्थक कोशिश’ ‘इस कुप्रथा की समस्याओं को सुलझाने’ व ‘दर्शकों को शिक्षित करने के उद्देश्य वाला’...जैसे जितने विशेषण हो सकते हैं, से नवाज डाला है। और कार्यक्रम हम देख रहे हैं। खेद है कि हम ऐसा कुछ भी देख नहीं पा रहे हैं। काश, अलकाजी ने कहीं एकाध उदाहरण दे दिया होता कि यह सब किस घटना, किस चरित्र, या इनके किस परिणाम से हो रहा है, तो हम भी शायद समझ पाते ! हम तो देखते हैं कि इसकी बालिकाबधू व बालकवर (आनन्दी-जगिया) परम प्रसन्न एवं सुखी हैं। जितना मान-सम्मान, स्नेह-दुलार उन्हें सीरियल के परिवार-समाज से मिल रहा है तथा उसी के चलते जितनी लोकप्रियता उन्हें आज मिल रही है, उसे देखकर हर बच्ची-बच्चा यदि बालिका बधू - बालक वर बनने का सपना देखने लगे (और देख रहे हैं), तो क्या बेज़ा है? क्या यह एक मृत हो गयी रूढ व्यवस्था को ग्लैमराइज़ करना नहीं है? कौन-सी जागृति इसमें निहित है। हाँ, जागृति के नाम पर आनन्दी के ससुराल में पढने की शुरुआत करायी गयी, जो कुछ कडियों को हिट करके ग़ायब हो गयी। वैसे बाल-विवाह की बात ही गडे मुर्दे उखाडना है और ‘कलर’ चैनल तो प्राय: सभी में यही कर रहा है। ‘लाडो...’ में लडकी की भ्रूण-हत्या का मामला कमिश्नर तक ले जाने वाली लडकी अब अम्मा के घर में नौकरानी बनकर रह रही है- पता नहीं कौन सी योजना लिये है !! कमिश्नर न जाने कहाँ गया? इतने पढे-लिखे जागरूक लोगों के बीच कोई पुलिस, कोई व्यवस्था नहीं आ पाती और अम्मा की निरंकुश तानाशाही सत्ता चल रही है... ऐसा गाँव भारतवर्ष में कहाँ है? अम्मा की दादागीरी के स्टंट के सामने तो मनमोहन देसाई व प्रकाश मेहरा की फिल्में भी पानी भरें ! तो बालिका वधू की पढाई की बात भी मुर्दे को भूत बनाना ही है। राजस्थान व बिहार में यदि कहीं-कहीं ये प्रथाएं हैं, तो ऐसे सीरियल वहाँ के लोकल चैनल पर दिखाये जायें। पूरे देश में इन मुरदा प्रथाओं को क्यों जल्वागीर किया जाये ? फिर दिखायें, तो ऐसे कि इनके प्रति अरुचि-जुगुप्सा पैदा हो, न कि ऐसा ग्लैमर कि वैसा बनने का रश्क़ होने लगे...? आइये आगे बढें... घर के बडे बेटे बसंत की दूसरी शादी भी घर वालों को पैसे देकर कच्ची उम्र की किशोरी से करा दी – क्रूर-जघन्य यथार्थ दिखा, विरोध भी दर्ज़ हुआ। लगा कि कोई सार्थक पहल होगी...। दस-बीस कडियां उसमें भी जम गयीं। यह ग़ैर कानूनी है, पर इस तरफ़ ख्याल क्यों जाये? बच्चा देकर ऋण उतारकर जाने के निश्चय से रुकी थी। बडा अच्छा लगा था...। पर अब वह अच्छी-ख़ासी ‘बींदनी’ बनकर घर-बार सँभाल रही है। घर के दुख-सुख में हँस-रो रही है। याने ये होता रहे, का ही सन्देश बना न ! तो कौन सा जागृति पैदा हुई और कौन-सी शिक्षा मिली ? बस, उन विरोधों के नाटक में कुछ कडियाँ फिर हिट हो गयीं। असल में यह सारा खेल कडियों को हिट करने का ही है। ऐसे मुद्दों को ‘हुक’ कहते हैं, जिसे खोजना सीरियल-लेखन का बडा गुर है। ये हुक दर्शक को फँसाने के लिए होते हैं। फिर उसे भूल जाना ही इस विधा का अनुशासन (डिसिप्लिन) है। इस हुक के मक़्सद और मर्म को आम दर्शक तो नहीं समझता, पर लेखक-विकारक ? हाँ, इस बींदनी के गर्भ के जिस बच्चे को लेकर इतना हंगामा हुआ, वह गया कहाँ? याने कहानी तक से ‘हुक’ का मतलब नहीं। तीसरा मसला दादी की पोती (सुगनी) का है, जो विधवा समस्या से जुडा है। उसकी दूसरी शादी कराना जरूर एक सकारात्मक बात है, पर वह गाँव कहाँ है भारतवर्ष में कि वह पहले पति से गवने के पहले इतना मिलती है (रोमांस भी भुना लिया !) कि गर्भवती हो जाती है। यदि यह सब पुराना है, तो मोबाइल कहाँ था तब ? और नया है, तो इतना सब कहाँ है? दोनो ही अतिवाद है। इसकी ज़रूरत न सच को थी, न कथा को । फिर विधवा हो जाने पर जो यातनाएं दी जाती हैं, वे तो किसी भी दृष्टि से कतई बर्दाश्त के काबिल नहीं। हमारा समाज आज के लिए इस सफेद झूठ व एकदम ग़ैरज़रूरी यातनाओं को देखता है, वही आश्चर्यजनक है। और अब एक बुद्धिजीवी पत्रकार से इसकी पैरोकारी तो जले पर नमक ही है। लगता है कि कमाऊ मीडिया के कुएं में पडी भाँग का नशा पूरे समुद्र पर तारी है। पूरा घर उस यातना के खिलाफ़ है और एक बूढी माँ सबकुछ किये जा रही है। कहाँ है ऐसी माँ ? और है, तो क्यों है अलकाजी ? वह पुरखों की बनायी व्यवस्था का वास्ता देती रहती है, जो तब भी इतनी क्रूर न थी। इसका सही रूप इतिहास के गवाक्ष से दिखाने वाली ‘राव साहेब’ फिल्म (जयवंत दळ्वी के नाटक ‘बैरिस्टर’ पर आधारित) में देखा जा सकता है। ऐसा सब और-और भी बहुत कुछ है...पर अभी बस इतना ही। अब कुछ विमर्श देखें... सीरियल का आज मतलब कि हर अच्छे-बुरे को इतना बढा-चढा कर दिखाया जाये कि दर्शक गदगद होकर, गलदश्रु होकर, चमत्कृत होकर... याने चाहे जैसे... बस, देखे। उनकी टी.आर.पी. बढे। विज्ञापन मिलें। सब कमायें-खायें। बनाने में तो व्यापारी घुस ही आये हैं मीडिया में, करने वालों को भी मोहजाल में फँसे जमाना हो गया। वरना बालिकाबधू के मुख्य चरित्र एनएसडी के हैं – एक सरोकारपरक संस्थान से प्रशिक्षित । दोनो बेटे तो अपेक्षाकृत नये एनएसडियन हैं, उनसे क्या पूछना, पर आधुनिक हिन्दी रगमंच में अभिनय की वृहत्रयी में शुमार उस जमाने की एनएसडी अभिनेत्री सुरेखा सीकरीजी, जो स्वयं सारी गल्दराजी की शीर्ष् (दादी) बनी मौजूद हैं, से आख़िरी बार पूछने का मन होता है – ‘दाग़ेदिल ग़र नज़र नहीं आता, बू भी क्या चाराग़र नहीं आती...’!! ख़ैर, इनका तो फ़ायदा हो रहा है। तमाम नाटकों के बावजूद इतनी अपार लोकप्रियता सुरेखाजी को कभी नहीं मिली। ‘लाडो...’ की अम्मा बनी मेघना भी एनएसडी की है और फूले न समा रही होगी कि जो मुकाम सुरेखाजी को जीवन के आखिरी पडाव पर मिला, उसे पहले चरण में ही मिल गया। महिमा मीडिया के ज़माने की ! लेकिन अख़बारों में इसकी स्तुति करने वालों को क्या मिल रहा है? मैं नहीं जानता कि सदन मे उस सांसद (शरद यादव – जे.डी.य़ू.) ने क्यों यह सवाल उठाया। क्या राजनीति है इसके पीछे? बकौल अलकाजी इस सीरियल पर और भी कई तरह के संकट आये। विरोध हुए। बन्द करने की कोशिशें हुईं... वो सब उन्हें सुनियोजित साज़िशों के परिणाम लगते हैं। इस अन्दरूनी बात का भी मुझे पता नहीं, लेकिन चाहे जैसे – ग़लती से ही सही, एक सही सवाल उठा तो सही ! अब उस पर कुछ सप्रमाण व तर्कसम्मत न कहकर सदिच्छा या अपनी निहित पसन्द को थोपकर उस सवाल को उलझाने का क्या मतलब है? और यदि सीरियल में से वे बातें निकालकर बतायी जायें, जिससे शिक्षा, सरोकार, सकारात्मक बदलाव... आदि होते हों, तो मैं अवश्य लाभान्वित और उपकृत महसूस करूँगा...। * * * * सम्पर्क- ‘नीलकण्ठ’, एन.एस. रोड नं.-5, विलेपार्ले-पश्चिम, मुम्बई- 400056 फोन- 022-26101987/ 26163215. मो. 09869355103

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